आखिर पीएम मोदी की चीन व जापान यात्रा के वैश्विक प्रभाव क्या पड़ेंगे?

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अमेरिका से गहराते आर्थिक व नीतिगत तनाव के बीच भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की हालिया चीन-जापान यात्रा के अंतरराष्ट्रीय कूटनीतिक मायने बेहद अहम हैं और  प्रतिरक्षा रणनीतियों व विकास के लिहाज से भारत के प्रति इसके दुनियावी असर भी बेहद महत्वपूर्ण और कारगर साबित होंगे। ऐसा इसलिए कि पीएम मोदी की इस यात्रा के माध्यम से जहां चीन से द्विपक्षीय सम्बन्धों में गर्माहट आई है, वहीं जापान से पहले से चले आ रहे मधुर सम्बन्धों को और अधिक मजबूती मिली है और कारोबारी विकास का मार्ग प्रशस्त होने के आसार बढ़े हैं।

 

पीएम की इस यात्रा से साफ पता चलता है कि दुनिया की तीसरी आर्थिक महाशक्ति बनने को आतुर भारत अब अपनी रणनीतिक स्वायत्तता के हिसाब से अमेरिका और चीन के साथ गिव एंड टेक के रिश्ते रखते हुए रूस के साथ अपने भरोसेमंद रिश्तों को और प्रगाढ़ बनाना चाहता है।

 

वहीं, अमेरिकी, चीनी और पाकिस्तान परस्त अरब देशों की भावी चुनौतियों का मजबूती पूर्वक सामना करने के लिए दूसरी पंक्ति के देशों, यथा- जापान, इजरायल, फ्रांस, जर्मनी, इंग्लैंड, ब्राजील, दक्षिण अफ्रीका, ऑस्ट्रेलिया, सऊदी अरब, ईरान आदि के साथ मजबूत रणनीतिक सम्बन्ध विकसित करना चाहता है। वहीं, द्विपक्षीय व्यापार हेतु फ्री ट्रेड अग्रीमेंट करने की रणनीति पर भी भारत अमल कर रहा है। इस नजरिए से पीएम मोदी की जापान यात्रा भी बहुत फायदेमंद रही है।

 

वहीं, चीन के तियानजिन में चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग से पीएम मोदी की मुलाक़ात बेहद सकारात्मक बताई गई है। यहीं पर आयोजित शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) शिखर सम्मेलन में शिरकत करने पहुंचे रूसी राष्ट्रपति पुतिन के साथ मोदी ने जो गर्मजोशी दिखाई, वह शेष दुनिया के लिए एक व्यापक संकेत है। इसके अलावा, मोदी, पुतिन और जिनपिंग की त्रिपक्षीय मुलाकात के हास्य हाव-भाव वाले फ़ोटो ने पश्चिमी दुनिया के  नेताओं की नींद उड़ा डाली है। दरअसल, वैश्विक दुनियादारी में हर वक्त खरे उतरे भारत-रूस सम्बन्धों में दरार डालने की जो अमेरिकी चाल चली गई, उसके साइड इफेक्ट्स स्वरूप भारत-चीन ने जो सूझबूझ प्रदर्शित किया है, उससे अंतरराष्ट्रीय कूटनीतिज्ञों की बोलती बंद हो चुकी है।

 

देखा जाए तो प्रधानमंत्री मोदी की चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग के साथ जो द्विपक्षीय मुलाक़ात हुई, इससे दोनों के आपसी रिश्तों में जमी बर्फ कुछ पिघलती प्रतीत हुई है। यह भारत के लिए एक शुभ संकेत है। तभी तो पीएम मोदी के साथ बैठक में शी जिनपिंग ने दो टूक कहा है कि वैश्विक परिदृश्य बदल रहा है। इसलिए दोनों देशों का साथ आना लाजिमी है। इस हेतु जारी कोशिशों को बढ़ावा मिलना दोनों देशों के लिए हितवर्द्धक  रहेगा।

 

