
दशहरा यानी विजय पर्व। दशहरा यानी न्याय और नैतिकता का पर्व। दशहरा यानी असत्य पर सत्य की विजय और शक्ति का पर्व। भगवान श्रीराम ने इस दिन राक्षसराज रावण का वध किया था। तब ही से प्रतिवर्ष प्रतीकात्मक रूप से रावण का दहन किया जाता है। यह पर्व हमें संदेश देता है कि अन्याय और अनैतिकता का दमन हर रूप में सुनिश्चित है। चाहे दुनिया भर की शक्ति और सिद्धियों से आप संपन्न हों लेकिन सामाजिक गरिमा के विरुद्ध किए गए आचरण से आपका विनाश तय है।
भगवान राम ने अवतार धारण किया था। मानव जीवन के हर सुख-दुख को उन्होंने आत्मसात किया था। जब वे ईश्वरीय अवतार होकर जीवन-संघर्ष से नहीं बच सके तो हम सामान्य मनुष्य भला इन विषमताओं से कैसे बच सकते हैं? श्रीराम का संपूर्ण जीवन हमें आदर्श और मर्यादा की सीख देता है। हर मनुष्य के जीवन में कष्ट और खुशी आते हैं। लेकिन उनसे निराश होकर जीवन को समाप्त कर लेना समझदारी नहीं है। अपितु जीवन को ईश्वरीय प्रसाद समझ कर कृतज्ञ भाव से जीना ही मानव जीवन की सार्थकता है। जहाँं भी जीवन है, वह अमृत के कारण है। चाहे वह दशरथ पुत्र का जीवन हो या दशानन का जीवन। यदि संसार सनातन दृष्टि से एक लीला है तो रावण की भूमिका भी किसी महती उद्देश्य से ही लिखी गई होगी। सामी दृष्टि में एक साथ दो साम्राज्य स्वीकार किए गए हैं, ईश्वर का साम्राज्य और शैतान का साम्राज्य। परंतु सनातनी परंपरा में एक ही साम्राज्य है और वह है धर्म का साम्राज्य। धर्म वह है जो धारण करता है, जो आधार है जीवन, अस्तित्व और अमृत का। हम जानते हैं कि रावण की नाभि में अमृत है। जब तक नाभि में तीर नहीं मारा जाता, रावण नहीं मरेगा।
प्रश्न यह कि आज का रावण कौन? हजार बरस की गुलामी ने हमें मानसिक रूप से वहाँ ले जाकर छोड़ा है जहाँ हम अपने पुरखों की पूजा तो करते हैं पर उनसे प्रेरणा नहीं ले सकते। हम उनसे अपनापन तो महसूस करते हैं पर उनके प्रयोगों का महत्व नहीं समझते। रामकृष्ण परमहंस, अरविन्द, बुद्ध, रामानुज, चरक सुश्रुत, आर्यभट्ट आदि सनातन के प्रेरणा पुंज हैं। इनके आलोक में हमें पश्चिम से ज्ञान, विज्ञान या आधुनिकता सीखने की जरूरत नहीं है। सनातन परंपरा पुरानी कब पड़ती है? सनातन तो पुनर्नवा है।
रामायण और महाभारत में बहुत कुछ प्रतीकात्मक भाषा में लिखा गया है। ये ग्रंथ यूरोपीय अर्थ में मात्र ऐतिहासिक दस्तावेज नहीं हैं। सनातन परंपरा में कालजयी शास्त्रों की ही रचना होती है। शास्त्रों की भाषा प्रतीकों की कूट भाषा होती है। इनको पढ़ने की कला और तकनीक गुरु-शिष्य परंपरा को संस्थागत आधार देती है। हम रावण से क्यों हारते हैं? रावण कौन है? वह कैसे मरेगा? यह सनातन प्रश्न है। पर इसका सनातन उत्तर हम भूल चुके हैं। इसका ऐतिहासिक उत्तर भी हम नहीं देते।
यह दुख का विषय है कि आज की फास्ट फूड कल्चर वाली पीढ़ी के लिए त्योहार भी मात्र मनोरंजन का साधन रह गए हैं। पर्व उन्हें संस्कृति के प्रति गहरा स्नेह और सम्मान भाव नहीं देते बल्कि पिज्जा और बर्गर की तरह आकर्षित करते हैं। जिसे जितनी जल्दी और जितना ज्यादा खाया जा सके उतना बेहतर! यही वजह है कि आस्था और पवित्रता से सराबोर रहने वाले गरबा-पंडालों में रोशनी और फूलों के स्थान पर ‘72 घंटे पिल्स’ के होर्डिंग्स सजे हुए हैं। आखिर क्या संदेश देना चाहते हैं ये आयोजक हमारी युवा पीढ़ी को? कहीं कोई बंधन नहीं, कहीं कोई गरिमा नहीं। कोई शर्म, कोई सम्मान नहीं? इंटरनेट और सोशल मीडिया के दौर में अपसंस्कृति शहर-गांव् का अंतर मिटा चुकी है। हर तरह की गंदगी महानगरों से छोटे शहर से होते हुए गली-मोहल्लों तक आ पहुंची है। और