क्या सचमुच समृद्धि लाएगी प्राकृतिक खेती

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सचिन त्रिपाठी

भारत की खेती सदियों से प्रकृति पर आधारित रही है गोबर, नीम, धूप, हवा और पानी लेकिन हरित क्रांति के बाद रसायनों का उपयोग खेती का मूल हिस्सा बन गया। यह बदलाव अनाज की पैदावार तो बढ़ा दिया लेकिन भूमि की उर्वरता, जल स्रोतों की शुद्धता और मानव स्वास्थ्य की कीमत पर। अब एक बार फिर देश का किसान रसायन मुक्त खेती की ओर लौट रहा है। यह सिर्फ एक ‘विकल्प’ नहीं बल्कि कृषि का भविष्य बनता जा रहा है।

 

रसायन मुक्त खेती का मतलब है उर्वरकों, कीटनाशकों और हर्बीसाइड्स जैसे रासायनिक इनपुट्स के बिना खेती करना। इसमें जैविक खाद (गोबर, वर्मी कम्पोस्ट), जैविक कीटनाशक (नीमास्त्र, ब्रह्मास्त्र, अग्नास्त्र), फसल चक्र, मिश्रित फसल प्रणाली, जीवामृत, बीजामृत आदि का प्रयोग किया जाता है।

 

रसायन मुक्त खेती में जैविक खादों के उपयोग से मिट्टी में सूक्ष्म जीवों की संख्या बढ़ती है जिससे मिट्टी की संरचना बेहतर होती है। नेशनल सेंटर फॉर ऑर्गेनिक फार्मिंग के अनुसार, मिट्टी की जैविक संरचना में 40% सुधार पाया गया वहां, जहां लगातार 3 वर्ष तक जैविक तरीके अपनाए गए।  रासायनिक खाद और कीटनाशक साल दर साल महंगे होते जा रहे हैं। एफएओ की रिपोर्ट (2022) के अनुसार, भारत में रासायनिक उर्वरकों पर किसान औसतन 6000-8000 रुपए प्रति एकड़ खर्च करता है। रसायन मुक्त खेती में यह लागत घटकर 2000-3000 रुपए तक रह जाती है। जैविक या केमिकल-फ्री उपज की मांग शहरी भारत और विदेशों में तेजी से बढ़ी है। भारत जैविक उत्पादों का ₹7000 करोड़ (2023) का निर्यात कर चुका है।

 

आईसीएआर की रिपोर्ट के अनुसार, रसायन मुक्त उत्पाद सामान्य उत्पादों की तुलना में 20% अधिक मूल्य प्राप्त करते हैं। नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ न्यूट्रीशन, हैदराबाद के अनुसार लगातार रसायनों के उपयोग से किसानों में कैंसर, त्वचा रोग, नपुंसकता और आंखों की बीमारियां तेजी से बढ़ीं। रसायन मुक्त खेती इन जोखिमों को कम करती है। रासायनिक उर्वरक और कीटनाशक नदियों, झीलों और भूमिगत जल को प्रदूषित करते हैं। इंडियन काउंसिल फॉर एनवायरनमेंटल हेल्थ की रिपोर्ट के मुताबिक, पंजाब और हरियाणा के क्षेत्रों में 80% से अधिक जल स्रोत नाइट्रेट से प्रदूषित पाए गए। रसायन मुक्त खेती जल स्रोतों को संरक्षित रखने में सहायक होती है।

 

रसायन मुक्त खेती अपनाने के शुरुआती 2-3 वर्षों में उत्पादन में 10-25% तक की गिरावट आती है। खासकर गेहूं, चावल जैसी प्रमुख फसलों में। यही कारण है कि गरीब किसान इसे अपनाने में हिचकते हैं। अधिकांश किसानों के पास जैविक प्रमाणन नहीं होता, जिससे उनके उत्पाद को उचित मूल्य नहीं मिल पाता। बड़ी कंपनियां ‘ऑर्गेनिक’ टैग के लिए मान्यता प्राप्त फॉर्म से ही उपज खरीदती हैं। बहुत से किसानों को यह जानकारी नहीं होती कि जीवामृत कैसे बनाएं, मिश्रित फसल कैसे लगाएं, प्राकृतिक कीटनाशक कैसे बनाएं। इसकी वजह से वे गलत तकनीक अपनाकर असफल हो जाते हैं। भले ही कुछ राज्यों (जैसे सिक्किम, आंध्रप्रदेश, ओडिशा) ने इसे बढ़ावा दिया हो, परंतु पूरे भारत में रसायन मुक्त खेती के लिए कोई व्यापक नीति या सब्सिडी योजना नहीं है। इसके विपरीत रसायनिक खादों पर भारी सब्सिडी दी जाती है।

 

भारत में लगभग 43 लाख हेक्टेयर भूमि जैविक प्रमाणित है सिक्किम भारत का पहला पूर्ण जैविक राज्य बन चुका है। आंध्रप्रदेश का जीरो बजट नेचुरल फार्मिंग मॉडल तेजी से फैल रहा है, जिससे 50 लाख से अधिक किसान जुड़ चुके हैं। कर्नाटक और महाराष्ट्र में भी सैकड़ों गांवों को जैविक गांव घोषित किया गया है।

 

सरकार को उर्वरक सब्सिडी के एक हिस्से को रसायन मुक्त खेती के प्रोत्साहन में लगाना चाहिए। इसके अलावा हर जिले में जैविक उत्पादों के लिए अलग मंडियां स्थापित की जाएं। कृषि विश्वविद्यालयों को चाहिए कि वे स्थानीय परंपराओं और जलवायु आधारित मॉडल विकसित करें। आधुनिक तकनीक, डिजिटल मार्केटिंग और स्टार्टअप्स के जरिए जैविक उत्पाद को वैश्विक मंच तक पहुंचाया जा सकता है।

 

रसायन मुक्त खेती भारत के किसानों के लिए एक स्थायी, लाभकारी और सामाजिक रूप से सुरक्षित मार्ग है। यह न केवल लागत घटाती है, बल्कि किसानों को उपभोक्ताओं से सीधे जोड़कर उन्हें आत्मनिर्भर बनाती है। हां, इसकी राह आसान नहीं है, लेकिन जब देश की मिट्टी, पानी और स्वास्थ्य की बात हो, तब कठिनाइयां अवसर बन जाती हैं। भारत को अगर भविष्य की ओर देखना है, तो रसायन मुक्त खेती उसकी नींव होनी चाहिए। क्योंकि हर खेत सिर्फ अनाज नहीं उगाता, वह आने वाली पीढ़ियों का भविष्य भी बोता है।