
पर्यावरण मानव का चिर-सहचर रहा है। अन्य जीव-जन्तुओं की तरह मानव ने भी प्रकृति की गोद में पलकर ही ज्ञान-विज्ञान की यात्राएं की हैं। यदि वैदिक साहित्य का सूक्ष्म अध्ययन करें तो यह तथ्य स्पष्ट होता है कि जीव-समुदाय यदि अपना संरक्षण चाहता है तो उसे प्रकृति को संरक्षित करना होगा-‘रक्षायै प्रकृति पातु लोक:।Ó वैदिक काल का मनुष्य इसी दृष्टिï से जीवन-यापन करता था। आधुनिक वैज्ञानिक मानव और वैदिक मानव में यही मूलभूत अंतर दिखलाई देता है कि आज का मानव पर्यावरण को अपने अनुकूल बनाने का प्रयास करता है, जबकि वैदिक मानव अपने आपको पर्यावरण के अनुकूल ढालने की कोशिश करता था। प्रकृति के प्रति वैदिक मानव भय और श्रद्धा की भावना से प्रेरित होकर कार्य करता था, तथापि भय और श्रद्धा से कहीं अधिक उसके मन में प्रकृति के प्रति प्रेम की भावना होती थी। यह प्रेम-तत्व ही है, जिससे अभिभूत होकर उस काल का मानव प्रकृति का संरक्षण करता था। वेदों में धरती, आकाश, नदी-पर्वत, जड़ और चेतन- सभी जीव, सागर, अंतरिक्ष और ज्योतिष चक्रों- सभी के प्रति मानव के मन में प्रेम की भावना थी। अत: वह सबकी शांति और उत्कर्ष के लिए प्रार्थना करता था।
वेदों में जिस ऋतु के सिद्धांत की चर्चा की जाती है, वह प्रकृति की व्यवस्था से संबंधित है। प्रत्येक जीव की यह नैतिक जिम्मेदारी है कि वह ‘ऋतुÓ के अनुकूृल आचरण करे। इस धरा-मंडल और अंतरिक्ष में जो कुछ भी सत्य है, वह ‘ऋतुÓ ही है और ‘ऋतुÓ के बाहर कुछ भी नहीं है। जीवन-विकास और पोषण के लिए प्रकृति एक आदर्श मूल्य है, अत: इस मूल्य को चिन्मय माना गया है, जिसे धारण करना अर्थात्ï ‘ऋतुÓ की व्यवस्था के अनुकूल करना प्रत्येक जीव का कत्र्तव्य है।
वेदों में जिस यज्ञ-विधान का व्यापक वर्णन किया गया है, वह भी ऋतु की व्यवस्था का ही एक अंग है। यास्क ने अपने ग्रन्थ ‘निघंटुÓ में ऋतु को यज्ञ का पर्याय ही कहा है। हम पर्यावरण से जो कुछ भी जल, फल-फूल ग्रहण करते हैं, जीवन-यापन के साधन प्राप्त करते हैं, वह सब हम पर पर्यावरण ऋण है और इस ऋण को यज्ञ से ही उतारा जाता है। पर्यावरण की जिस शक्ति का शोषण हम जीवन-यापन के लिए करते हैं, जब यज्ञ सम्पन्न किए जाते हैं, जो उन क्षरित शक्तियों का प्रकृति में पुनर्विकास होता है और तब प्रकृति हमें पुन: कुछ देने के योग्य बनती है।
जड़ प्रकृति में विभिन्न दैवीय शक्तियों की संधारणा वैदिक साहित्य की प्रधान विशेषता है, वे देवता मात्र प्रतीक नहीं हैं, अपितु प्रकृति की चिन्मय शक्तियों के पर्याय कहे जा सकते हैं। यही कारण है, वैदिक यज्ञों में देवताओं को दी जानी वाली आहुतियां प्रकृति के विकास का ही संकेत करती हैं।
