
भारतीय कला और संस्कृति का एक महत्वपूर्ण हिस्सा हथकरघा
अतिप्राचीन काल से ही हस्तकरघा उद्योग भारत की उन्नति व कारीगरों की आजीविका के लिए आधार प्रदान करता आया है। सूती, रेशमी, ऊनी, जूट आदि से कपड़े बुनने के लिए विभिन्न प्रकार के लकड़ी के ढांचों से निर्मित हथकरघा का उपयोग भारतीय कुशल कारीगर प्राचीन काल से ही करते रहे हैं। यहां वस्त्र निर्माण में पूरा परिवार शामिल होता है। सूत कातने, रंगने से लेकर करघे पर बुनाई तक का कार्य वे स्वयं करते हैं। इन करघों से बने कपड़े को हस्तकरघा अर्थात हथकरघा कहा जाता है। भारतीय प्राचीन ग्रंथों में हथकरघा का उल्लेख मिलता है, जो भारत की एक महत्वपूर्ण पारंपरिक कला और उद्योग रहा है। ऋग्वेद, पुराण और अर्थशास्त्र जैसे ग्रंथों में भी इसका उल्लेख मिलता है। वेदों में हस्तकरघा शब्द स्पष्ट का उल्लेख नहीं है, लेकिन उस काल में ऊन व रेशम की बुनाई और कताई का उल्लेख है, जो हस्तकरघा का एक महत्वपूर्ण हिस्सा व आधार है और वह उनके उपयोग का संकेत देता है। वैदिक साहित्य में बुनकरों को तंतुवाय कहा जाता था, और उस काल में बुनाई एक महत्वपूर्ण कौशल थी। इस काल में लोग कपड़ों को रंगने के लिए प्राकृतिक रंगों का उपयोग करते थे। और यह एक महत्वपूर्ण व्यवसाय बन गया था। सिंधु घाटी सभ्यता में भी ह्स्तकरघा व बुनाई के स्पष्ट प्रमाण व उल्लेख मिले हैं, जिससे यह स्पष्ट है कि वस्त्र निर्माण कला प्राचीन काल से ही भारत में मौजूद थी। मोहनजोदरो और हड़प्पा जैसी पुरातात्विक स्थलों पर तकलियों और बुने हुए कपड़ों की खोज से पता चलता है कि बुनाई सिंधु घाटी सभ्यता में भी प्रचलित थी। सिंधु घाटी सभ्यता से सूती धागे और रंगाई के बर्तनों के अवशेष भी मिले हैं, जो हथकरघा उद्योग के प्राचीन अस्तित्व का प्रमाण है। बंगाल में भी हथकरघा का उल्लेख मिलता है, जो इस क्षेत्र में हथकरघा की प्राचीनता को दर्शाता है। कालिकापुराण में असम की हथकरघा बुनाई परंपरा का उल्लेख है। भारतीय साहित्य में 64 कलाओं में से एक सुचि-वाय-कर्म में हथकरघे का उपयोग होता है, जो बुनाई और सुई के कार्य से संबंधित है। हथकरघा न केवल अपने कलात्मक अर्थों के कारण महत्वपूर्ण है, बल्कि देश की मितव्ययिता में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है, क्योंकि यह कृषि के बाद दूसरा सबसे बड़ा लाभदायक व्यवसाय है। 2011 की जनगणना के अनुसार भारत में सबसे महत्वपूर्ण श्रमसाध्य कार्य होने के साथ-साथ, हथकरघा उद्योग ने कम से कम 43 लाख लोगों को रोज़गार प्रदान किया है । भारत भर में कई उत्पाद बाज़ार फैले हुए हैं, और प्रत्येक एक विशिष्ट प्रकार के कपड़ा उत्पाद पर केंद्रित है। इसके अन्तर्गत मलमल के लिए चन्देरी, कोटा, रोहतक, मेरठ, मथुरा, मदुरै, वाराणसी, अम्बाला, कुड़प्पा, सिकन्दराबाद, पिलखुआ तथा फ़र्रुख़ाबाद आदि स्थान अत्यंत प्रसिद्ध रहे हैं। छींट के लिए मछलीपटनम का नाम प्रसिद्ध रहा है। दरियों के लिए आगरा, बरेली, झांसी, अलीगढ़, पुणे, गोरखपुर, कालीकट, अम्बाला आदि तो खादी के लिए अमरोहा, अकबरपुर, कालीकट, देवबन्द, पुणे, सण्डीला आदि प्रसिद्ध हैं। हथकरघा उद्योग से निर्मित सामानों का विदेशों का भी निर्यात किया जाता है। पहले कपड़ा बनाने की पूरी प्रक्रिया आत्मनिर्भर थी। किसानों, वनवासियों अथवा चरवाहों से मिलने वाले कपास, रेशम, ऊन को बुनकरों या खेतिहर मजदूरों द्वारा साफ करके तैयार किया जाता था। इस प्रक्रिया में चरखे सहित छोटे-छोटे औज़ारों का इस्तेमाल होता था, जिनका इस्तेमाल ज़्यादातर महिलाएं करती थीं। इस हाथ से काते गए सूत से बाद बुनकर कपड़ा बनाते थे।
