जीवन की अमूल्य धरोहर हैं माता-पिता

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फौज़िया नसीम शाद
                        आज की निरंतर बदलती जीवनशैली और उपभोक्तावादी सोच ने हमारे सामाजिक संबंधों की बुनियाद को ही डगमगा दिया है। रिश्तों में प्रेम, विश्वास और अपनापन अब उतना सहज नहीं रहा जितना कभी हुआ करता था। आधुनिकता की दौड़ में इंसान की अपेक्षाएं इतनी बढ़ गई हैं कि उसने अपने मूल्यों, संस्कारों और आत्मीय रिश्तों को पीछे छोड़ दिया है। अब हर संबंध को निभाने से पहले उसमें लाभ और हानि का हिसाब लगाया जाने लगा है और इसी प्रवृत्ति का सबसे गहरा और पीड़ादायक प्रभाव हमारे समाज के बुज़ुर्गों पर पड़ा है।
*आदर्शों से व्यवहार की दूरी*
भारतीय संस्कृति में माता-पिता को ईश्वर तुल्य स्थान प्राप्त है। श्रवण कुमार जैसे पुत्रों की कहानियाँ पीढ़ियों तक सुनाई जाती रही हैं, जहाँ माता-पिता की सेवा को जीवन का सर्वोच्च कर्तव्य माना गया है। किंतु आज के समाज में लोभ, लालच और भौतिक सुखों की चाह ने संतान को इतना स्वार्थी बना दिया है कि माता-पिता को ही बोझ समझा जाने लगा है। यह प्रवृत्ति न केवल चिंताजनक है, बल्कि सामाजिक और नैतिक पतन का संकेत भी है।
समाचार पत्रों और टीवी चैनलों पर आए दिन ऐसी घटनाएं सामने आती हैं, जहाँ वृद्धों पर अत्याचार होता है, उन्हें घर से निकाल दिया जाता है या उनके साथ हिंसा की जाती है। कुछ अत्यंत दुखद घटनाओं में तो संपत्ति के लालच में संतानें अपने माता-पिता की हत्या तक कर डालती हैं। यह वही माता-पिता होते हैं, जो अपने बच्चों की मुस्कान के लिए दिन-रात एक कर देते हैं, खुद गीले में सोते हैं और हमें सूखे में सुलाते हैं, हमारी हर ख्वाहिश को बिना कहे पूरी करते हैं और अपनी ज़रूरतों को हमारे लिए त्याग देते हैं। जब वही माता-पिता वृद्धावस्था में पहुंचते हैं और उन्हें हमारे सहारे की ज़रूरत होती है, तब वे हमारे लिए समस्या क्यों बन जाते हैं? क्यों हम उन्हें बोझ समझने लगते हैं? जिन आँखों में हम पले-बढ़े, जब वे आँखें हमारे व्यवहार से नम हो जाती हैं, तो क्या गुजरती होगी उस दिल पर? यह सोचने का विषय है।
 
*सामाजिक चेतना की आवश्यकता*
 
       समय आ गया है कि हम युवा पीढ़ी आत्मचिंतन करें। माता-पिता को बोझ नहीं, जीवन की अमूल्य धरोहर समझें। उनकी सेवा और देखभाल केवल हमारा कर्तव्य ही नहीं, बल्कि नैतिक उत्तरदायित्व भी है। उनके वृद्धावस्था में उन्हें मानसिक, भावनात्मक और शारीरिक सहयोग प्रदान करना हमारी संस्कृति की पहचान रही है। वहीं बुज़ुर्गों को भी समय की मांग को समझते हुए आत्मनिर्भर बनने की दिशा में प्रयास करना चाहिए। उन्हें अपने भविष्य की सजग योजना बनानी चाहिए ताकि वे समाज में एक सक्रिय और सम्मानित भूमिका निभा सकें। उनका अनुभव और मार्गदर्शन आज के समाज के लिए एक अनमोल संसाधन हो सकता है।
*जो आज हम बोयेंगे, वही कल काटेंगे*
         यह जीवन एक चक्र है- आज हम युवा हैं, कल हम भी वृद्ध होंगे। जिस व्यवहार की हम अपेक्षा अपने बच्चों से भविष्य में करते हैं, वही व्यवहार हमें आज अपने माता-पिता के साथ करना चाहिए। यदि हम आज उन्हें स्नेह, सम्मान और सुरक्षा देंगे, तभी हम आशा कर सकते हैं कि कल हमें भी वही मिलेगा।
            बुज़ुर्गों की उपेक्षा केवल पारिवारिक या व्यक्तिगत विषय नहीं, बल्कि एक सामाजिक चेतावनी है। यदि हम अपने वृद्धों का सम्मान करना भूल गए, तो हम अपने भविष्य का सम्मान नहीं कर पाएँगे।
     इसलिए सोचिए… अब भी समय है – सोच बदलिए, जीवन बदल जाएगा।