वैदिक साहित्य में और परवर्ती पुराणों में भी देवासुर संग्राम की कथाएं न तो दो जातियों के संघर्ष की ही गाथाएं हैं, न ही मात्र प्रतीक हैं, अपितु संघर्ष की वे गाथाएं भी ऋतु के व्यापक सिद्धांत की व्यवस्था करती हैं। असुर पर्यावरण के विरोधी होते थे। अत: सुरों द्वारा उनका विनाश किया जाना आवश्यक होता है। ऋग्वेद के मंत्रों में ऐसे निश्चित संकेत हैं कि जब प्रकृति-चक्र असंतुलित होता था, तभी देवासुर संग्राम होते थे। सभ्यता की विकास-यात्रा में यह प्रक्रिया पुराण-काल तक रही है। पुराणों में ईश्वर के अवतारों के उद्ïदेश्यों में यह भी निरूपित किया गया है कि प्रकृति-चक्र को नियमित और संतुलित करने के लिए ही भगवान अवतार ग्रहण करते हैं। इस संदर्भ में श्रीकृष्णावतार के कुछ प्रसंग तो इतने जीवंत हैं कि वे समकालीन पर्यावरण की समस्याओं को भी रेखांकित करते हैं। श्रीकृष्ण ने यमुना के जल में निवास करने वाले कालिया नाग का दमन इसीलिए किया था, क्योंकि कालिया नाग ने यमुना के जल को अपने विष से दूषित कर दिया था। ताल-वन में श्रीकृष्ण ने गंर्दभासुर का वध इसीलिए किया था, क्योंकि उस वन के फल-फूल सामान्य ग्वाल-बाल को प्राप्त ही नहीं होते थे। गर्दभासुर ने उक्त वन को अपने आधिपत्य में ले रखा था। सर्व सामान्य को उस वन के फल-फूल उपलब्ध हो सकें- इसलिए गर्दभासुर का वध आवश्यक था। श्रीकृष्ण के लीला-चरित्र में गोवद्र्धन पूजा भी पर्यावरण से ही संबंधित है। मिथ्या और अहंकारी देवी-देवताओं की पूजा की अपेक्षा उस पर्वत की पूजा अधिक वांछनीय है, जिससे मनुष्यों को आजीविका के साधन मिलते हैं, पशु-पक्षियों का पोषण होता है। इस तरह के और भी प्रसंग हो सकते हैं, जिनकी व्याख्या पर्यावरण की शुद्धि के रूप में ही की जा सकती है। आशय यही है कि ईश्वर के अवतार ऋतु-सिद्धांत की व्यवस्था के लिए भी होते हैं।
इस सृष्टिï में मनुष्य विधाता की निर्माण कला का सर्वोत्कृष्ट नमूना है। किन्तु दुर्भाग्य है कि आज का मानव प्रकृति को मात्र जड़ मानता है और समस्त शक्तियों का दोहन अपने स्वार्थ के लिए करना चाहता है। यही कारण है, आज प्रकृति-प्रांगण में मानव द्वारा ध्वंस-लीला जारी है। मनमाने ढंग से प्रकृति के प्रदूषण से निश्चित रूप से अवश्यंभावी विनाश के संकेत मिलते हैं। पृथ्वी की समग्र खनिज सम्पदा को प्राप्त करने जिस तरह से पर्वतीय चट्ïटानों का उत्खनन किया जा रहा है, उद्ïयोगों को जल-पूर्ति के लिए जिस तरह से नदियों का दोहन किया जा रहा है, पृथ्वी की उर्वरा शक्ति को बढ़ाने के नाम पर जैसे खादों का प्रयोग किया जा रहा है, जिस तरह से जंगली वृक्षों की कटाई की जा रही है, क्या ये सब संकेत नहीं करते हैं कि धीरे-धीरे पृथ्वी खोखली होती जा रही है। आज के मानव को यह समझ लेना जरूरी है कि यदि प्रकृति उस पर निर्भर है तो वह भी प्रकृति पर निर्भर है। वनस्पतियों, पशु-पक्षियों, लता-वृक्षों, पौधों, नदियों, पर्वतों, धरती, अंतरिक्ष- सबके संरक्षण में ही मनुष्य-जीवन का विकास निहित है, अन्यथा जिस स्वार्थ वृत्ति का मनुष्य परिचय दे रहे हैं, उससे भविष्य की कोई संकल्पना स्पष्ट नहीं होती।
