धराली के बाद थराली : असुरक्षित हो गया हिमालय पर रहना

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जयसिंह रावत

उत्तरकाशी के धराली की आपदा में लाखों टन मलबे में दबे दर्जनों लोंगों की तलाश अभी जारी ही है कि चमोली के धराली में आसमानी आफत से भारी तबाही हो गयी। उत्तरकाशी में ही भागीरथी में बनी अस्थाई झील में जमा पानी को निकालने का प्रयास हो ही रहा था कि उसी उत्तरकाशी जिले की स्यानाचट्टी में बरसाती नाले द्वारा लाये गये मलबे यमुना नदी में एक एक विशाल झील जनजीवन के लिये नया खतरा पैदा कर दिया। हिमालयी क्षेत्र, विशेष रूप से उत्तराखंड, जम्मू-कश्मीर और लद्दाख, प्राकृतिक आपदाओं जैसे बादल फटने, त्वरित बाढ़, और भूस्खलन की चपेट में है। हाल के वर्षों में इन आपदाओं की आवृत्ति और तीव्रता में उल्लेखनीय वृद्धि देखी गई है। यह लेख वैज्ञानिक शोधों और हाल के उदाहरणों के आधार पर इन आपदाओं के कारणों, प्रभावों और संभावित समाधानों का विश्लेषण करता है।

 

हिमालय में प्राकृतिक आपदाओं का भौगोलिक और भूगर्भीय संदर्भ

हिमालय पृथ्वी की सबसे युवा और भूगर्भीय रूप से अस्थिर पर्वत श्रृंखला है। इसकी खड़ी ढलानें, भूकंपीय गतिविधियां, और ग्लेशियरों की उपस्थिति इसे प्राकृतिक आपदाओं के लिए स्वाभाविक रूप से संवेदनशील बनाती हैं। बादल फटने की घटनाएं, जो अक्सर भारी बारिश और त्वरित बाढ़ का कारण बनती हैं, हिमालय की संकुचित वायु प्रवाह प्रणाली और उच्च नमी के कारण अधिक आम हैं। वैज्ञानिक अध्ययनों के अनुसार, क्यूमोलोनिंबस बादल, जो 15 किलोमीटर की ऊंचाई तक पहुंचते हैं, बंगाल की खाड़ी और अरब सागर से नमी लेकर हिमालयी क्षेत्रों में मूसलाधार बारिश करते हैं।

उदाहरण के लिए, 2013 की केदारनाथ त्रासदी इसका एक स्पष्ट प्रमाण है। इस आपदा में मंदाकिनी और अलकनंदा नदियों में आई बाढ़ ने 6,000 लोगों की जान ले ली और हजारों लोग लापता हो गए। इसी तरह, 2025 में जम्मू-कश्मीर के किश्तवाड़ में मचैल माता यात्रा मार्ग पर बादल फटने से चसोती गांव में कम से कम 60 लोगों की मृत्यु हुई और सैकड़ों लोग लापता हो गए। इस आपदा ने स्थानीय बाजार, सामुदायिक रसोई, और सरकारी इमारतों को पूरी तरह नष्ट कर दिया। उत्तराखंड के धराली में 5 अगस्त 2025 को बादल फटने और त्वरित बाढ़ ने कई घरों, दुकानों, और वाहनों को मलबे में दबा दिया। भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (ISRO) की सैटेलाइट छवियों से पता चला कि इस आपदा ने नदी के मार्ग को बदल दिया और 20 हेक्टेयर क्षेत्र में मलबा जमा कर दिया।

 

जलवायु परिवर्तन की भूमिका

जलवायु परिवर्तन ने हिमालयी क्षेत्र में प्राकृतिक आपदाओं की आवृत्ति और तीव्रता को बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। ग्लोबल वार्मिंग के कारण पृथ्वी के औसत तापमान में 0.75 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि हुई है जिससे हिमनद झीलों का तेजी से वाष्पीकरण और ग्लेशियरों का क्षरण हुआ है। यह प्रक्रिया बादल फटने की अनुकूल परिस्थितियां पैदा करती है, क्योंकि उच्च ऊंचाई वाली हिमनद झीलें बादलों के सीधे संपर्क में आती हैं। भारतीय मौसम विज्ञान विभाग (IMD) के आंकड़ों के अनुसार, जम्मू-कश्मीर में 2020 में 7, 2021 में 11, 2022 में 14, 2023 में 16, और 2024 में 15 बादल फटने की घटनाएं दर्ज की गईं। 2025 में अब तक 12 ऐसी घटनाएं हो चुकी हैं। उत्तराखंड में भी पिछले आठ वर्षों में 67 बड़ी बादल फटने की घटनाओं ने व्यापक तबाही मचाई है।

 

