आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत के शताब्दी संदेश से बहुत कुछ प्रेरणा ले सकती है भाजपा

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आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत जब भी कुछ बोलते हैं उसे बिना कुछ सोचे समझे देश की सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी से संबंधित मान लिया जाता रहा है। ऐसे में इस बार भी उन्होंने विज्ञान भवन में जो कुछ कहा है, उसे बीजेपी से ही जोड़कर देखा ही जाएगा। सर्वप्रथम, उनका यह कहना महत्वपूर्ण है कि हिंदू राष्ट्र का सत्ता से कोई लेना-देना नहीं’, बल्कि इसके बड़े मायने हैं। ऐसे समय में जब देश में हिंदूवादी राजनीति अपने शिखर पर है, मोहन भागवत द्वारा दिया गया यह भाषण बेहद महत्वपूर्ण हो जाता है।

 

वाकई जब वे कहते हैं कि हिंदू राष्ट्र शब्द का सत्ता से कोई मतलब नहीं है, तो इसके गहरे सियासी निहितार्थ हैं। क्योंकि प्रायः भाजपा सरकार पर विपक्ष लगातार आरोप लगाता रहा है कि वह इस विचारधारा को सत्ता पाने और उसमें बने रहने के औजार के रूप में इस्तेमाल करती है। कहना न होगा कि संघ बीजेपी को समय समय पर वैचारिक खुराक व प्रबुद्ध दिशानिर्देश देता रहा है। यही वजह है कि अपने तमाम मतभेदों के बावजूद संघ और बीजेपी एक बिंदु पर जाकर एक हो जाते हैं।

 

ऐसे में स्पष्ट है कि भागवत का कथन सिर्फ शब्दों का खेल नहीं है, बल्कि संघ की मूल वैचारिक धारा की वह सहज और सरल अभिव्यक्ति है, जो देश में सत्तासीन बीजेपी नीत एनडीए सरकार के लिए एक माकूल दिशा का निर्धारण भी करता है। ऐसे में सीधा सवाल यह है कि संघ प्रमुख के इस बयान के मायने क्या हैं? क्या यह सीधे-सीधे वक्त-वेवक्त लीक से भटकती दिखाई देतीबीजेपी नेताओं को संदेश देता है?


यूँ तो 21वीं सदी के महान किंगमेकर मोहन भागवत समय समय पर नीतिगत बातें स्पष्ट करते रहते हैं। ऐसे में उनका यह ताज़ा बयान भी ऐसे समय पर आया है जब इंडिया गठबंधन रूपी बिखरा विपक्ष भाजपा पर निरंतर यह आरोप मढ रहा है कि वह बहुसंख्यकवाद और ध्रुवीकरण को बढ़ावा दे रही है। इस बात में कोई दो राय नहीं कि उनकी दूरदर्शिता के बदौलत ही भाजपा लगातार तीसरी बार केंद्र में सत्तासीन है। इसके अलावा कई अन्य राज्यों में भी उसके हाथ में सूबाई सत्ता की ताकत है।

 

लिहाजा, संघ प्रमुख का यह कहना कि हिंदू राष्ट्र का अर्थ सत्ता से नहीं है, एक राजनीतिक संतुलन साधने की कवायद के रूप में भी देखा जा सकता है। इससे स्पष्ट होता है कि संघ अब बीजेपी को हिंदू राष्ट्र के मुद्दे को थोड़ा नरम करके चलने का संकेत देना चाहता हो। चूंकि परिवर्तन सृष्टि का शाश्वत नियम है। इसलिए संघ की सोच-समझ में समयानुसार नीतिगत सुधार अपेक्षित है। ऐसे में जो आरएसएस अपनी स्थापना के शुरुआती दिनों से ही हिंदू राष्ट्र की बात पर मुखर रहा है, वह भी नरम हो रहा है।

 

बता दें कि सदाशिव गोलवलकर, जिन्हें गुरुजी कहा जाता है, ने इसे परिभाषित करते हुए कहा था कि भारत की आत्मा हिंदू है और यहां की संस्कृति की जड़ें हिंदुत्व से निकली हैं। वाकई संघ का शुरू से ही मानना रहा है कि हिंदू शब्द सिर्फ धार्मिक नहीं है, बल्कि इसमें सभ्यता, परंपरा, जीवनशैली और सामाजिक मूल्य सभी शामिल हैं। यही वजह है कि संघ हमेशा कहता रहा कि मुसलमान, ईसाई, पारसी या अन्य धार्मिक समूह भी इस राष्ट्र के उतने ही हिस्से हैं, जितने हिंदू। इसलिए यह बिल्कुल सीधा और साफ संदेश है कि भागवत का बयान संघ की पुरानी लाइन को ही दोहराता है।