वैदिक धर्म-दर्शन का ऋतु-सिद्धांत हमारे ऋषियों के चिंतन का एक ऐसा आयाम है, जिसमें लोक-कल्याण का महत्व स्थापित किया गया है। हमारे सारे कर्म लोक-कल्याण के लिए होने चाहिए। भोगवाद से तृप्ति और शांति कभी नहीं मिल सकती। अत: लोक के लिए, त्याग और वैराग्य की शिक्षा दी गई है। प्रकृति से भी कुछ प्राप्त करने के लिए उसके प्रति त्याग की भावना होनी चाहिए। यही ऋषित्व का भाव है।
भोगोन्मत्त मानव जाति आज विवेक-शक्ति से वंचित हो गई है और क्रूरतापूर्वक प्रकृति का हनन कर रही है। मनुष्य भौतिक आनंद के भाव में ही इतना विक्षिप्त-सा हो उठा है कि उसे आत्मा के परिक्षेत्रों का कोई ज्ञान ही नहीं हो पा रहा है। सभ्यता का यह दौर वस्तुत: आत्म-हनन का दौर है। भारतीय मनीषा ने प्रकृति को जिस आध्यात्मिक दृष्टि से देखने की प्रक्रिया अपनाई थी, वह आज धूमिल हो गई है। भारतीय मनीषियों ने प्रकृति की गतिविधियों को भी चिद्ïविलास की संज्ञा दी थी। इस तरह प्रकृति पर दिव्यता का आरोपण किया गया था। पुराणों में यत्र-तत्र जिस ‘विराट-पुरुषÓ का वर्णन किया गया है, वह वास्तव में सार्वभौम प्रकृति है। ‘विराट-पुरुषÓ की अवधारणा यह स्पष्टï करती है कि सम्पूर्ण प्रजा, जिसमें प्रकृति भी सम्मिलित है, भगवान का शरीर है। अत: किसी भी जीव और प्रकृति के उपकरणों (नदियों, पर्वत आदि) का अपमान करने का, उनकी हिंसा करने का किसी को अधिकार नहीं है। जिओ और जीने दो का सिद्धांत प्रकृति के साम्राज्य में पूरी तरह से लागू होता है। भारतीय तत्व-ज्ञान यह स्पष्टï करता है कि इस संसार में कोई भी तुच्छ और क्षुद्र नहीं है। सभी उस दिव्य सत्ता के अंग हैं, जो सृष्ïिट के मूल में हैं। तत्वज्ञानी जानता है कि अपने स्वार्थ के लिए प्रकृति का विनाश कल्याणकारी नहीं हो सकता। प्रकृति के नाश का मतलब है, प्रलय की ओर अग्रसर होना। आज की वैज्ञानिक सभ्यता प्राकृतिक उपकरणों के दोहन द्वारा इस पृथ्वी को प्रलय की ओर धकेल रही है। प्राचीन भारतवर्ष में वृक्षों, नदियों, पर्वतों की पूजा की परम्परा थी, जिसकी व्याख्या ‘दोटमवादÓ के अंतर्गत की जाती है, किन्तु इस प्रकार की प्रवृत्तियों को मात्र अंधविश्वास की संज्ञा नहीं दी जा सकती। वास्तविकता तो यह है कि ऐसी प्रवृत्ति भारतीय धर्म-दर्शन में सर्वात्मवाद का सिद्धांत प्रस्तुत करती है। एक ही आत्मा है, जो जड़ पत्थरों, वृक्षों, नदियों में है और समस्त जीव-जन्तुओं में भी। यह व्यक्तित्व का दिव्य रूपान्तरण है, जिसमें मनुष्य प्रत्येक वस्तु को अपने जीवन का अंग मानता है। जब ऐसे ज्ञान-बोध से मनुष्य सम्पन्न हो जाता है, तब उसे यह समझाने की आवश्यकता नहीं होती कि उसे सबसे प्रेम करना चाहिए। इस तरह मनुष्य अपना प्रेम चेतन-समुदाय के प्रति ही नहीं, जड़ प्रकृति के प्रति भी अर्पित करता है। यह ‘स्वÓ का, व्यष्टि का विस्तारीकरण है। दिव्यता के इस प्रसार में ‘आत्मैवेदं सर्वÓ की भावना मनुष्य की प्रमुख अनुभूति होती है।