इसके अलावा, ग्लेशियरों के पिघलने से हिमनद झील विस्फोट बाढ़ (GLOF) का खतरा भी बढ़ गया है। उदाहरण के लिए, 2021 में चमोली जिले के रैणी गांव में ऋषिगंगा नदी में आई बाढ़, जो एक हिमनद झील के टूटने के कारण हुई, ने दो जलविद्युत परियोजनाओं को नष्ट कर दिया और 200 से अधिक लोग लापता हो गए। वैज्ञानिकों का मानना है कि जलवायु परिवर्तन के कारण हिमालयी ग्लेशियर 2030 तक अपनी मात्रा का 30-50% खो सकते हैं, जिससे ऐसी आपदाओं का खतरा और बढ़ेगा।

 

मानवीय हस्तक्षेप और पर्यावरणीय नुकसान

मानवीय गतिविधियां, जैसे जंगलों की कटाई, अनियोजित निर्माण, और बांधों का निर्माण, हिमालयी क्षेत्र में आपदाओं की तीव्रता को बढ़ा रहे हैं। जंगलों की कटाई से मिट्टी की जल धारण क्षमता कम हो जाती है, जिससे बाढ़ और भूस्खलन का खतरा बढ़ता है। उत्तरकाशी के धराली और हर्षिल गांवों में 5 अगस्त 2025 को हुई त्वरित बाढ़ ने 20 हेक्टेयर क्षेत्र में मलबा जमा कर दिया जिसका कारण अनियंत्रित निर्माण और वन कटाई को माना जा रहा है।

 

यमुना और भागीरथी नदियों में अस्थाई झीलों का निर्माण, जैसा कि उत्तरकाशी के स्यानाचट्टी और धराली में देखा गया, अनियोजित बुनियादी ढांचे के कारण मलबे के जमा होने से हुआ। ये झीलें न केवल जनजीवन के लिए खतरा पैदा करती हैं, बल्कि नदियों के प्राकृतिक प्रवाह को भी बाधित करती हैं, जिससे बाढ़ का जोखिम बढ़ता है। इसके अलावा, जलविद्युत परियोजनाओं और सड़क निर्माण के लिए पहाड़ों की अंधाधुंध खुदाई ने भूस्खलन की घटनाओं को बढ़ावा दिया है। उदाहरण के लिए, बद्रीनाथ-माणा मार्ग पर बार-बार होने वाले भूस्खलन अनियोजित सड़क निर्माण का परिणाम हैं।

 

हाल की आपदाओं के उदाहरण

उत्तरकाशी, धराली (5 अगस्त 2025): इस क्षेत्र में बादल फटने और त्वरित बाढ़ ने कई घरों, दुकानों, और वाहनों को मलबे में दबा दिया। आपदा प्रबंधन टीमें अभी भी मलबे में फंसे लोगों की तलाश कर रही हैं। इस आपदा ने स्थानीय अर्थव्यवस्था को गहरा झटका दिया, क्योंकि धराली और हर्षिल पर्यटन के लिए महत्वपूर्ण केंद्र हैं।

 

चमोली, थराली (22-23 अगस्त 2025): चमोली जिले के थराली तहसील में रात 1:00-1:30 बजे बादल फटने से पिंडर और प्रणमति नदियां उफान पर आ गईं। कई वाहन और दो घर मलबे में दब गए और दो लोग लापता हो गए। स्थानीय प्रशासन ने राहत कार्य शुरू किए लेकिन सड़कों के क्षतिग्रस्त होने से बचाव कार्यों में बाधा आई।

किश्तवाड़, जम्मू-कश्मीर (14 अगस्त 2025): मचैल माता यात्रा मार्ग पर चसोती गांव में बादल फटने से कम से कम 60 लोगों की मृत्यु हुई, और सैकड़ों लोग लापता हैं। इस आपदा ने अस्थायी बाजार, सामुदायिक रसोई, और सरकारी इमारतों को नष्ट कर दिया। स्थानीय प्रशासन ने कंट्रोल रूम और हेल्प डेस्क स्थापित किए, लेकिन राहत कार्यों में भारी बारिश ने बाधा डाली।

 

कठुआ, जम्मू-कश्मीर (17 अगस्त 2025): कठुआ के जंगलोट इलाके में बादल फटने से चार लोगों की मृत्यु हुई और रेलवे ट्रैक, नेशनल हाईवे, और स्थानीय थाना प्रभावित हुआ। इस आपदा ने स्थानीय परिवहन और संचार व्यवस्था को ठप कर दिया।

पौड़ी गढ़वाल (6 अगस्त 2025): पौड़ी जिले के कई गांवों में भारी बारिश और भूस्खलन ने सड़कों और घरों को नष्ट कर दिया। कई लोग लापता हो गए, और राहत कार्यों में देरी के कारण स्थानीय लोगों में आक्रोश देखा गया।

 