 

कहना न होगा कि आरएसएस सीधे सत्ता की राजनीति में शामिल नहीं होता है, बल्कि संघ की असली ताकत समाज-निर्माण, जनशिक्षा, जनसेवा और सांस्कृतिक कार्यक्रम में है। इसलिए संघ प्रमुख के इस बात में कुछ भी नया नहीं है कि हिंदू राष्ट्र का लक्ष्य संसद में बहुमत पाना नहीं है, बल्कि समाज को ऐसा बनाना है जिसमें नैतिकता, समरसता और सांस्कृतिक एकता स्थापित हो। लेकिन उनकी इस बात की टाइमिंग बहुत ही महत्वपूर्ण है। शायद यह हो सकता है कि संघ प्रमुख बीजेपी के लिए कोई सीमा रेखा खींच रहे हैं या अल्पसंख्यकों को कोई व्यापक संदेश दे रहे हों।


ऐसा इसलिए कि भारत में हिंदू राष्ट्र का सीधा संबंध अक्सर मुसलमानों और अन्य अल्पसंख्यकों में असुरक्षा की भावना से लिया जाता है। जबकि विपक्ष इसे बहुसंख्यकवादी एजेंडा मानता है। वहीं, चूंकि कांग्रेस-समाजवादियों की तुष्टीकरण की नीतियों से ही हिंदुओं को काफी क्षति हुई है, जिससे संघ-भाजपा की विचारधारा को मजबूती मिली। हालांकि, कांग्रेस नेताओं के मुंह से बीजेपी के बजाय आरएसएस के लिए ज्यादा अपशब्द निकलता रहा है। वहीं आरएसएस के मुख से नेहरू-गांधी परिवार की कुचक्री नीतियों के लिए। शायद यही कारण है कि जब भागवत कहते हैं कि हिंदू राष्ट्र का सत्ता से कोई संबंध नहीं है तो यह संदेश जाता है कि संघ का उद्देश्य किसी पर वर्चस्व थोपना नहीं है, बल्कि यह अवधारणा सबको साथ लेकर चलने वाली सांस्कृतिक पहचान की है।

 

यहां पर समझने वाला आवश्यक तथ्य यह है कि आखिर संघ यह बात बार-बार क्यों दुहरा रहा है? क्या वो भाजपा के स्थायी शासन के लिए अल्पसंख्यकों को रिझाना चहता है? या फिर यह कहीं बीजेपी को अगले विधानसभा चुनावों के लिए इशारा तो नहीं है, क्योंकि भारतीय जनता पार्टी इस वर्ष बिहार और अगले वर्ष पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनावों में डेमोग्रेफी चेंज और मतदाता सूची पुनरीक्षण को लेकर अल्पसंख्यकों पर लगातार जुबानी हमले कर रही है। ऐसे में हो सकता है कि संघ यह चाहता हो कि बीजेपी को अपने रुख में थोड़ी नरमी लानी चाहिए!


वहीं, भागवत का बयान भाजपा को अप्रत्यक्ष रूप से यह याद दिलाता है कि संघ की दृष्टि सत्ता से आगे की है। भाजपा हिंदू राष्ट्र को राजनीतिक नारे के रूप में इस्तेमाल सत्ता हासिल करने के लिए कर सकती है। लेकिन भागवत का यह बयान केवल वैचारिक नहीं बल्कि जमीनी राजनीति से भी जुड़ा हो सकता है। क्योंकि बार-बार यह सवाल उठ रहा है कि देश में बेरोजगारी, किसान संकट जैसे मुद्दे हिंदू-मुसलमान की राजनीति के चलते गौण हो गए हैं। लिहाजा, संघ शायद यह संदेश देना चाहता है कि हिंदू राष्ट्र का अर्थ इन समस्याओं से मुंह मोड़ना नहीं बल्कि इन्हें समाज-आधारित समाधान देना है।

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