
वेद पुराणों में लिखा है कि पूर्वकाल में देवताओं और राक्षसों में पूरे सौ वर्षों तक घोर संग्राम हुआ था। उसमें राक्षसों का स्वामी महिषासुर था और देवताओं के नायक इन्द्र थे। उस युद्ध में देवताओं की सेना महाबली राक्षसों से हार गयी। सम्पूर्ण देवताओं को जीतकर महिषासुर इन्द्र बन बैठा।
तब सभी हारे हुए देवता ब्रह्मा जी को साथ लेकर उस स्थान पर गये जहां पर भगवान शंकर और विष्णु विराजमान थे। देवताओं ने अपनी हार तथा महिषासुर के पराक्रम का वृतान्त विस्तार से उन्हें सुनाया। वे बोले-भगवन। महिषासुर सूर्य, इन्द्र, अग्नि, वायु, चन्द्रमा, यम, वरूण तथा अन्य देवताओं के भी अधिकार छीनकर स्वयं ही सबका अधिष्ठाता बन बैठा है। उस राक्षस ने समस्त देवताओं को स्वर्ग से निकाल दिया है। अब वे मनुष्य की भांति पृथ्वी पर विचरते हैं। अब हम आपकी ही शरण में आये हैं। उसके वध का कोई उपाय सोचिये।
देवताओं के इस प्रकार वचन सुनकर भगवान विष्णु और शिव ने राक्षसों पर गहरा क्रोध प्रकट किया। उनकी भौंहें तन गयी। मुंह टेढ़ा हो गया। तब अत्यन्त क्रोध में भरे हुए भगवान विष्णु के मुख से एक महान तेज प्रकट हुआ। इसी प्रकार ब्रह्मा, शंकर, इन्द्र अन्य देवताओं के शरीर से भी बड़ा भारी तेज निकला। वह सब मिलकर एक हो गया। उस महान तेज का प्रकाश एक जलते हुए पर्वत सा जान पड़ा। इस तेज की कहीं भी तुलना नहीं थी।
अन्ततः सारा तेज प्रकाश एक जगह एकत्रित होने पर वह एक नारी के रूप में बदल गया। अपने प्रकाश से तीनों लोगों में व्याप्त मुख प्रकट हुआ। यमराज के तेज से उसके सिर में बाल निकल आये। भगवान विष्णु के तेज से उसकी भुजाएं उत्पन्न हुई। चन्द्रमा के तेज से स्तन तथा इन्द्र के तेज से कटि प्रदेश का निर्माण हुआ। वरूण के तेज से जांघ-पिंडली तथा पृथ्वी के तेज से नितम्ब भाग प्रकट हुआ। ब्रह्मा के तेज से दोनों चरण और सूर्य के तेज से उनकी अंगुलियां हुई। वसुओं के तेज से हाथों की अगुंलियां और कुबेर के तेज से नासिका प्रकट हुई। दांत प्रजापति के तेज से तथा नेत्रा, अग्नि के तेज से प्रकट हुए। उसकी भौंहें संध्या के और कान वायु के तेज से प्रकट हुए। इसी प्रकार अन्य देवताओं के तेज से भी इस कल्याणमयी मां भवानी का आविर्भाव हुआ।
इस प्रकार प्रकट हुई देवी को देख कर सभी देवता बहुत प्रसन्न हुए। भगवान शंकर ने अपने शूल से एक शूल निकाल कर उन्हें दिया। फिर भगवान विष्णु ने भी अपने चक्र से उत्पन्न चक्र को मां भगवती को दिया। वरूण ने शंख भेंट किया। अग्नि ने शक्ति दी और वायु ने धनुष तथा बाण से भरे हुए दो तरकश प्रदान किये।
इन्द्र देवता ने अपना वज्र दिया और ऐरावत हाथी से उतार कर एक घंटा भी दिया। यमराज ने कालदण्ड, वरूण ने पाश, प्रजापति ने माला तथा ब्रह्मा जी ने कमण्डल भेंट किया। सूर्य ने देवी के समस्त रोमकूपों में अपनी किरणों का तेज भर दिया। काल ने उन्हें अपनी तलवार और ढाल दी।
क्षीर समुद्र ने हार तथा कभी जीर्ण न होने वाले दो दिव्य वस्त्रा भेंट किये। साथ ही उन्होंने दिव्य चूड़ामणि, दो कुन्डल, कड़े, अर्धचन्द्रमा, बाजुओं के लिए केयूर, चरणों के लिये नूपुर, गले की सुन्दर हंसली, अंगूठी, विश्व कर्मा ने फरसा, अन्य अस्त्रा दिये। हिमालय ने सवारी के लिए शेर तथा अनेक रत्न दिये। इसी प्रकार अन्य देवताओं ने भी देवी को अन्य आभूषण अस्त्रा दिये। देवी का सम्मान किया। उनके भयंकर नाद से आकाश गूंज उठा, जिससे सम्पूर्ण विश्व में हलचल मच गयी, समुद्र कांप उठे। इस प्रकार उत्पन्न हुई देवी से समस्त देवता अत्यंत प्रसन्न हुए तथा ंिसंहवाहिनी देवी से कहा – ‘देवी, तुम्हारी जय हो।‘
सम्पूर्ण त्रिलोकी को क्षोभग्रस्त देख दैत्यगण अपनी सेना के साथ उठकर खड़े हो गये। कुछ राक्षसों ने देवी के ऊपर तरह तरह के अस्त्रा-शस्त्रों से प्रहार भी किये। देवी ने भी अपने अस्त्रा-शस्त्रों की वर्षा करके राक्षसों के समस्त अस्त्रा-शस्त्रा काट दिये। देवी का शेर भी युद्ध में विचरने लगा। देवता-ऋषि उनकी स्तुति करते रहे। मां भगवती राक्षसों पर अपने वार करती रही तथा राक्षसों को मारती रही। मां अम्बे ने राक्षसों की सेना को क्षण भर में समाप्त कर दिया। यह देख कर देवता भी खूब प्रसन्न हुए और फूलों की वर्षा करने लगे।