प्रकृति का आत्म- अनुकूलन

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जब ज़हर हमारे खेतों में घुल चुका हो, नदियाँ प्लास्टिक से दम तोड़ रही हों और हवा साँस लेने लायक न बचे — तब हम समाधान कहाँ ढूंढ़ते हैं? वैज्ञानिक प्रयोगशालाओं में? सरकारी नीतियों में? आधुनिक तकनीकों में? मगर कई बार जवाब वहाँ से आता है जहाँ हम सबसे कम उम्मीद करते हैं — प्रकृति से खुद । हाल ही में भारत में दो ऐसे शोध सामने आए हैं जो इस बात की गवाही देते हैं कि प्रकृति न केवल ज़िंदा है बल्कि स्वयं को ठीक करने में भी सक्षम है ।

 

भारतीय वनस्पति सर्वेक्षण के वैज्ञानिकों ने पश्चिमी घाट की पहाड़ियों में एक दुर्लभ पौधे की खोज की है जिसे ‘हाइपरअक्यूम्युलेटर’ कहा जाता है। यह पौधा जहरीली मिट्टी में मौजूद भारी धातुओं — जैसे निकल, सीसा और कैडमियम — को सोख लेता है और खुद को कोई नुकसान नहीं होने देता। जहाँ अन्य पौधे मर जाते हैं, वहाँ यह पौधा पनपता है और ज़मीन को धीरे-धीरे साफ करने लगता है। इस श्रेणी में पहले से दुनिया में लगभग 700 पौधों की पहचान हो चुकी है जिनमें से अधिकांश फिलीपींस, चीन, क्यूबा और ग्रीस जैसे देशों में पाए जाते हैं लेकिन भारत में यह शोध नया है और इसका घरेलू कृषि एवं भूमि सुधार में बड़ा उपयोग हो सकता है। भारत के कई औद्योगिक क्षेत्र — जैसे झारखंड का जमशेदपुर, गुजरात का वलसाड, महाराष्ट्र का भोसरी क्षेत्र — भारी धातु प्रदूषण से जूझ रहे हैं। एक अनुमान के अनुसार भारत में 55% से अधिक भूभाग कहीं न कहीं भू-प्रदूषण से प्रभावित है, विशेषकर औद्योगिक और शहरी इलाकों में। पारंपरिक तरीकों से एक हेक्टेयर ज़मीन को शुद्ध करने में ₹15 से ₹25 लाख तक का खर्च आता है जबकि यह पौधों के ज़रिये 80% तक सस्ता और पर्यावरण-अनुकूल हो सकता है। इंडोनेशिया और मलेशिया जैसे देशों ने निकेल की खदानों की सफाई के लिए इन पौधों का व्यावसायिक उपयोग शुरू कर दिया है — भारत में भी ऐसी पहल समय की माँग है।

 

दूसरी तरफ, वैज्ञानिकों ने एक और चमत्कारी खोज की है — प्लास्टिक खाने वाला बैक्टीरिया। 2016 में जापान के वैज्ञानिकों ने आईडीओनेला सकाईएनसिस नामक बैक्टीरिया की खोज की जो पॉलीइथिलीन टेरेफ्थेलेट (PET) प्लास्टिक — जैसे पानी की बोतलों में प्रयुक्त होता है — को कुछ ही हफ्तों में तोड़ सकता है। यह वही प्लास्टिक है जो सामान्य रूप से 400 से 500 वर्षों तक नष्ट नहीं होता। भारत में हर साल 3.5 मिलियन टन से अधिक प्लास्टिक कचरा उत्पन्न होता है और सेंट्रल पॉल्यूशन कंट्रोल बोर्ड  की रिपोर्ट के अनुसार, इसका लगभग 70% अव्यवस्थित रूप से ठोस अपशिष्ट के रूप में जमा हो जाता है। भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान दिल्ली और पुणे की राष्ट्रीय रासायनिक प्रयोगशाला जैसे संस्थान अब ‘प्लास्टिक-डाइजेस्टिंग एंजाइम’ विकसित करने की दिशा में काम कर रहे हैं।

 