कहना न होगा कि चीन और भारत सिर्फ़ प्राचीन सभ्यताएँ ही नहीं बल्कि दुनिया के दो सबसे अधिक आबादी वाले देश हैं जो ग्लोबल साउथ के प्रमुख स्तम्भ हैं। इसलिए दोनों देशों के लिए यह अहम है कि वो अच्छे संबंध रखने वाले दोस्त बने रहें और ऐसे साझेदार बनें जो एक-दूसरे की सफलता में योगदान करें जबकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ठीक ही कहा है कि दोनों देशों के बीच सहयोग से 2.8 अरब लोगों के हित जुड़े हुए हैं। भारत चीन के साथ अपने संबंधों को आगे बढ़ाने के लिए दृढ़ संकल्पित है।

 

देखा जाए तो अमेरिका द्वारा भारत को घेरने के लिए जिस अब्राहम परिवार यानी ईसाई-यहूदी-मुस्लिम की एकता पर बल दिया जा रहा है, वह यदि सफल होता है तो चीन और दक्षिण-पूर्वी एशियाई देशों का साथ भारत के लिए बेहद महत्वपूर्ण और तलबगार हो जाएगा क्योंकि यहां हिन्दू धर्म से निकले बौद्ध धर्म का प्रभाव ज्यादा है।


यूँ तो मोदी-जिनपिंग की मुलाक़ात ऐसे समय पर हुई है जब भारत 50 फ़ीसदी अमेरिकी टैरिफ़ से उपजे आर्थिक दबाव का सामना कर रहा है क्योंकि इस टैरिफ़ से भारत के निर्यात क्षेत्र पर अच्छा-ख़ासा असर पड़ेगा जब तक कि वैकल्पिक व्यवस्था नहीं हो जाए। इसलिए अब भारत और चीन भी आपसी सीमा विवादों के तल्खी भरे अतीत के उलट अपने संबंधों को एक नया स्वरूप देने पर लगातार ज़ोर दे रहे हैं जिसके लिए पिछले 6 माह से कवायद तेज है।

इस बात में कोई दो राय नहीं कि भारत और चीन दोनों देशों के बीच संबंध, मौजूदा वक़्त में दुनिया में हो रहे बदलावों पर निर्भर करते हैं और इन रिश्तों में मोदी की चीन यात्रा ‘एक मोड़’ है क्योंकि भारत और चीन दुनिया की पाँच बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में शामिल हैं। अभी तक चीन दूसरे और भारत चौथे पायदान पर खड़ा है हालांकि भारत शीघ्र ही दुनिया की तीसरी आर्थिक महाशक्ति बनने को ततपर है।

 

अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ़) के अनुसार, 5 ट्रिलियन डॉलर के शेयर बाज़ार के साथ भारत दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी आर्थिक शक्ति बनने की राह पर है जबकि चीन दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी आर्थिक शक्ति है।


चूंकि दुनिया ने चीन और अमेरिका के संबंधों को बहुत अहमियत दी है। इसलिए अब वक़्त आ गया है कि दोनों देश सिर्फ इस बात पर ध्यान दें कि दुनिया की दूसरी और तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाएँ यानी चीन और भारत कैसे एक साथ काम कर सकते हैं हालांकि, दोनों देशों के बीच संबंध में एक बड़ी चुनौती सीमा विवाद भी है। ऐसा इसलिए कि भारत और चीन के बीच लंबे समय से अनसुलझा सीमा विवाद भी रहा है।


हालांकि, दोनों देश आपसी विवादों को मिटाना चाहते हैं। विगत छह महीनों में भारत-चीन के बीच सीधी उड़ानें फिर से शुरू करने की घोषणा पहले ही की जा चुकी है। कैलाश- मानसरोवर यात्रा भी शुरू हो चुकी है। इसके अलावा वीज़ा में और ढील दी जा सकती है और अन्य व्यापारिक समझौतों पर भी हस्ताक्षर हो सकते हैं।

