देवताओं की तृप्ति से क्या लाभ ?

defrtfdsx

 एक राजा ने अपने पुरोहित से हवन के लाभ जानने की जिज्ञासा की। विद्वान् पुरोहित ने वेद शास्त्रानुसार यज्ञ-प्रक्रिया का वर्णन किया परन्तु परोक्षवाद पर निहित यज्ञ तत्त्वों को प्रत्यक्षवादी राजा पूरी तरह न समझ पाया। अन्ततोगत्वा पुरोहितजी ने यज्ञ प्रक्रिया समझाने की एक नवीन युक्ति निकाली। राजा से कहा तुम ब्रह्मभोज करो, तब कुछ समझ में आएगा। राजा ने पण्डित जी की बात मान कर वैसा ही किया.

 

पुरोहित जी ने यज्ञ-प्रक्रिया के प्रगाढ़ ज्ञाता वेदपाठियों को एक भवन में बिठाया और दूसरे ब्राह्मणों को दूसरे भवन में. इसके बाद नाना खाद्य पदार्थ परसे गए परन्तु भोजन से पूर्व पुरोहित जी के संकेतानुसार राजा ने सभी ब्राह्मणों के, हाथों में एक-एक डण्डा बांध दिया और भोजन करने की आज्ञा दी। ब्राह्मणों ने ज्यों ही ग्रास उठाकर मुख में डालना चाहा तो वह मुड़ न सका जिसके कारण हाथ शिर से भी ऊपर चला गया। इस घटना को देखकर सभी ब्राह्मण बड़े चकित हुए, राजा के भय से कोई ब्राह्मण कुछ पूछ न सका और सामने पड़ा भोजन देखकर सभी ब्राह्मण सांस भरते रह गए लेकिन कोई भी खा न सका।

 

इसके बाद याज्ञिक ब्राह्मणों ने आपस में परामर्श करके दो पंक्ति लगा ली, सामने वाला व्यक्ति. भोजन ग्रास उठाकर अपने सामने बैठे व्यक्ति के मुख में डालने लगा और दूसरा भी इसी भांति उसको खिलाने लगा। क्योंकि बंधा हुआ हाथ अपने मुख में नहीं पहुँच पाता था, सामने वाले के मुख में तो भलीभांति पहुँचता था। इस तरह सबने भरपेट भोजन किया और सभी ब्राह्मण तृप्त होकर डकार लेने लगे। राजा ने परितप्त याज्ञिक ब्राह्मणों से जब इस सूझ का कारण पूछा तो उन्होंने बताया कि महाराज! श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान ने कहा है-

देवान् भावयतानेन ते देवा भावयन्तु वः। परस्परं भावयन्तः श्रेयः परमवाप्स्यथ ॥

अर्थात् हे मनुष्यों ! तुम यज्ञ प्रक्रिया से देवताओं को तृप्त करो, देवता तुम्हें तृप्त करेंगे, इस प्रकार एक दूसरे को तृप्त करते हुए तुम दोनों का परम कल्याण होगा।

ब्राह्मणों ने कहा-हे राजन्! हमने यहाँ भी इसी यज्ञसूत्र से काम लिया। निःसन्देह मनुष्य संसार में सब पदार्थों के होते हुए भी कर्मबन्धन में बंधा हुआ उनका स्वतन्त्रता पूर्वक उपभोग कर सकने में स्वाधीन नहीं है। यदि मनुष्य यज्ञयागादि द्वारा देवताओं को तृप्त करे तो फिर देवता भी उपभोग क्षमता प्रदान करते हैं। इसलिये अमुक-अमुक संस्कार के समय विहित होमादि का श्रद्धापूर्वक अनुष्ठान करना चाहिए।