स्वास्थ्य सुरक्षा के लिए आहार-विहार की सुव्यवस्था

Healthy-heart-diet

सरकारी कानूनों की तरह प्रकृति के भी कानून हैं। जिस प्रकार राज्य के कानूनों को तोडऩे वाले अपराधी जेल की यातना भोगते हैं, वैसे ही प्रकृति के कानूनों की अवज्ञा का स्वेच्छाचार बरतने वाले व्यक्ति बीमारियों का कष्टï सहते हैं और अशक्त, दुर्बल बने रहते हैं।  परिस्थितिवश कभी-कभी संयमी लोगों को भी शारीरिक कष्टï भोगने पड़ते हैं, पर 90 प्रतिशत शारीरिक कष्टïों में हमारी बुरी आदतें और अनियमितता ही प्रधान कारण होती है। अस्वस्थता का कारण असंयम एवं अनियमितता ही है। प्रकृति के आदेशों का उल्लंघन करने के दंडस्वरूप ही हमें बीमारी और कमजोरी का कष्टï भुगतना पड़ता है। सृृष्टिï के सभी जीव-जंतु निरोग रहते हैं। अन्य पशु और उन्मुक्त आकाश में विचरण करने वाले पक्षी यहां तक कि छोटे-छोटे कीट-पतंगे भी समय आने पर मरते तो हैं पर बीमारी और कमजोरी का कष्टï नहीं भोगते। जिन पशुओं को मनुष्य ने अपने बंधन में बांधकर अप्राकृतिक रहन-सहन के लिए जितना विवश किया है, उतनी अस्वस्थता का त्रास उन्हें भोगना पड़ता है, अन्यथा रोग और दुर्बलता नाम की कोई वस्तु इस संसार में नहीं है। उसे तो हम स्वेच्छाचार बरतकर स्वयं ही बुलाया करते हैं। यदि संयम और नियमितता की नीति अपना ली जाए तो फिर न बीमारी रहे और न कमजोरी। अपनी आदतें ही संयमशीलता और आहार-विहार में व्यवस्था रखने की बनानी होंगी। स्वास्थ्य निर्माण में जिसे जितनी सफलता मिलेगी, वह उतना ही आरोग्य-लाभ का आनंद भोग सकेगा। इसके लिए आवश्यक सूत्र हैं-
(1) दो बार भोजन : भोजन दोपहर और शाम को दो बार ही किया जाए। प्रात: दूध, छाछ, रस, सूप आदि हल्का पेय पदार्थ लेना पर्याप्त है। बार-बार खाते रहने की आदत बिलकुल छोड़ देनी चाहिए।
(2) भोजन को ठीक तरह चबाया जाए : भोजन इतना चबाना चाहिए कि वह सहज ही गले से नीचे उतर जाए। उसकी आदत ऐसे डाली जा सकती है कि रोटी अकेली, बिना साग के खाएं और साग अलग से खाएं। साग के साथ गीली होने पर रोटी कम चबाने पर ही गले से नीचे उतर जाती है पर यदि उसे बिना साग के खाया जा रहा है तो उसे बहुत देर तक चबाने पर ही गले से नीचे उतारा जा सकेगा। यह बात अभ्यास के लिए है। जब आदत ठीक हो जाए तो साग मिलाकर भी खा सकते हैं।
(3) भोजन अधिक मात्रा में न हो : आधा पेट भोजन, एक चौथाई जल, एक चौथाई हवा आने-जाने के लिए खाली रखना चाहिए अर्थात् भोजन आधे पेट किया जाए।
(4) स्वाद की आदत छोड़ी जाए : अचार, मुरब्बे, सिरका, मिर्च-मसाले, खटाई-मिठाई की भोजन में अधिकता पेट खराब होने और रक्त को दूषित करने का कारण होती है, इन्हें छोड़ा जाए। हल्का-सा नमक और जरूरत हो तो थोड़ा धनिया, जीरा सुगंध के लिये लिया जा सकता है पर अन्य मसाले तो छोड़ ही देने चाहिए। शरीर के लिए जितना नमक, शक्कर में आवश्यक है, उतना अन्न, शाक आदि  पहले से ही मौजूद है। बाहर से जो मिलावट की जाती है, वह तो स्वाद के लिए है। हमें स्वाद छोडऩा चाहिए। अभ्यास के लिए कुछ दिन तो नमक-मीठा बिलकुल ही छोड़ देना चाहिए और अस्वाद व्रत पालन करना चाहिए। आदत सुधर जाने पर हल्का-सा नमक, नींबू, अदरक, हरा धनियां, पोदीना आदि को भोजन में मिलाकर उसे स्वादिष्टï बनाया जा सकता है। सूखे मसाले स्वास्थ्य के शत्रु ही माने जाने चाहिए। मीठा कम से कम लें। आवश्यकतानुसार गुड़ या शहद से काम चलाएं।
