पर्यटन- यात्रा करने से मत कतराइए

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कल जब एक सज्जन ने एक प्रकार से गर्वमिश्रित लहजे में कहा कि अपने सोलह वर्षों के सेवाकाल में उन्होंने यात्रा भत्ता सुविधा का लाभ एक बार भी नहीं लिया तो मुझे कोई विशेष आश्चर्य नहीं हुआ बल्कि उनकी पत्नी और बच्चों के प्रति सहानुभूति हो आई। यह चाहे एक अपवाद मान लिया जाए मगर तथ्य यही है कि पर्यटन हेतु यात्रा के मामले में हम कुल मिला कर घर-घुस्सू ही कहे जाएंगे।
विदेशों की तो बात छोड़ दीजिए, हम में से कितनों ने अपना देश ही नहीं देखा है। आस-पास के पिकनिक स्थल तक भी हम में बहुतों ने नहीं देखे पापों । उधर विदेशियों को देखिए, झुंड के झुंड, कैमरे हाथों में लिए, बैग कंधों पर टांगे, स्त्री-पुरूष, हर जगह आपको घूमते मिल जाएंगे।
यह न सोचिए कि ये सभी लखपति-करोड़पति होते हैं जिन्हें रोजी-रोटी की फिक्र नहीं, बस मौज-मस्ती से ही काम है। नहीं, इन में से अधिकांश हमारे आप जैसे मध्यमवर्गीय ही होते हैं जो एक-एक पैसा जोड़ कर अपने पर्यटन हेतु तैयारी करते हैं क्योंकि उन के मन में एक चाह होती है, उमंग होती है अपना देश ही नहीं, संसार भर को देखने की।
हमारे पूर्वजों ने बहुत पहले इस आवश्यकता को महसूस किया था और उन्होंने तीर्थाटन के नाम पर उत्तर-दक्षिण, पूर्व-पश्चिम के विभिन्न तीर्थ-स्थलों पर जाने का प्रावधान कर दिया था। यह तब की बात है जब यात्रा करना सुगम नहीं था। अब तो यात्रा हेतु हर प्रकार के साधन हैं। भांति-भांति की सुविधाएं हैं, कई प्रकार की छूट मिलती है, अवकाश यात्रा सुविधा है।
कभी यही सोच कर देखिए कि नियोजक यह सुविधा क्यों देते हैं? इसलिए कि कर्मचारी इस का लाभ उठा कर घूम-फिर आएं और वापस आ कर नई ताजगी के साथ, अधिक उत्साह से अपना काम करें। यह सही है कि भीड़-भाड़ के इस युग में कभी कभी उर्दू भाषा का सफर (यात्रा) अंग्रेजी भाषा का सफर करना (यंत्रणा) भी हो जाता है किन्तु आवश्यक तैयारी के साथ योजना बना कर यात्रा करने से प्रायः ऐसी किसी भी कठिनाई से बचा जा सकता है।
यह भी देखने में आया है कि रेल विभाग के ‘ट्रेवल लाइट’ अर्थात हल्के-फुल्के यात्रा करने के अनवरत अनुरोध एवं परामर्श के बावजूद हम लोग पूरी तरह लदे-फदे ही यात्रा करने में विश्वास करते हैं। खाने-पीने, ओढ़ने-बिछाने, पहनने-बदलने के समुचित साज-सामान के साथ-साथ हर आपात स्थिति के लिए भी कुछ न कुछ साथ ले कर ही चलते हैं जिस में से अधिकांश वैसे का वैसा अनछुआ वापस लौट आता है। परिणामतः यात्रा का आनन्द लेने की बात तो दूर रही, हम न केवल स्वयं परेशान होते हैं बल्कि अपने सहयात्रियों को भी परेशान कर देते हैं।
कभी कभी तो कुली और टैक्सी भाड़ा रेल किराए से अधिक पड़ जाता है। इसी कारण यात्रा से बजाए प्रफुल्लित और ताजा दम लौटने के हम थके हारे लौटते हैं और फिर कभी यात्रा का नाम भी न लेने की कसम खा लेते हैं।
यात्रा का अभिप्राय है कुछ दिनों के लिए एक बंधे बंधाए माहौल, नियमित दिनचर्या, सेट रूटीन से दूर हटना, उन्हीं रोज-रोज के जाने-पहचाने चेहरों से अलग हो जाना, नए स्थान देखना, नए लोगों से मिलना, नई जानकारी, नए अनुभव प्राप्त करना अर्थात अपनी दृष्टिसीमा, दृष्टिकोण को विस्तार देना। हम अपने देश की अनेकता में एकता पर गर्व तो करते हैं किन्तु उस विविधता को प्रत्यक्ष देखने का प्रयास कम ही करते हैं।
नतीजा यह है कि एक ही देश के वासी होते हुए भी हम एक दूसरे के बारे में अधिकांशतः अनभिज्ञ रहते हैं, कई प्रकार की भ्रांतियां पाले रहते हैं। यहां तक कि हमें एक दूसरे के नामों के उच्चारण में कठिनाई होती है। राष्ट्र की एकता और अखण्डता हेतु भी आवश्यक है कि देश के एक भाग के लोग दूसरे भाग वालों से मिलें जुले, उन के खानपान, रहन-सहन, रीति-रिवाजों, परम्पराओं, मान्यताओं, संस्कृति, साहित्य, दृष्टिकोण आदि से परिचित हों। यात्रा इस हेतु भी जरूरी है।
मेरी सलाह मानिए। यात्रा से कतराना छोडि़ए। अपना ही नहीं, अपने परिवार का भी ख्याल कीजिए। अवकाश यात्रा भत्ता लीजिए और मनोरंजन के उद्देश्य से यात्रा पर निकल पडि़ए। आप स्वयं अनुभव करेंगे कि एक नया, अनचीन्हा, अनजाना किन्तु मनोरम परिदृश्य आप के सामने है जिस के अवलोकन व आस्वादन का आनन्द अद्वितीय है। आपकी पत्नी और बच्चों के चेहरों पर उभर आई ताजगी, चमक, उल्लास, प्रफुल्लता और प्रसन्नता का भला कहीं मूल्य आंका जा सकता है।
अनातोले फ्रांस ने कहा था कि यात्रा केवल स्थान परिवर्तन  ट्रेवल मात्र ही नहीं है। यात्रा से हम अपना मत भी बदलते हैं तथा पूर्वाग्रह भी। यात्रा से न केवल हमारा दृष्टिकोण विस्तृत होता है वरन ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ भावना भी प्रबल होती है। 

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