गार्डियन की एक रिपोर्ट के अनुसार, 2021 में एक फ्रांसीसी स्टार्टअप ने PET प्लास्टिक को सिर्फ़ 10 घंटे में तोड़ने वाला एंजाइम विकसित किया जिससे यह स्पष्ट होता है कि दुनिया इस दिशा में तेजी से बढ़ रही है । अगर प्लास्टिक खाने वाले बैक्टीरिया का व्यावसायिक और तकनीकी उपयोग संभव हो जाए तो यह वैज्ञानिक उपलब्धि के साथ-साथ विकास और पर्यावरण संरक्षण दोनों की जीत होगी। इन दोनों खोजों से एक सामान्य लेकिन गहरा संदेश मिलता है — प्रकृति खुद को ठीक करने की क्षमता रखती है। कभी पौधों के रूप में, कभी जीवाणुओं के रूप में, कभी बहती नदियों, तो कभी मिट्टी के कणों में — प्रकृति बार-बार संकेत देती है कि वह केवल सहन ही नहीं करती, सुधार भी करती है। 1986 में चेरनोबिल परमाणु दुर्घटना के बाद वैज्ञानिकों ने पाया कि विकिरण से प्रभावित जंगलों में फंगी  की ऐसी प्रजातियाँ विकसित हुईं जो रेडियोएक्टिविटी को अवशोषित कर सकती हैं। यह उदाहरण बताता है कि प्रकृति सिर्फ़ प्रतिक्रिया नहीं देती — वह अनुकूलन करती है।

 

सरकार द्वारा भी ऐसे नवाचारों को समर्थन देने की ज़रूरत है। जैव-प्रौद्योगिकी विभाग (DBT) के राष्ट्रीय जैव-प्रौद्योगिकी मिशन, नमामि गंगे कार्यक्रम और ग्रीन इंडिया मिशन जैसे योजनाओं के तहत फाइटोरिमेडिएशन, बायो-फिल्टरेशन और जैविक अपशिष्ट प्रबंधन से जुड़े प्रयासों को शोध, परीक्षण और विस्तार के लिए वित्तीय सहायता प्रदान की जा सकती है। स्वच्छ भारत मिशन 2.0 में भी जैविक प्लास्टिक रीसायक्लिंग तकनीकों को शहरी और ग्रामीण ठोस अपशिष्ट प्रबंधन के मॉडल के रूप में अपनाया जा सकता है। इसके अलावा, निजी कंपनियाँ अपने कॉरपोरेट सोशल रिस्पॉन्सिबिलिटी (CSR) फंड के तहत पर्यावरणीय स्थायित्व और नवाचारों में निवेश कर सकती हैं, जो IITs, स्टार्टअप्स और सामाजिक संगठनों के बीच साझेदारी का आधार बन सकता है।

 

अब समय आ गया है कि हम प्रकृति को केवल ‘संसाधन’ के रूप में न देखकर एक ‘सहयोगी’ के रूप में स्वीकार करें । इसके लिए ज़रूरी है कि जैव उपचार  को हमारी सरकारी योजनाओं — जैसे ‘नमामि गंगे’, स्मार्ट सिटी मिशन और अमृत योजना — में समाहित किया जाए । भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान और वैज्ञानिक संस्थाओं को पर्याप्त फंडिंग और नीति समर्थन मिले । साथ ही, स्कूल और कॉलेज स्तर पर “प्रकृति-आधारित समाधान” को पाठ्यक्रम में शामिल किया जाए। इसके साथ ही गाँवों और शहरों में सामुदायिक प्लास्टिक रीसायक्लिंग के जैविक मॉडल को बढ़ावा दिया जाए। हाल ही में कर्नाटक के तुमकुर जिले में एक स्वयंसेवी संगठन ने गाँव स्तर पर बैक्टीरिया आधारित घरेलू प्लास्टिक अपघटन प्रयोग शुरू किया है, जो भविष्य की राह दिखाता है।

  

गजेंद्र सिंह
गजेंद्र सिंह एक सामाजिक निवेश विशेषज्ञ हैं जो पिछले 15 वर्षों से सकारात्मक व्यवस्था परिवर्तन के लिए संगठनों, सरकार और समाज को एकजुट करने के लिए प्रतिबद्ध हैं।