हथकरघा भारतीय कला और संस्कृति का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है, जो विभिन्न पारंपरिक डिजाइनों और शैलियों को दर्शाता है। हथकरघा भारतीय कपड़ा उत्पादन में एक महत्वपूर्ण योगदान देता है। हथकरघा का विकास मौर्य और गुप्त काल में हुआ। इस दौरान रेशम और मलमल की बुनाई का विकास हुआ। मुगल काल में हथकरघा और भी परिष्कृत हुआ, जिसमें बनारसी ब्रोकेड, जामदानी और पश्मीना जैसे जटिल डिजाइनों का विकास हुआ। लेकिन ब्रिटिश शासन के दौरान हथकरघा उद्योग पर भारी कर लगाए गए और मशीन से बने कपड़ों के आयात को बढ़ावा दिए जाने से पारंपरिक हथकरघा बुनकरों की आजीविका प्रभावित हुई। ब्रिटिश शासन के दौरान भारत कच्चे कपास का निर्यातक बन गया और मशीनों से बने आयातित सूत की बाढ़ आ गई। इसके परिणामस्वरूप कताई करने वालों की आजीविका पूरी तरह से छीन गई और हथकरघा बुनकर मशीनी सूत पर निर्भर हो गए। जब सूत दूर से आता था और उसे खरीदना पड़ता था, तो सूत के व्यापारियों और वित्तपोषकों की आवश्यकता पड़ती थी और बुनकर बिचौलियों के चंगुल में फंस जाते थे। इस प्रकार अधिकांश बुनकरों की स्वतंत्रता समाप्त हो गई और उनमें से अधिकांश ठेके पर व्यापारियों के यहां काम करने लगे। इसके बावजूद भारतीय हथकरघा उद्योग प्रथम विश्व युद्ध तक अपनी स्थिति बनाए रखने में कामयाब रहा, जब आयातित मशीन-निर्मित कपड़ों ने भारतीय बाज़ार में बाढ़ ला दी। 1920 के दशक में पावरलूम की शुरुआत में मिलों के एकीकरण और सूत की उंची कीमतों ने एक अनुचित प्रतिस्पर्धा को जन्म दिया, जिससे हथकरघा उद्योग का पतन हुआ। इसी काल में स्वदेशी आंदोलन ने खादी के नाम पर हाथ से कताई को फिर से शुरू किया। स्वाधीनता प्राप्ति के बाद हथकरघा उत्पादन को पुनर्जीवित किया गया, जिसमें खादी आंदोलन और सरकारी योजनाओं ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। हर भारतीय को चरखे से सूत कातने और खादी पहनने के लिए मजबूर किया गया। इसके परिणामस्वरूप मैनचेस्टर की मिलें बंद हो गईं। यह भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में भी एक महत्वपूर्ण मोड़ था। लोगों ने आयातित कपड़े जलाए और खादी पहनी। स्वाधीनता प्राप्ति के बाद भी भारत में कपड़ा और कताई मिलें चलती रहीं।
लाखों लोगों के प्रत्यक्ष और चक्रीय रोजगार प्रदान करके विश्व में उत्पादित सभी हाथ से बुने हुए कपड़ों के आधे से अधिक के लिए जिम्मेदार होने के कारण यह भारतीय परंपरा किसी की कल्पना से कहीं अधिक मार्मिक है। हाथ से परिधानों का संयोजन न केवल कढ़ाई करने वाले की क्षमता को निखारने की अनुमति देता है, बल्कि यह भी सुनिश्चित करता है कि अंतिम परिणाम के परिधान को टिकाऊ ढंग से बनाया गया है। मध्य प्रदेश अपने ऐतिहासिक महत्व के लिए प्राचीन काल से प्रसिद्ध रहा है। यह दूसरी शताब्दी ईसा पूर्व में बुनाई के लिए एक विश्व प्रसिद्ध केंद्र के रूप में भी प्रसिद्ध थी। यही कारण है कि 11वीं शताब्दी में भारत का सबसे महत्वपूर्ण व्यापार मार्ग बनकर उभरा। इसका कारण गुजरात, मालवा, मेवाड़ और मध्य भारत के प्राचीन बंदरगाहों तक जाने वाले मार्गों से इसकी निकटता थी। अभिलेखों से पता चलता है कि हथकरघा का उपयोग करने वालों ने अंततः 12वीं और 13वीं शताब्दी के बीच राजघरानों के लिए चंदेरी साड़ियाँ बुनीं। मध्य प्रदेश के चंदेरी नामक एक छोटे से कस्बे में प्राचीन काल से बन रही चंदेरी साड़ियों की सुन्दरता विश्वप्रसिद्ध थी। मआसिर-ए-आलमगीर (1658-1707) के अनुसार खिल्लत सम्मान के प्रतीक के रूप में किसी वरिष्ठ द्वारा किसी को दिया जाने वाला औपचारिक वस्त्र या अन्य उपहार बनाने के लिए सोने