वहीं, जो देश दक्षिण एशिया में स्थिरता के लिए भारत और चीन को उम्मीद भरी निगाहों से देखते हैं, उनकी अपेक्षाओं को पूरा करने के लिए इन दोनों देशों के बीच आपसी संवाद होते रहना चाहिए क्योंकि सीमा पर तकरार के अलावा भी दोनों देशों के बीच कई विवाद हैं। इनमें भारत में रह रहे तिब्बत के बौद्ध धर्मगुरु दलाई लामा और ब्रह्मपुत्र को लेकर विवाद प्रमुख हैं। पीओके और अरुणाचल प्रदेश को लेकर चीनी नजरिया भी भारत के लिए अस्वीकार्य है।

 

रही बात, चीन द्वारा ब्रह्मपुत्र नदी पर दुनिया की सबसे बड़ी जलविद्युत परियोजना बनाने की तो भारत इससे बहुत ख़ुश नहीं है। इसी तरह पहलगाम आतंकी हमले के बाद भारत और पाकिस्तान के बीच तनाव में चीन की गुप्त भूमिका भी इन संबंधों के लिए एक गम्भीर चुनौती है। इसके अलावा, हाल के दिनों में पड़ोसी देशों के साथ भारत के उतने अच्छे संबंध नहीं रहे जबकि चीन, पाकिस्तान, बांग्लादेश, श्रीलंका और अफ़ग़ानिस्तान का प्रमुख व्यापारिक साझेदार बन गया है।

प्रधानमंत्री मोदी ने तियानजिन हवाई अड्डे पर उतरने के बाद अपनी तस्वीरें पोस्ट कीं और लिखा कि वह ‘एससीओ शिखर सम्मेलन के दौरान विभिन्न देशों के नेताओं से मिलने के लिए उत्सुक हैं।’ ऐसा इसलिए कि भले ही एससीओ का प्रभाव सीमित है और इसमें शामिल देशों के बीच संबंध बहुत अच्छे नहीं हैं। फिर भी मोदी सरकार एक सार्थक पहल करने की इच्छुक है। पिछले वर्ष कजान में राष्ट्रपति शी के साथ मोदी की मुलाकात के बाद से द्विपक्षीय संबंधों में स्थिर और सकारात्मक प्रगति हुई है।

 

भारत तो रूस के साथ साथ चीन व अन्य एससीओ सदस्य देशों के साथ आपसी रिश्ते में सुधार हेतु प्रयत्नशील है लेकिन कैसे ये संबंध बहुत आगे तक जाएँगे, इसकी बहुत गुंजाइश बनानी पड़ेगी। वैसे तो भारत और चीन के बीच व्यापारिक संबंध बहुत गहरे हैं। भारत और चीन के बीच वर्तमान में 100 अरब डॉलर से अधिक का व्यापार जारी है। भारत इसे और बढ़ाने के साथ-साथ चीन से टेक्नोलॉजी के ट्रांसफ़र की भी इच्छा रखता है। ऐसे में सीधा सवाल है कि भारत और चीन एक दूसरे से क्या चाहते हैं? तो जवाब होगा कि भले ही भारतीय प्रधानमंत्री मोदी पिछले कई सालों से एससीओ की बैठकों में शामिल नहीं हुए थे लेकिन उन्होंने अपने मंत्रियों को इस बैठक में अवश्य भेजा था।

 

वहीं अब, जब अमेरिका के साथ भारत के संबंध तनावपूर्ण हो गए तो भारत उन्हें यह दिखाना चाहता है कि उसके पास और भी अधिक विकल्प हैं। यह ठीक है कि भारत और अमेरिका के बीच तनाव की वजह वो अमेरिकी कंपनियाँ हैं जो भारत में काम कर रही हैं और जिसकी वजह से नौकरियाँ अमेरिका से बाहर जा रही हैं लेकिन भारत ने राष्ट्रपति ट्रंप को पाकिस्तान के साथ युद्धविराम का श्रेय नहीं दिया और रूस से तेल ख़रीदने जैसे मुद्दों से भी ट्रंप नाराज़ हैं।

 

