
सूर्योपासना का महापर्व ‘छठ’ को हिंदुओं का प्रमुख त्योहार माना जाता है। यह मुख्यतया बिहार, पूर्वी उत्तर प्रदेश और झारखंड में विशेष रूप से मनाया जाता है। लेकिन इस पर्व से जुड़ी आस्था और महिमा के कारण अब देश के लगभग सभी भागों यहां तक कि विदेशों में भारतीय मूल के लोग इस पर्व को धूमधाम से मनाते हैं। विशेषकर महिलाएं इस व्रत को अपने संतान और परिवार की खुशहाली के लिए करती हैं। हिंदू कैलेंडर के अनुसार छठ महापर्व कार्तिक शुक्ल पक्ष की षष्ठी को मनाया जाता है। कार्तिक मास का महात्म्य इतना अधिक है कि अधिकांश परिवार इस पावन महीने में तामसिक यानि नाॅनभेज भोजन से परहेज़ करते हैं अर्थात मांस-मछली यहां तक कि कुछ लोग प्याज और लहसून तक नहीं खाते हैं। कार्तिक मास में सूर्य दक्षिणायन होते हैं। वैज्ञानिक दृष्टि से इस समय सूर्य से निरोगी किरण निकलती है। पानी में खड़े होकर अर्घ्य देने के समय सूर्य से जो पराबैंगनी किरणें निकलती हैं वे स्वास्थ्य के लिए बेहतर होती है। चैत्र शुक्ल पक्ष की षष्ठी तिथि को भी छठ पर्व मनाया जाता है जिसे चैती छठ कहा जाता है। छठ पर्व, प्रकट देव भगवान सूर्य और प्रकृति से जुड़ा हुआ एक महान पर्व है, जो वैदिक काल से मनाया जा रहा है। महाभारत और रामायण में भी छठ पर्व का वर्णन मिलता है। ऐसी मान्यता है कि पांडव जब सारा राजपाट जुए में हार गए थे तब द्रोपदी ने अपने परिवार के कल्याण के लिए चार दिनों तक इस व्रत को किया था। कथाओं के अनुसार पहली बार माता सीता ने मुंगेर में गंगा नदी में स्थित एक शिलाखंड पर छठ पर्व को संपन्न किया था, जहां आज सीताचरण मंदिर है। पुराणों में छठ पर्व की शुरुआत और महत्व को लेकर इसी तरह की कई कथाएं मिलती हैं। लेकिन राजा प्रियव्रत से जुड़ी छठ पर्व की कथा सबसे ज्यादा प्रचलित है। कहा जाता है कि इस कथा को जानने के बाद ही छठ व्रत के महत्व को भी भली-भांति समझा जा सकता है। छठ पर्व की पौराणिक कथा के अनुसार, राजा प्रियव्रत और उनकी पत्नी मालनी की कोई संतान नहीं थी। इसे लेकर राजा और उसकी पत्नी दोनों हमेशा दुखी रहते थे। संतान प्राप्ति की इच्छा के साथ राजा और उसकी पत्नी महर्षि कश्यप के पास पहुंचे। महर्षि कश्यप ने पुत्रेष्टि यज्ञ कराया और इसके फलस्वरूप प्रियव्रत की पत्नी गर्भवती हो गईं। लेकिन नौ महीने बाद रानी ने जिस पुत्र को जन्म दिया वह मृत पैदा हुआ। यह देख प्रियव्रत और रानी अत्यंत दुखी हो गए। संतान शोक के कारण राजा ने पुत्र के साथ ही श्मशान पर स्वयं के प्राण त्यागने व आत्महत्या करने का मन बना लिया। जैसे ही राजा ने स्वयं के प्राण त्यागने की कोशिश की वहां एक देवी प्रकट हुईं, जो कि मानस पुत्री देवसेना थीं। देवी ने राजा से कहा कि वे सृष्टि की मूल प्रवृति के छठे अंश से उत्पन्न हुई हैं। उन्होंने कहा ‘मैं षष्ठी देवी हूं और कर्मवान को उनके कर्मों का फल, बांझिन को संतान, निर्धन को धन और व्यक्ति को निरोगी काया, प्रदान करती हूँ।’ राजा ने उसी समय छठ माता की पूजा की। माता की कृपा से उनका पुत्र जीवित हो गया। संभवतः तभी से संतान की कामना के साथ लोग पूरी निष्ठा और पवित्रता से इस महापर्व को मनाते आ रहे हैं। जिसकी झलक इस गीत में भी मिलती है – “घोड़वा चढ़न के बेटा मांगिले, गोड़वा लगन के पुतोह, हे छठी मइया दर्शन दीहीं न आपन रूनुकी-झुनुकी बेटी मांगिले, पढ़ल पंडितवा दामाद, हे छठी मइया लालसा पूरन हो हमार” ऐसी भी मान्यता है कि सच्ची श्रद्धा और विश्वास के साथ इस व्रत को करने से कुष्ठ और सफेद दाग जैसे रोगों से भी मुक्ति मिल जाती है। इस पर्व को विधि-विधान से सम्पन्न करने के बाद व्रती की सारी मनोकामनाएं पूर्ण हो जाती हैं। वैसे तो इस पर्व को मनाने के लिए लोग सूर्य मंदिरों में जाते हैं। गंगा के पावन घाटों पर भी भारी संख्या में व्रती और उनके परिजन इस पर्व को धूमधाम से मनाते हैं। अर्ध्य देने के लिए पवित्र नदियों, पोखरों, तालाबों या कृत्रिम जलाशयों पर भी साफ-सुथरे घाटों को बनाया जाता है जहां व्रती भगवान भास्कर को अर्ध्य अर्पित करते हैं। आजकल भीड़भाड़ से बचने के लिए घरों की छत पर भी कृत्रिम व्यवस्था की जाने लगी है, परन्तु पर्व का असली आनंद तो छठ घाटों पर ही मिलता है जहां गांव, कस्बे या शहर के सारे लोग एक स्थान पर एकत्रित होते हैं। लाउडस्पीकरों पर छठ के मधुर गीत लगातार बजते रहते हैं जिससे वातावरण बिल्कुल भक्तिमय हो जाता है। लोक आस्था के इस महापर्व ‘छठ’ के चार दिवसीय पवित्र एवं कठिनतम अनुष्ठान का पहला दिन ‘नहाय-खाय’ से शुरू होता है। इस दिन व्रत करने वाले गंगा या पवित्र सरोवरों के पावन जल से स्नान कर शुद्ध और सात्विक भोजन ग्रहण करते हैं, जिनमें मुख्य रूप से अरवा चावल के साथ चना और कद्दू (लौकी) की दाल पवित्र स्थान पर पूर्ण शुद्धता के साथ सेंधा नमक में बनाया जाता है। व्रती भगवान सूर्य की आराधना और महानुष्ठान हर्षोल्लास के साथ सम्पन्न होने की कामना के साथ उक्त सामग्री को ग्रहण करते हैं। फिर उसे प्रसाद के रूप में परिजन और ईष्ट-मित्रों को खिलाया जाता है। अनुष्ठान के दूसरे दिन ‘खरना’ होता है जिसे लोहंडा भी कहा जाता है। इसका अर्थ है- शुद्धिकरण। । जिसमें व्रती संध्या बेला में नदियों अथवा सरोवरों आदि में स्नान कर पूरी श्रद्धा निष्ठा और पवित्रता के साथ प्रसाद बनाने में जुट जाते हैं। विशेष प्रसाद में गाय के दूध में गु़ड़ अथवा गन्ने के रस की खीर तैयार करते हैं। साथ में घी से चुपड़ी हुई गेहूं के आटे की रोटियां और चावल के आटे का पिट्ठा भी बनाते हैं। प्रसाद को मिट्टी के चूल्हे पर आम की लकड़ी जलाकर तैयार किया जाता है। शाम ढलने के बाद पूजा-अर्चना तथा छठ माता और भगवान भास्कर को विशेष प्रसाद अर्पित करने के बाद व्रती एकांत में प्रसाद ग्रहण करते हैं। खरना के समय किसी भी तरह का शोर व्रती के कानों तक नहीं पहुंचना चाहिए। शक्ति और स्फूर्ति बनाए रखने के लिए इच्छानुसार व्रती गाय के दूध का भी सेवन करते हैं। क्योंकि इसके बाद लगातार 36 घंटे तक बिना अन्न-जल ग्रहण करते हुए पूरी आस्था और श्रद्धा के साथ निर्जला उपवास करना होता है। पूजन और अर्ध्य की समस्त प्रक्रिया में सिले-सिलाए वस्त्र धारण करना वर्जित है। खरना के दिन खीर और रोटी को प्रसाद के रूप में सभी लोगों को खिलाया जाता है। लोग इस दिन प्रसाद पाने के लिए व्रतधारी के घर या घाटों पर अवश्य जाते हैं और प्रसाद ग्रहण कर स्वयं को धन्य मानते हैं। कहीं-कहीं खरना के प्रसाद के रूप में चावल और सेंधा नमक में दाल बनाने और खिलाने की भी प्रथा है। अनुष्ठान के तीसरे दिन की सुबह लगभग चार बजे के