
धर्म की अपनी एक मर्यादा होती है उसका पालन हर व्यक्ति को करना चाहिए। इस लोक में माता, पिता, भाई, बन्धु और मित्र हमारे सहायक हो सकते हैं परन्तु परलोक में केवल धर्म ही हमारा साथ देता है। आत्मा के शरीर से बाहर निकलते ही इस भौतिक शरीर को अपने प्रिय सुजन मिट्टी के ढेले के समान समझकर अग्नि के हवाले कर देते हैं। सभी सांसारिक रिश्ते-नाते केवल श्मशान तक साथ निभाते हैं। उसके बाद धर्म हमारा हाथ थाम लेता है और फिर जन्म-जन्मान्तरों तक मीत बनकर हमें मार्ग दिखाता है।
अकेला धर्म ही हमारा ऐसा मित्र है जो लोक-परलोक दोनों स्थानों पर हमारा साथ नहीं छोड़ता बल्कि भाई, बन्धु, सखा आदि सब कुछ बनकर कदम-कदम पर हमारी रक्षा करता है। हम ऐसे एहसान फरामोश हैं कि उसी का तिरस्कार करते रहते हैं। वह हमें कुमार्ग पर कदम न बढ़ाने के लिए चेतावनी देता है और हम उसे डाँटकर चुप करा देते हैं। हम लोग जब तब अपनी मनमानी करते हैं। उसका फल कष्ट व परेशानियों के रूप में जीवन भर भोगते रहते हैं।
धर्म कहता है माता-पिता की सेवा करो, नित्य पञ्चमहायज्ञ करो, स्त्रियों का सम्मान करो, पराई स्त्री को माता समझो, सबके साथ समता का व्यवहार करो आदि। धर्म परस्पर भाईचारा निभाने का आदेश देता है। प्राणिमात्र पर दया करने का उपदेश देता है। धर्म में हिंसा या मारकाट का कोई स्थान नहीं होता। जब हम धर्म के परामर्श के अनुसार चलते हैं तो इस जीवन में सफलताओं की सीढ़ियाँ चढ़ते जाते हैं। तब स्वयं को दुनिया का सबसे सौभाग्यशाली इन्सान समझकर हम इतराते रहते हैं।
धर्म मनुष्य को दुखों से निकालकर सुख की शीलत छाया में ले जाता है। वह असत्य से सत्य की ओर व अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाता है। यही अधर्म पर विजय दिलाता है। धर्म का पालन करके ही मनुष्य को आत्मबल मिलता है। वह किसी से डरता नहीं है। वह किसी भी प्रकार के अन्याय व अत्याचार का सजग होकर विरोध कर सकता है। दूसरों को भी धर्म की अनुपालना के लिए प्रेरित करता है। ऐसा धर्म का पालक सबके लिए उदाहरण बन जाता है। लोग उसे महापुरुष की संज्ञा देते हैं। जिस मार्ग वह चलता है वह दूसरे लोगों के लिए अनुकरणीय बन जाता है।
इसीलिए विद्वान कहते हैं-
महाजनो येन गत: स पन्थ:।
अर्थात् महापुरुष जिस मार्ग पर चलते हैं वास्तव में वही उचित मार्ग होता है। उसी पर हम सबको चलना चाहिए।
धर्म की मर्यादा के पालन का एक अर्थ है अपने घर-परिवार, देश, धर्म व समाज के प्रति अपने दायित्वों को निभाना। प्राणिमात्र से अपने जैसा व्यवहार करना भी धर्म की मर्यादा ही है। सभी सम्बन्धों में घालमेल न करके उनके प्रति सजग रहना धर्म का सार है। भगवान राम को हम इसीलिए मर्यादा पुरुषोत्तम कहते हैं क्योंकि उन्होंने सभी रिश्तों की मर्यादा को समझा और उनको अपने मन से निभाया।
धर्म की मर्यादा का दूसरा अर्थ है जिस भी धर्म के अनुयायी हैं, उसे सच्चे मन से अपनाएँ। वहाँ इसके पालन में प्रदर्शन की कोई आवश्यकता नहीं होती। किसी को दिखावा नहीं करना चाहिए बल्कि आत्मिक शान्ति के लिए ही उसका अनुगमन करना चाहिए ताकि लोक और परलोक दोनों सुधर जाएँ। ईमानदारी, श्रद्धा व सच्चाई से धर्म का अनुसरण करने से ही ईश्वर प्रसन्न होता है। मालिक को सरल हृदय लोग ही सदा पसन्द आते हैं।
धर्म का ढोंग करना धर्म की मर्यादा का पालन कदापि नहीं कहलाता। धर्म की मर्यादा का पालन करने का तात्पर्य यही है कि हम मन, वचन व कर्म से अपने धार्मिक और सामाजिक आदि सभी दायित्वों का सुचारू रूप से निर्वहण करें। हमें धर्म के अनुसार अपना आचरण रखना चाहिए। ऐसा करने से हमारी आत्मिक उन्नति होती है। तभी हमारे इहलोक और परलोक दोनों सुधरते हैं।