इस बात में कोई दो राय नहीं कि भारत और चीन के बीच एक रणनीतिक संघर्ष चल रहा है और यह लंबे समय तक चलेगा क्योंकि भारत की वैश्विक शक्ति बनने की महत्वाकांक्षा है और वह चीन को इस दौड़ में अपना प्रतिद्वंद्वी और बाधा मानता है, ठीक उसी तरह से जैसे अमेरिका भारत को। चूंकि भारत के पास चीन के साथ रणनीतिक साझेदारी की कोई संभावना नहीं है और अंततः भारत को अपने लक्ष्यों को पाने के लिए लिए पश्चिमी खेमे के प्रति पुराने रुख़ पर ही काम करना होगा।

 

वहीं, गुटनिरपेक्ष भारत की अपनी प्रतिरक्षात्मक नीतियाँ हैं। कभी वो अमेरिका के बहुत क़रीब चला जाता है और कभी बहुत दूर चला जाता है । इससे क्षेत्र के सभी देशों के साथ उसके संबंध तनावपूर्ण हो गए हैं। चूंकि मोदी पांच सालों से चीन नहीं गए, इसलिए केवल किसी विशेष संदर्भ में जाकर वे कोई ख़ास बदलाव नहीं ला सकते। बावजूद इसके पीएम मोदी ने एक सकारात्मक पहल की है, जिसके दूरगामी प्रभाव पड़ेंगे।

 

जहां तक पीएम नरेंद्र मोदी की जापान यात्रा की बात है तो इससे पहले भी वो 7 बार जापान जा चुके हैं लेकिन 7 साल बाद अब एक ऐसा संयोग बना जब किसी और मकसद नहीं बल्कि खासतौर पर द्विपक्षीय रिश्तों को मजबूत करने के लिए पीएम टोक्यो गए थे चूंकि, दोनों देशों के बीच गहरी व्यापारिक, तकनीकी और रणनीतिक साझेदारी है, जिसे भारतीय प्रधानमंत्री ने इस यात्रा के जरिये नए क्षेत्रों में बढ़ाया जा सकता है।

 

वहीं, भारत-जापान इकॉनमिक फोरम में पीएम मोदी ने दो टूक कहा कि मैन्यूफैक्चरिंग, टेक्नॉलजी, इनोवेशन, ग्रीन एनर्जी और स्किल डिवेलपमेंट जैसे क्षेत्रों में द्विपक्षीय सहयोग बढ़ाने की अपार संभावना है। इसलिए जापानी कंपनियों को भारत में और निवेश करना चाहिए। चूंकि भारत के पास इस समय दुनिया की सबसे बड़ी कामकाजी युवा आबादी है,और जापान के पास तकनीकी दक्षता है। लिहाजा, दोनों मिलकर विकास की नई कहानी लिख सकते हैं।

 

भारत-जापान रिश्ते को अगर आंकड़ों में देखें तो दोनों देशों के बीच 2023-24 में 22.85 अरब डॉलर का व्यापार हुआ। जापान ने भारत में 40 अरब डॉलर से अधिक निवेश किया है। 1400 जापानी कंपनियां भारत में रजिस्टर्ड हैं और इनमें से करीब आधी मैन्युफैक्चरिंग फर्म हैं। जापान की ऑटोमोबाइल कंपनियों ने भारत में अपना जैसा दबदबा कायम किया है, उसे उदाहरण की तरह लेना चाहिए। जापान की सुजुकी, टोयोटा और होंडा के पास भारतीय वाहन बाजार में करीब 50% हिस्सा है। इन कंपनियों ने भारतीय जरूरतों के हिसाब से खुद को ढाला है। इनके सफलता को दूसरी जगह दोहराने का यह बिल्कुल सही समय है।

 