पहले से ही व्रती और उनके परिजन नहा-धोकर पूरी पवित्रता के साथ मुख्य प्रसाद ‘ठेकुआ’ बनाने में लग जाते हैं। ठेकुआ को गेहूं के आटा में गुड़ मिलाकर बनाया जाता है और शुद्ध घी में तला जाता है। भगवान सूर्य को अर्ध्य देने के समय व्रती के हाथ में जो बांस से बना हुआ या पीतल का सूप होता है उसमें सभी प्रकार के फल जैसे केला, सेवा, संतरा, शरीफा, अमरूद, पानीफल (सिंघारा), घघरा नींबू, पानी वाला नारियल, ईख, अन्नानास, त्रिफला, सुथनी, शकरकंद, पत्ते वाली हल्दी और अदरक के साथ ठेकुआ और चावल के आटे से बना पिट्ठा भी रखा जाता है। इनके अलावा पान का पत्ता, तुलसीदल, बद्धि (धागे की माला), आलता आदि भी रखा जाता है। फिर सारे सूपों को बांस से बनी हुई बड़ी टोकरी में रख दिया जाता है जिस पर अक्षत, सिंदूर और चावल के आटे का लेप लगाया जाता है। मिट्टी के दिए में घी की बाती और धूप भी जलाते हैं। महिला व्रतियों को भर मांग सिंदूर लगाया जाता है। बारी-बारी से सभी सूपों से भगवान सूर्यदेव को अर्ध्य दिया जाता हैं। संध्या बेला में सूर्य भगवान के अस्त होने से पहले व्रती जल में उतरते हैं और स्नान करने के बाद हाथ जोड़कर साक्षात भगवान सूर्य आराधना करते हैं। ठीक सूर्यास्त होने से कुछ देर पहले प्रसाद से सजे हुए सूप को हाथों में लेकर भगवान भास्कर को पांच बार जल में ही परिक्रमा करते हुए पूरी श्रद्धा और भक्तिभाव से पहला सांयकालीन अर्ध्य दिया जाता है। डूबते हुए सूर्य की पूजा करना भी इस पर्व की बहुत बड़ी विशेषता है। उगते हुए सूर्य को अर्ध्य देने की रीति तो कई व्रतों और त्योहारों में है लेकिन डूबते हुए सूर्य को अर्ध्य देने की परम्परा केवल छठ पर्व में ही है। ऐसी मान्यता है कि संध्या बेला में भगवान भास्कर अपनी पत्नी प्रत्यूषा के साथ रहते हैं। जिन लोगों ने मन्नत पूरी हो जाने के बाद कोसी भरने का संकल्प लिया होता है वे सांध्यकालीन अर्ध्य के बाद अपने घर में कोसी भरने की प्रक्रिया करते हैं। यह एक बहुत महत्वपूर्ण और पवित्र परम्परा है। चार या सात गन्ने से छत्र बनाकर लाल कपड़े में ठेकुआ, फल, केराव आदि रखकर बांध दिया जाता है। छत्र के अंदर मिट्टी से बना हुआ हाथी रखा जाता है जिस घड़ा रख दिया जाता है। हाथी को सिंदूर लगाकर घड़े को ठेकुआ,अदरक, सुथनी तथा मौसमी फल से भर दिया जाता है। कोसी के चारों ओर अर्ध्य सामग्री से भरे सूप रखकर धूप-दीप जलाते हैं और शीश नवाकर आशीर्वाद मांगा जाता है। कोसी भरने की रात परिवार के लोग जागकर पूजा करते हैं, महिलाएं छठ गीत गाती हैं। फिर यही प्रक्रिया दूसरे दिन सुबह के अर्ध्य के समय घाट पर दुहराई जाती है। पूरे अनुष्ठान के दौरान महिलाओं द्वारा गाए जाने वाले छठ गीत- “कांच ही बांस के बहंगिया बहंगी लचकत जाए, नारियलवा जे फरेला घवद से ओह पर सुग्गा मेड़राए, केलवा के पात पर उगेलन सूरज देव, हमरो जे स्वामी कवन अइसन स्वामी हे करेली छठ बरतिया से उनके लागी, जोड़-जोड़े सूपवा तोहे चढ़ैवो ना मइया खोली न हो केवड़िया हे दर्शनवा दीहीं ना, उगऽ हे सूरज देव भईले भिनसरवा अरघ के रे बेरवा पूजन के रे बेरवा हो….” आदि अनेक कर्णप्रिय गीतों से पूरा वातावरण भक्तिमय बना रहता है और व्रतियों में आध्यात्मिक शक्ति का संचार होता है। छठ गीतों को इतनी प्रधानता दी गई है कि इन्हें