
भारतीय संस्कृति की आत्मा केवल भौतिक जीवन की सीमाओं तक नहीं ठहरती, बल्कि पीढ़ियों की स्मृतियों, पूर्वजों के आशीर्वाद और आत्मिक ऊर्जा के अदृश्य प्रवाह से भी संचालित होती है। इन्हीं अनन्त संबंधों को सजीव करने का पवित्र अवसर है श्राद्ध-पक्ष। यह मात्र कर्मकाण्ड नहीं बल्कि स्मरण और कृतज्ञता का महापर्व है, जब हम अपने पितरों को श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं और उनके द्वारा संचित पुण्य-संसकारों से अपने जीवन को समृद्ध करते हैं।
श्राद्ध-पक्ष का दार्शनिक आधार
संस्कृत में “श्राद्ध” शब्द ‘श्रद्धा’ से निकला है – अर्थात् आस्था और भक्ति से किया गया कर्म। मनु स्मृति में कहा गया है –
“श्रद्धया यत्क्रियते तत् श्राद्धम्” (मनुस्मृति 3/203)
अर्थात्, जो भी कृत्य श्रद्धा और निष्ठा से किया जाए वही श्राद्ध है।
भारतीय मनीषा मानती है कि शरीर नश्वर है किंतु आत्मा शाश्वत। शरीर त्यागने के उपरांत भी आत्मा अदृश्य रूप में जीवित रहती है और अपने वंशजों से अदृश्य सूत्रों द्वारा जुड़ी रहती है। यही कारण है कि पितृपक्ष में किए गए कर्म उनके लिए तृप्तिकर तथा वंशजों के लिए कल्याणकारी माने गए हैं।
काल और अवधि
हर वर्ष भाद्रपद मास की पूर्णिमा से लेकर आश्विन अमावस्या तक का पखवाड़ा पितृपक्ष कहलाता है। मान्यता है कि इस अवधि में पितरों को देवलोक से पृथ्वी पर आने की अनुमति मिलती है।
गरुड़ पुराण में कहा गया है –
“यत्रैव स्वजनाः सन्ति तत्रैव मम निवासः। तेषां तु या दत्ता तृप्तिर्मम तृप्तिर्भविष्यति॥” (गरुड़ पुराण, प्रेतकल्प)
अर्थात्, जहाँ मेरे वंशज निवास करते हैं, वही मेरा निवास है। वहाँ जो भी श्रद्धा से अर्पित किया जाएगा, वही मुझे तृप्त करेगा।
श्राद्ध की प्रमुख विधियाँ
- तर्पण– जल में तिल, अक्षत और पुष्प डालकर सूर्य, देव और पितरों का आह्वान।“तिलोदकं ददत्येतत् पितृभ्यः प्रीतिकाम्यया” (गरुड़ पुराण)
- पिंडदान– चावल और तिल से बने पिंड पूर्वजों को अर्पित करना।“पिण्डोदकेन पितरः प्रीयन्ते नात्र संशयः” (विष्णु धर्मसूत्र)
- ब्राह्मण एवं गौ-सेवा– ब्राह्मणों, गौओं, पक्षियों और दीन-दुखियों को अन्न दान करना।“ब्राह्मणानां प्रीतिकृते दानं पितृपूजनमेव च” (मनु स्मृति)
- पक्षी-भोजन– कौवे, कुत्ते और गाय को भोजन कराना। मान्यता है कि ये पितरों के प्रतिनिधि होते हैं।
श्राद्ध-पक्ष का आध्यात्मिक संदेश
- स्मृति और कृतज्ञता का पर्व– यह हमें याद दिलाता है कि हमारा अस्तित्व अकेले का नहीं, बल्कि पीढ़ियों के पुण्य, आशीर्वाद और तप का परिणाम है।
“पितृभ्यः प्रीयमाणेभ्यः प्रीयन्ते देवताः सदा” (महाभारत) अर्थात् जब पितर प्रसन्न होते हैं, तब देवता भी प्रसन्न होते हैं।
- कर्तव्य और धर्म का बोध– जैसे हम अपने पूर्वजों के ऋणी हैं, वैसे ही हमारी आगामी पीढ़ियाँ हमारे प्रति उत्तरदायी होंगी।
- ऊर्जा का संतुलन– माना जाता है कि श्राद्ध से पितृदोष शांत होता है, जिससे जीवन में अड़चनें, मानसिक तनाव और पारिवारिक कलह कम होते हैं।
- संस्कार का संवाहक– यह परंपरा नई पीढ़ी को हमारी सांस्कृतिक धरोहर से जोड़ती है।
पुराणों और ग्रंथों में श्राद्ध
- महाभारतमें युधिष्ठिर ने पितरों की तृप्ति हेतु भीष्म पितामह से श्राद्ध-विधि सीखी थी।
- रामायणमें श्रीराम ने समुद्र तट पर पितरों का श्राद्ध कर विजय प्राप्ति का आशीर्वाद लिया।
- गरुड़ पुराणमें पितरों को “अदृश्य देवता” कहा गया है।
आधुनिक परिप्रेक्ष्य में श्राद्ध
समय बदला है, लेकिन श्राद्ध की आत्मा आज भी उतनी ही प्रासंगिक है।
- महानगरों में लोग ब्राह्मण भोज के स्थान पर अन्नदान, वस्त्रदान या वृक्षारोपण करते हैं।
- प्रवासी भारतीय अपने पितरों के नाम से मंदिरों या आश्रमों में दान करते हैं।
- तकनीक ने श्राद्ध को वैश्विक स्वरूप दे दिया है। परिवारजन वीडियो कॉल के माध्यम से एकसाथ संकल्प ले सकते हैं।
- पर्यावरण चेतना के साथ लोग अब प्राकृतिक वस्तुओं से तर्पण करते हैं, जिससे नदियों और धरती को नुकसान न पहुँचे।
श्राद्ध और परिवार
श्राद्ध-पक्ष केवल पूर्वजों का स्मरण ही नहीं, बल्कि परिवार को जोड़ने का अवसर भी है। जब पूरा परिवार एकत्र होकर तर्पण करता है, तो आपसी रिश्तों में आत्मीयता और सामूहिकता बढ़ती है।
“यः पिण्डं दद्यात् श्रद्धया सुतः, स पुत्रो भवति तस्यैव” (गरुड़ पुराण) अर्थात् जो पुत्र श्रद्धा से पिंडदान करता है, वही सच्चा पुत्र कहलाता है।
बच्चों को इस परंपरा में सहभागी बनाने से उनमें संस्कार, कृतज्ञता और करुणा के बीज पड़ते हैं।
श्राद्ध-पक्ष हमें यह बोध कराता है कि हम केवल वर्तमान के यात्री नहीं, बल्कि भूत और भविष्य दोनों से जुड़े हैं। पूर्वजों का स्मरण केवल अनुष्ठान नहीं, बल्कि आत्मा की शुद्धि, कर्तव्य का निर्वाह और संस्कृति की निरंतरता है।
आइए इस श्राद्ध-पक्ष हम सब संकल्प लें कि हम अपने पितरों का स्मरण करेंगे, उनके दिए संस्कारों को आगे बढ़ाएँगे, और इस परंपरा को नई पीढ़ी तक गर्व और श्रद्धा से पहुँचाएँगे।
श्राद्ध-पक्ष वास्तव में केवल पितरों की तृप्ति का नहीं बल्कि हमारे आत्मिक उत्थान और जीवन की शांति का पर्व है?
उमेश कुमार साहू