महर्षि अरविन्द ने तेजोमय समन्वय की अवधारणा प्रतिपादित करते हुए यही मत व्यक्त किया है कि प्रकृति के कण-कण से मनुष्य जब अपनी आत्मा की एकता अनुभव करता है तो प्रकृति स्वत: उसकी आवश्यकताओं की पूर्ति करती है। उसे प्रकृति का दोहन नहीं करना पड़ता, अपितु प्रकृति स्वयं उसके प्रति दासीवत समर्पित हो जाती है।
‘यत्पिंडे तत्ï ब्रह्मïांडेÓ की धारणा यह स्पष्ट करती है, प्रकृति के प्रत्येक कण में विराट का समावेश है, जैसे समुद्र की प्रत्येक तरंग अपने स्वतंत्र अस्तित्व के साथ समुद्र की अविभाज्य अंग हैं। इस तरह पर्यावरण भी जहां तक फैला है, एक है। उसे देश- काल-वातावरण की सीमाओं में आबद्ध नहीं किया जा सकता। हम ऐसा नहीं कह सकते कि यदि भारतवर्ष में प्रकृति दूषित हो रही है तो उसका प्रभाव किसी दूसरे देश पर नहीं पड़ेगा। पर्यावरण कहीं भी असंतुलित हो तो उससे सम्पूर्ण मानवता के प्रभावित होने का खतरा पैदा हो जाता है। अत: पर्यावरण, कहीं का भी हो, उसे एक विश्व मानकर सोचने की आवश्यकता है। पर्यावरण विधाता का न्यास है, जिसे हमें सम्हालकर रखना है।
प्रसिद्ध दार्शनिक हीगल ने ‘हिस्ट्री ऑफ फिलासफीÓ ग्रन्थ में विश्वास व्यक्त किया है कि विश्व का सार तत्व बुद्धि है। चेतन समुदाय में यह जो ज्ञान तत्व है, प्रकृति के नियमों और अनुशासन में भी वही प्रतिभासित होता है। प्रकृति भी अपने नियमों से चलती है। एक ग्रह दूसरे ग्रह से निश्चित दूरी पर ही रहते हैं और एक अनुशासन के साथ घूमते हैं। जैसा कि न्यूटन ने कहा था कि यदि यह अनुशासन समाप्त हो जाए तो समस्त ग्रह एक-दूसरे से लड़ पड़ें और सूर्य के हवन-कुंड में गिरकर नष्ट हो जाए। प्रकृति के जिस अनुशासन की बात न्यूटन ने कही वही तो भारतीय ऋषियों का ऋतु-सिद्धांत है। आज मानवता विश्व-विकास का जो स्वप्न देख रही है, वह तभी पूर्ण होगा, जब प्रकृति के मूल्यों की रक्षा होगी। इस ब्रह्मïांड में प्रकृति के नियमों के जो प्रतिकूल है, वह नियम नहीं है, स्वार्थ और अहंकार की ग्रंथियां हैं, जिनमें मनुष्य का मन बंधा है। यही आसुरी-वृत्ति है, जिसमें स्वयं के पोषण पर बल दिया जाता है। ‘गीताÓ में श्रीकृष्ण ऐसी ही वृत्तियों को आसुरी-सम्पदा की संज्ञा देते हैं। अत: लोक-कल्याण या संग्रह के लिए मनुष्य को दैवीय सम्पदा का अधिकारी होना चाहिए। यहां ‘सर्वभूत हितेरता:Ó का सिद्धांत प्रत्येक प्राणी के लिए एक आदर्श मूल्य की घोषणा भी है। यह केवल दार्शनिक विचारधारा नहीं है, अपितु एक सांस्कृतिक मूल्य है, जिसमें पर्यावरण को अभय प्रदान करने की आवश्यकता है।