और चांदी से कढ़ाई किए गए कपड़े के उपयोग का आदेश दिया जाता था। कई लोगों को यह कपड़ा इतना आकर्षक इसलिए लगा करता था, क्योंकि इसकी कोमलता, पारदर्शिता और भारी सोने के धागे की कढ़ाई से सजे किनारे थे। इन गुणों के कारण इन साड़ियों को अक्सर बुना हुआ हवा कहा जाता था। उनके रूपांकनों में मोर और अन्य जानवर, कमल, खगोलीय आकृतियां, ज्यामितीय पैटर्न और एक-दूसरे में गुंथी हुई कलात्मक रेखाएं शामिल होती थीं। चंदेरी कपड़े का विदेशों में भी निर्यात किया जाता था। माहेश्वरी साड़ियां भी मध्य प्रदेश के एक शहर महेश्वर में बना करती थी, जो पांचवीं शताब्दी के आस -पास हथकरघा बुनाई का केंद्र बन गया था। महेश्वर रानी अहिल्या बाई होल्कर की राजधानी थी। राजघरानों की मांग के कारण ही माहेश्वरी साड़ियों का चलन शुरू हुआ। रानी अहिल्या बाई होल्कर ने सूरत और मालवा के कारीगरों से एक साड़ी बनवाई थी, जिसे वे अपने रिश्तेदारों और मेहमानों को उपहार में दे सकती थीं। मुख्य साड़ी महारानी ने ही डिज़ाइन की थी, और माहेश्वरी साड़ियां जल्द ही शाही परिवार में, और अंततः सभी उम्र और स्तर की महिलाओं के बीच लोकप्रिय हो गईं। इसके अतिरिक्त पोचमपल्ली इकत साड़ियां, बनारसी साड़ियां अदि भी भारत में अपने कलात्मक, सजावट व सुंदरता के लिए अत्यंत प्रसिद्ध है।
नकी अनूठी डिज़ाइन के लिए इनकी प्रशंसा की जाती थी। इन साड़ियों की इन विशेषता के कारण वस्त्र संग्रहकर्ता इसे बेशकीमती मानते हैं। प्राचीन काल में भारतीय कपड़े रोम, मिस्र और चीन को निर्यात किए जाते थे। हथकरघा उद्योग स्वतंत्रता-पूर्व काल से संबंधित है, जब भारत में नई आर्थिक नीति लागू की गई थी ताकि इस उद्योग को बढ़ावा दिया जा सके। वस्त्र नीति 1985 ने हथकरघा को बढ़ावा दिया। हथकरघा क्षेत्र देश की अर्थव्यवस्था में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है और कृषि के बाद दूसरी सबसे बड़ी आर्थिक गतिविधि है। सरकार अब उपलब्ध सभी संसाधनों का अधिकतम उपयोग करने के लिए कई उपाय लागू कर रही है। देश में उत्पादित कुल कपड़ा उत्पादन में इसका योगदान लगभग 22% है। हथकरघा प्राचीन गौरवमयी भारतीय विरासत है, जिसे संजोकर रखना और अपनाना ज़रूरी है। इसीलिए प्रतिवर्ष सात अगस्त को राष्ट्रीय हथकरघा दिवस मनाया जाता है। सात अगस्त 1905 को स्वदेशी आंदोलन के शुभारंभ का प्रतीक माना जाता है। मोहनदास करमचन्द गांधी ने खादी का इस्तेमाल करके इस आंदोलन की शुरुआत की थी। उन्होंने हाथ से काते गए कपड़े का इस्तेमाल किया और हर भारतीय से आग्रह किया कि वे अपना सूत कातें और गर्व से खादी पहनें। इस पहल के कारण लगभग हर घर में खादी बनने लगी। राष्ट्रीय हथकरघा दिवस का उद्देश्य भारत के हथकरघा कामगारों को सम्मानित और प्रोत्साहित करना है। इस क्षेत्र में शामिल हथकरघा बुनकरों में सम्मान का भाव जागृत करना है। इससे संबंधित समारोह का उद्देश्य हथकरघा क्षेत्र के महत्व और देश के सामाजिक-आर्थिक विकास के योगदान के बारे में जागरूकता पैदा करना है।
हथकरघा क्षेत्र को सस्ते आयात, पावरलूम से नकली डिज़ाइन और कई अन्य कारण से प्रतिस्पर्धा का सामना करना पड़ा, जिससे स्थिति और बिगड़ गई। सरकारी धन और नीतिगत संरक्षण में भारी कमी आई। प्राकृतिक रेशे से बने धागे की कीमत में भी भारी वृद्धि हुई है, जिससे यह आम लोगों की पहुंच से बाहर हो गया है। नतीजतन कई बुनकर बुनाई छोड़कर अकुशल मजदूरी का काम कर रहे हैं। इसलिए, बेहतर बाजार पहुंच, नवीन विपणन अभियान, उन्नत उत्पादन सुविधाएं और दृढ़ प्रौद्योगिकियों के संदर्भ में हथकरघा क्षेत्र में परिवर्तन की आवश्यकता है।
-अशोक “प्रवृद्ध”