सिर्फ छठ के दिनों में ही सुने जा सकते हैं। आम दिनों में छठ गीत बिल्कुल नहीं बजाए जाते हैं। अनुष्ठान के चौथे दिन उदीयमान सूर्य को अर्घ्य देकर व्रत का समापन किया जाता है। इस समय भगवान भास्कर अपनी पत्नी उषा के साथ होते हैं। कहते हैं कि प्रात:कालीन अर्ध्य रोगनाशक है और शरीर में प्रतिरोधक शक्ति बढ़ती है, जबकि सांध्य अर्ध्य से जीवन में सम्पन्नता आती है और दोपहर में सूर्य की आराधना करने से यश और कीर्ति मिलती है। प्रतिदिन सूर्य को विधिवत अर्ध्य देने से व्यक्ति की कुंडली में सूर्य की स्थिति मजबूत होती है और सूर्य दोष मिट जाते हैं। इसके लिए भोर होने से पहले सभी व्रती छठ घाटों पर पुनः एकत्रित होते हैं। कुछ लोग तो छठ घाटों पर ही रात्रि विश्राम करते हैं। सूर्योदय से पूर्व सभी व्रती स्नान कर पानी में खड़े-खड़े ही भगवान भास्कर के उदय की प्रतीक्षा करते हुए हाथ जोड़कर ध्यान लगाते हैं। जैसे ही सूर्य की लालिमा आकाश में नजर आती है वैसे ही अर्ध्य देने की प्रक्रिया शुरू हो जाती है। जल और गाय के कच्चे दूध से सूर्य को अर्ध्य दिया जाता है। फिर प्रसाद से भरे हुए सूप को लेकर व्रती पानी के भीतर ही पांच बार घूमकर अर्ध्य देते हैं। अपनी सारी गलतियों के लिए क्षमा मांगते हुए सभी की खुशहाली की कामना करते हैं। घाट पर उपस्थित सभी लोग भगवान सूर्यदेव का नमन करते हैं। फिर पानी से बाहर निकल कर व्रती प्रसाद के रूप में एक टुकड़ा अदरक चबाकर और नींबू का शर्बत पीकर इस पावन एवं कठिनतम व्रत का समापन करते हैं। घाट पर ही प्रसाद मांगने वालों की भीड़ लग जाती है। हर कोई छठ का पावन प्रसाद ठेकुआ और फल पाकर स्वयं को धन्य मानता है। बिहार-झारखंड-पूर्वी उत्तर प्रदेश के लोग जो दूसरे शहरों में रहते हैं, लगभग वे सभी इस पुनीत महापर्व पर अपने घर आने की जरूर कोशिश करते हैं, जिसके कारण ट्रेनों और हवाई जहाजों में भीड़ काफी बढ़ जाती है। यात्रियों की सुविधा का ख्याल रखते हुए भारतीय रेल इस अवसर विशेष ट्रेनों की व्यवस्था करती है। छठ में सारा परिवार एक जगह इकट्ठा होता है। इस पर्व में अमीर-गरीब और ऊंच-नीच का भेदभाव भी मिट जाता है। किसी को भी छठ व्रत में कोई असुविधा होती है या किसी सामग्री की अनुपलब्धता होती है तब दूसरे लोग उसे सहयोग करते हैं। कई स्थानों पर श्रद्धालु पूजन सामग्री घर-घर जाकर बांटते हैं। इस पर्व में पवित्रता का विशेष ध्यान रखा जाता है। जिस रास्ते से व्रती छठ घाटों पर जाते हैं उन रास्तों को उत्साही युवकों द्वारा पानी से धोकर साफ किया जाता है। स्वयंसेवी संगठनों द्वारा पूरे क्षेत्र में रोशनी की व्यवस्था की जाती है, जिसमें सभी नागरिकों का सहयोग होता है। इतना कठिनतम अनुष्ठान अकेले करना संभव नहीं होता है। इसलिए जिनके यहां व्रत नहीं हो रहा होता है उन रिश्तेदारों और पड़ोसियों को भी सहयोग के लिए बुलाया जाता है, जिसे वे सहर्ष स्वीकार करते हैं। लोक आस्था का महापर्व छठ सामाजिक और पारिवारिक सौहार्द और समरसता को भी बढ़ावा देता है। वर्ष 2025 में चार दिवसीय कार्तिक छठ में 25 अक्टूबर को नहाए-खाए, 26 अक्टूबर को करना, 27 अक्टूबर को डूबते हुए सूर्य को पहला अर्ध्य और 28 अक्टूबर को उदीयमान सूर्य को अर्घ्य देकर व्रत का समापन जाएगा।
डा.नर्मदेश्वर प्रसाद चौधरी