(5) शाक और फलों का अधिक प्रयोग : शाकाहार का भोजन में प्रमुख स्थान रहे। आधा या तिहाई अन्न पर्याप्त है। शेष भाग में शाक, फल, दूध, छाछ आदि रहे। ऋतुफल सस्ते भी होते हैं और अच्छे भी रहते हैं। आम, अमरूद, बेर, जामुन, शहतूत, पपीता, केला, ककड़ी, खीरा, तरबूज, खरबूज, परवल, टमाटर, पालक, मैथी आदि सुपाच्य शाकों की मात्रा सदा अधिक ही रखनी चाहिए। गेहूं, चना आदि को अंकुरित करके खाया जाए तो उनसे बादाम जितना पोषक तत्व मिलेगा। उन्हें कच्चा हजम न किया जा सके तो उबाला, पकाया भी जा सकता है। अन्न, शाक और फलों के छिलकों में जीवनतत्व (विटामिन) बहुत रहता है, इसलिए आम, केला, पपीता आदि जिनका छिलका आवश्यक रूप से हटाना पड़े, उन्हें छोड़कर शेष के छिलके को खाएं जाने ही ठीक है।
(6) हानिकारक पदार्थों से दूर रहें : मांस, मछली, अंडा, पकवान, मिठाई, चाट-पकौड़ी जैसे हानिकारक पदार्थों से दूर ही रहना चाहिए। चाय, भांग, शराब आदि नशों को स्वास्थ्य का शत्रु ही माना गया है। तंबाकू खाना, पीना, सूंघना, पान चबाना आदि आदतें आर्थिक और शारीरिक दोनों ही दृष्टिï से हानिकारक हैं। बासी-कूसी, सड़ी-गली, गंदगी के साथ बनाई गई वस्तुओं से स्वास्थ्य का महत्व समझने वालों को बचते ही रहना चाहिए।
(7) भाप से पकाए भोजन के लाभ : दाल-शाक पकाने में भाप की पद्धति उपयोगी है। खुले मुंह के बरतन में तेज आग से पकाने से शाक के 70 प्रतिशत जीवन तत्व नष्टï हो जाते हैं। हाथ की चक्की का पिसा आटा काम में लेना चाहिए। मशीन की चक्कियों में पिसे आटे से अधिकांश जीवनतत्व नष्टï हो जाते हैं। हाथ की चक्कियों और भाप से पकाने के बरतनों का घर-घर प्रचलन होना चाहिए।
(8) स्वच्छता : शरीर को अच्छी तरह मलकर नहाना चाहिए। शरीर को स्पर्श करने वाले कपड़े रोज धोने चाहिए। बिस्तरों को जल्दी-जल्दी धोते रहा जाए। ढीले और कम कपड़े पहनने चाहिए।
सर्दी-गर्मी का प्रभाव सहने की क्षमता बनाए रखनी चाहिए। चिंता और परेशानी से चिंतित न रहकर हर क्षण प्रसन्न मुद्रा बनाए रहनी चाहिए। घरों में मक्खी, मकड़ी, मच्छर, खटमल, पिस्सू, जुएं, चीलर, छिपकली, छछूंदर, चूहे, घुन से स्वयं की रक्षा करनी चाहिए। मल-मूत्र त्यागने के स्थानों की पूरी तरह सफाई रखी जाए। नालियां गंदी न रहने पाएं। खाद्य पदार्थों को ढंककर रखा जाए और सोते समय मुंह ढंका न रहे। मकान में इतनी खिड़कियां और दरवाजे रहें कि प्रकाश और हवा आने-जाने की समुचित व्यवस्था बनी रहे। बरतनों को साफ रखा जाए और उनके रखने के स्थान भी साफ हों। दीवार और फर्शों की जल्दी-जल्दी पुताई, लिपाई, धुलाई करते रहा जाए। सफाई का हर क्षेत्र में पूरा-पूरा ध्यान रखा जाए। हर भोजन के बाद कुल्ला करना, रात को सोते समय दांत साफ करके सोना, अधिक ठंडे और गरम पदार्थ न खाना दांतों की रक्षा के लिए आवश्यक है।
(9) खुली वायु में रहिए : रात को जल्दी सोने और प्रात: जल्दी उठने की आदत डाली जाए। इससे स्वास्थ्य पर अच्छा प्रभाव पड़ता है और सवेरे के समय का जिस कार्य में भी उपयोग किया जाए, उसी में सफलता मिलती है। प्रात: टहलने, व्यायाम एवं मालिश करने के उपरांत रगड़-रगड़कर नहाने का अभ्यास प्रत्येक स्वास्थ्य के इच्छुक को करना चाहिए। सवेरे खुली हवा में टहलने और व्यायाम करने वालों का स्वास्थ्य कभी खराब नहीं होने पाता।  
(10) ब्रह्मïचर्य का पालन : ब्रह्मïचर्य का समुचित ध्यान रखा जाए। विवाहितों और अविवाहितों को मर्यादाओं का समुचित पालन करना चाहिए। इस संबंध में जितनी कठोरता बरती जाएगी, स्वास्थ्य उतना ही अच्छा रहेगा। बुद्धिजीवियों और छात्रों के लिए तो यह और भी अधिक आवश्यक है, क्योंकि इंद्रिय असंयम से मानसिक दुर्बलता आती है और उन्हें अपने लक्ष्य तक पहुंचने में भारी अड़चन पड़ती है।