यदि प्रकृति के नियमों, प्रतिनियमों का सूक्ष्म विश्लेषण करें तो स्पष्ट होता है कि उसके प्रत्येक अस्तित्व में सहयोग की भावना है। यह प्रकृति की समायोजन शक्ति है। अपनी इस शक्ति द्वारा प्रकृति प्रत्येक विरोध को आत्मसात्ï कर लेती है। जो लोग प्रकृति में केवल विरोध ही देखते हैं, अर्थात् यह मानते हैं कि प्रकृति में सर्वत्र विरोध ही विरोध है, वे यह भूल जाते हैं कि प्रकृति के समस्त विरोध विकास के लिए ही होते हैं। यदि प्रकृति में द्वैत न हो तो विकास भी संभव नहीं है। द्वैत का संयोग मिथ्या आनंद नहीं है, वह विकास की दिशाएं निर्धारित करती है। यह विकास भी प्रकृति की समायोजन शक्ति से ही संभव होता है। जब विभिन्न विरोधों के साथ प्रकृति नष्ट होती है, तब भी उसमें विकास की संभावनाएं निहित होती हैं। एक वृक्ष जब नष्टï होता है तो वह बीजों में अपने भवितव्य को कैद कर देता है। जब बीजों को बोया जाता है तो मानो उससे नष्टï वृक्ष का भवितव्य ही अंकुरित होता है।
पर्यावरण की समस्या को लेकर आज पाश्चात्य देशों के विद्वानों में ही अधिक व्याकुलता है। पूर्वी देशों में तो भारतवर्ष ने शताब्दियों पूर्व अपनी ऋषि-परम्परा द्वारा पर्यावरण के संबंध में अपना दृष्टिïकोण स्पष्टï कर दिया था। दस्तावेज बतलाते हैं कि गर्ग, कपिल, कश्यप, पारासर आदि मुनियों ने तो पर्यावरण को जनांदोलन का रूप दिया था। वृक्षारोपण तो प्रत्येक गृहस्थ का पुण्य कत्र्तव्य था। नदी, पर्वतों, लता-कुंजों, वन्य जीवों के प्रति भारतीयों की दृष्टि तो सदैव उदार रही है। प्रख्यात ज्योतिर्विद एवं वास्तु शिल्पी वाराह मिहिर ने निर्दिष्ट किया है कि आवासों के समीप नीम, पीपल, अशोक और शिरीष के वृक्षों से पर्यावरण शुद्ध रहता है। हम वैदिक कालीन पर्यावरण और वर्तमान समाज के पर्यावरण की तुलना नहीं करना चाहते। वैदिक काल में तो पर्यावरण के प्रति मानव का पूज्य भाव था। आज हमारी दृष्टि में अमानवीयता और क्रूरता आ गई है। स्थिति यह हो गई है कि नदी, सागर, वनस्पति, पृथ्वी, आकाश आज सब प्रदूषण की समस्या से ग्रस्त हो गए हैं। अत: यह एक अन्तर्राष्ट्रीय समस्या के रूप में आज प्रगट है, जिसका सामना संपूर्ण मानव-जाति को करना है। यदि स्वस्थ पर्यावरण के प्रति आज का मानव सचेत नहीं हुआ तो इस आशंका को निर्मूल नहीं माना जा सकता कि यह संपूर्ण पृथ्वी ही नष्टï हो जाएगी। विकसित और विकास शील राष्ट्र एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप लगा रहे हैं कि पर्यावरण के हनन के वे जिम्मेदार हैं। वस्तुस्थिति यह है कि विकसित राष्टï्र अपने सामथ्र्यानुसार पर्यावरण का दोहन कर चुके हैं और विकासशील राष्ट्र अपने लाभ और स्वार्थ के लिए प्रकृति के दोहन में संलग्न हैं। इस तरह पर्यावरण के दूषित होने में सभी राष्ट्र अपराधी हैं और सभी राष्ट्रों को मिल-जुलकर वह कीमत अदा करने के लिए तत्पर होना चाहिए, जिस मात्रा में उसने प्रकृति का शोषण किया है। किसी एक व्यक्ति, समाज या राष्ट्र का यह नैतिक कत्र्तव्य नहीं है कि स्वस्थ पर्यावरण का दृष्टिकोण अपनाएं, अपितु यह समस्त मानव जाति, समस्त प्राणियों, समाजों और राष्टï्रों का नैतिक कत्र्तव्य है कि स्वस्थ पर्यावरण का दृष्टिकोण अपनायें और प्रकृति संरक्षण की दिशा में कदम उठाएं।