विडंबना देखिए कि इन नौ दिनों के बाद आने वाले दशहरे की कथा यह है कि माँ सीता ने अपने पवित्र अस्तित्व को रावण जैसे परम शक्तिशाली व्यक्ति से मात्र एक तिनके और दृढ़ चरित्र के माध्यम से बचाए रखा। भगवान राम ने दुराचारी रावण का अंत किया और पुनः सीता को प्राप्त किया। उस नारी में जिसने अपने स्त्रीत्व की रक्षा इतने आत्मविश्वास से की, उसमें कितना तेज, कितनी आस्था, कितना विश्वास अपनी संस्कृति में होगा। हम क्या दे रहे हैं आज की अनभिज्ञ पीढ़ी को? हमने रामायण के भव्य धारावाहिक तो टेलीविजन पर परोस दिए लेकिन उन पावन कथाओं में वर्णित ओजस्वी भाव और संकल्प शक्ति क्यों नहीं पहुँचा पाए उन तक? लगभग हर चैनल के धारावाहिकों में नकली देव, पांखड़ी रटे-रटाए संवाद बोलते दिखाई दे जाएँगे लेकिन उनके आचरण में किसी प्रकार का कोई आदर्श दूर-दूर तक दिखाई नहीं देता।
साम्राज्य बनाना आसान होता है, गुरुकुल बनाना बहुत मुश्किल काम है। इतिहास लिखना आसान होता है, प्रतीकात्मक पुराण रचना कठिन है। तक्षशिला तो नष्ट हो गई पर वहाँ की पुस्तकंे कहाँ गईं? लोकश्रुति है कि अरस्तु अपने साथ किताबें ले गया। उसकी नाव किताबों से इतनी भर गयी थी कि डूबने लगी। अरस्तु ने कहा किताबें जाना जरूरी है। ऐसा करता हूँ कि मैं ही डूब जाता हूँ ताकि मेरे शरीर के वजन जितनी किताबें सुरक्षित एथेंस पहुँच जाएं। सैनिकों ने इससे प्रेरणा ली और 7 सैनिकों ने किताबों की रक्षा के लिए सिंधु में छलांग लगा दी। एथेंस में किताबें पहुँची और अरस्तू पहुँचा। परंतु विश्वविजय का स्वप्न देखने वाला सिकन्दर वापस नहीं पहुंचा। रास्ते में ही उसकी मृत्यु हो गयी। राजा मर गया पर राजगुरु (अरस्तू) और सेनापति (सेल्युकश) जिंदा रहे। सेनापति बदलते रहे। सेनाएं बदलती रहीं। साम्राज्य बनते और बिगड़ते रहे। पर गुरुकुल चलता रहा। लेकिन आज न गुरु है और न ही गुरुकुल। चहुं ओर बदकारी, भ्रष्टाचार, बेशर्मी है। किसी को भी अपने अथवा अपनों के किये पर अपराध बोध नहीं है। लाख अन्ना आ जाए, स्थिति बदलने के आसार दिखाई नहीं देते।
वस्तुतः रावण हमारे मन में है। हमारे आसपास भी है। हमारी चेतना पर काबिज है। हमें रावण ने जीता नहीं है, अपितु हमने ही अपने मन-मस्तिष्क में अतिथि रूप में बसा रखा है। उसकी मायावी लंका की चमक-दमक ने हमें अंधा, लोभी बना दिया है। हम भी स्वयं की लंका बनाना चाहते हैं। लंकेश बनाना चाहते हैं। यही रावण की शक्ति का आधार है। यही उसकी नाभि का अमृत है। जब तक यह चाहत हममें कायम है, रावण मर नहीं सकता। जब तक उसका भ्रमजाल जिन्दा है, उससे प्रभावित मानसिकता जीवित हैं, उसे मारना असंभव है। हम चाहे कितने ही रावण जला लें लेकिन स्वयं को राम की तरह मर्यादित बनाये गिना कुसंस्कार के विराट रावण रोज पनपते रहेगे। सीता के देश की कितनी ही सीता नामधारी देवियां सरेआम अपमानित होती रहेंगी। छल-छदम के ठेकेदार रावणों के खेमें में जश्न मनाते नजर आते रहेंगे। आज देश में कहाँ जलता है असली रावण? जलती हंै तो मासूम सीता। जब तक सही रावण को पहचान कर सही समय पर जलाया नहीं जाता, व्यर्थ है, शक्ति पूजा के नौ दिनों के बाद आने वाला दसवाँ दिन जिस पर माँ सीता की अस्मिता विजयी हुई थी, श्रीराम की दृढ़ मर्यादा ने आततायी का दंभ तोड़ा था। आज सौ फुट तक के रावणों की चर्चा होती है। दुष्ट के पुतलों की ऊँचाई की होड़ हो रही है जबकि राम जैसे चरित्र का कहीं अता-पता नहीं है। कब जलेंगें इस देश में असली रावण और कब जीतेगी सत्य, शील की सीता? क्या यह सच नहीं-
झूठ की जय-जयकार है, सच पर सौ इल्जाम।
रावण का कद बढ़ रहा, सिकुड़ रहे श्रीराम।।