भारत और जापान हिंद प्रशांत क्षेत्र में शांति और स्थिरता बनाए रखने के लिए गठित मंच क्वाड (QUAD) के सदस्य हैं। लिहाजा, तकनीक, साइबर सुरक्षा, इंफ्रा में सहयोग के अलावा चार देशों के इस समूह का सबसे अहम लक्ष्य है चीनी आक्रामकता को बढ़ने से रोकना। हालांकि अमेरिका की टैरिफ नीतियों की वजह से इस संगठन के कमजोर पड़ने की आशंका जताई जा रही है। चूंकि किसी भी तरह की चीनी आक्रामकता का सीधा असर पहले भारत और जापान पर ही पड़ेगा। ऐसे में यह जरूरी है कि ये दोनों देश क्वाड (QUAD) की प्रासंगिकता को बनाए रखें।

 

भारत-जापान दोस्ती को अगर दर्शाना हो, तो शायद मुंबई-अहमदाबाद हाई स्पीड रेल प्रॉजेक्ट से बढ़िया प्रतीक नहीं मिलेगा जो भारतीय विकास में जापान अहम साझेदार रहा है। दोनों के संबंधों में स्थिरता, भरोसा और आपसी सम्मान है। इसलिए मौजूदा वैश्विक परिस्थितियों को देखते हुए जरूरी है कि ये दोनों पुराने साझेदार रिश्तों को नई ऊंचाई पर ले जाएं।

 

इसी उद्देश्य से पीएम मोदी ने जापान के साथ मिलकर अगले 10 साल का जो रोडमैप बनाया है, उसमें आर्थिक इंगेजमेंट, ग्रीन एनर्जी और आर्थिक सुरक्षा प्रमुख है। मोदी और जापानी पीएम इशिबा की मौजूदगी में कई समझौते पर दस्तखत हुए। भारत-जापान के बीच चंद्रयान-5 मिशन को लेकर एक अहम समझौते पर भी हस्ताक्षर हुए है। यह मिशन दोनों देशों की अंतरिक्ष एजेंसियों, भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (ISRO) और जापान एयरोस्पेस एक्सप्लोरेशन एजेंसी (JAXA) का जॉइंट ऑपरेशन होगा। इसमें दोनों मिलकर चांद के दक्षिणी ध्रुव की स्टडी करेंगे।

 

वहीं, इशिवा ने भारत में अगले 10 सालों में 10 ट्रिलियन येन (करीब 6 लाख करोड़ रुपये) निवेश करने की बात कही है। वहीं, मोदी ने अगले भारत-जापान समिट के लिए इशिवा को भारत आने का न्योता भी दिया। इसी दौरान क्लीन हाइड्रोजन और अमोनिया को लेकर रिसर्च में सहमति के अलावा सांस्कृतिक आदान प्रदान को लेकर भी एक करार पर हस्ताक्षर हुए हैं। विकेंद्रित बट वाटर मैनेजमेंट को लेकर भी एक इयोग पर सहमति बनी है। पर्यावरण, प्रदूषण कंट्रोल, क्लाइमेट चेंज को लेकर योग का एक फ्रेमवर्क बना है।

 

 चूंकि भारत की विकास यात्रा में जापान हमेशा एक अहम पार्टनर रहा है। मेट्रो से मैन्यूफैक्चरिंग तक, सेमीकंडक्टर से स्टार्टअप तक हमारी पार्टनरशिप उपजी विश्वास का प्रतीक बनी है और जापानी कंपनियों ने भारत में 40 अरब डॉलर से अधिक का निवेश किया है। भारत निवेश के लिए सबसे पॉमिसिंग डेस्टिनेशन है। 80% कंपनिया भारत में विस्तार करना चाहती है और 75% पहले से मुनाफे में हैं। इसका मतलब है कि भारत में पूंजी सिर्फ बढ़ती ही नहीं है बल्कि कई गुना हो जाती है।

 

स्पष्ट है कि भारत आपसी समान हित और संवेदनशीलता के आधार पर चीन के साथ द्विपक्षीय संबंधों को रणनीतिक और दीर्घकालिक दृष्टिकोण से आने बढ़ाने को तैयार है।

भारत ने अगले दशक के लिए एक रोडमैप तैयार किया है जिसके विजन के केंद्र में निवेश नवाचार आर्थिक सुरक्षा पर्यावरण के बीच आपसी संपर्क शामिल है।

कमलेश पाण्डेय