आपदा प्रबंधन की चुनौतियां

हिमालयी क्षेत्र में बार-बार होने वाली आपदाओं ने आपदा प्रबंधन तंत्र की कमियों को उजागर किया है। सीमित संसाधन, अपर्याप्त बुनियादी ढांचा, और दूरदराज के क्षेत्रों में पहुंच की कमी ने राहत कार्यों को जटिल बना दिया है। उदाहरण के लिए, धराली और किश्तवाड़ में मलबे के कारण सड़कें बंद हो गईं, जिससे बचाव दल समय पर प्रभावित क्षेत्रों तक नहीं पहुंच सके। इसके अलावा, मौसम की सटीक भविष्यवाणी के लिए उन्नत तकनीक की कमी एक बड़ी चुनौती है।

स्थानीय समुदायों को आपदा प्रबंधन के लिए प्रशिक्षित करने की आवश्यकता है। हालांकि, कुछ क्षेत्रों में सामुदायिक जागरूकता कार्यक्रम शुरू किए गए हैं, लेकिन ये अपर्याप्त हैं। किश्तवाड़ में स्थापित कंट्रोल रूम और हेल्प डेस्क ने त्वरित कार्रवाई में मदद की, लेकिन ऐसी व्यवस्थाएं सभी प्रभावित क्षेत्रों में उपलब्ध नहीं हैं।

 

समाधान और भविष्य की दिशा

हिमालयी क्षेत्र में प्राकृतिक आपदाओं के प्रभाव को कम करने के लिए वैज्ञानिक और नीतिगत उपायों की आवश्यकता है। मौसम पूर्वानुमान रडारों का विस्तार और डेटा संग्रह प्रणालियों को मजबूत करना आवश्यक है। जम्मू-कश्मीर के IMD निदेशक मुख्तार अहमद के अनुसार, उन्नत तकनीक जैसे डॉपलर रडार बादल फटने की संभावना को पहले से चेतावनी दे सकते हैं। ISRO की सैटेलाइट तकनीक का उपयोग मलबे और नदी मार्ग परिवर्तन की निगरानी के लिए किया जा सकता है।अनियोजित निर्माण और जंगल कटाई पर रोक लगाने के लिए सख्त नियम लागू किए जाने चाहिए। हिमालयी क्षेत्र में निर्माण कार्यों के लिए भूगर्वीय और पर्यावरणीय प्रभाव आकलन अनिवार्य होना चाहिए। इसके अलावा, सड़क और जलविद्युत परियोजनाओं के डिजाइन में पर्यावरणीय स्थिरता को प्राथमिकता दी जानी चाहिए। हिमालयी समुदायों को आपदा प्रबंधन के लिए प्रशिक्षित करना और स्थानीय स्तर पर राहत केंद्र स्थापित करना आवश्यक है। स्कूलों और सामुदायिक केंद्रों में आपदा प्रबंधन प्रशिक्षण कार्यक्रम शुरू किए जाने चाहिए। किश्तवाड़ में स्थापित कंट्रोल रूम और हेल्प डेस्क इसका एक उदाहरण हैं।

 

 ग्लोबल वार्मिंग को कम करने के लिए वैश्विक और स्थानीय स्तर पर कार्बन उत्सर्जन को कम करने की आवश्यकता है। हिमनद झीलों के प्रबंधन के लिए विशेष योजनाएं बनाई जानी चाहिए, जैसे कि जल निकासी प्रणालियों का निर्माण और ग्लेशियर निगरानी।जंगलों को बचाने और पुनर्जनन के लिए बड़े पैमाने पर वृक्षारोपण कार्यक्रम शुरू किए जाने चाहिए। मिट्टी के कटाव को रोकने के लिए प्राकृतिक अवरोधक, जैसे कि वनस्पति और चट्टानों का उपयोग, बढ़ावा दिया जाना चाहिए।

 

जलवायु परिवर्तन और मानवीय हस्तक्षेप का परिणाम

हिमालयी क्षेत्र में बादल फटने, त्वरित बाढ़, और भूस्खलन जैसी प्राकृतिक आपदाओं की बढ़ती आवृत्ति और तीव्रता जलवायु परिवर्तन और मानवीय हस्तक्षेप का परिणाम है। उत्तरकाशी, चमोली, और किश्तवाड़ जैसी हाल की घटनाएं इस क्षेत्र के निवासियों के समक्ष अस्तित्व के संकट को दर्शाती हैं। वैज्ञानिक शोध, उन्नत तकनीक, और सतत विकास नीतियों के माध्यम से इन आपदाओं के प्रभाव को कम किया जा सकता है। नीति-निर्माताओं, वैज्ञानिकों, और समुदायों को एकजुट होकर इस चुनौती का सामना करना होगा ताकि हिमालयी क्षेत्र की जैव-विविधता और जनजीवन को सुरक्षित रखा जा सके। सरकार को तत्काल कार्रवाई करनी होगी, ताकि भविष्य में ऐसी त्रासदियों को रोका जा सके और हिमालयवासियों का जीवन सुरक्षित हो सके।

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