
रहीम कवि कहते हैं:- ‘अमरबेलि बिनु मूल की, प्रति पालत है ताहि।
रहिमन ऐसे प्रभुहि तजि खोजत फिरिए काहि।।
अर्थात- जो ईश्वर बिना जड़ की अमरबेल का भी पालत पोषण करते हैं, ऐसे ईश्वर को छोड़कर बाहर किसे खोजते फिर रहे हैं। अमरबेल जिसे आकाश बेल या अमरलता भी कहते हैं बिना जड़ व पत्तियों वाला अनूठा पौधा है। भारत में हिन्दू अमरबेल को लक्ष्मी का प्रतीक मानते हैं इसीलिए लक्ष्मी पूजन सामग्री में इसे सम्मिलित किया जाता है। गृह शांति एवं वास्तु पूजा में भी अमर बेल का उपयोग किया जाता है। अमरबेल एक पराश्रयी बेल (लता) वाला पौधा है। यह जिस पेड़ अथवा वृक्ष से लिपटती है उसका शोषण कर उसे पूरी तरह से सुखा देती है। इसका वैज्ञानिक नाम ‘कस्कुटाÓ है। भूमि से इसका कोई सम्पर्क नहीं होने के कारण इसे ‘आकश बेलÓ भी कहा गया है। इसे अमरबेल नाम इसलिए दिया गया है क्योंकि जड़ें और पत्तियां नहीं होने के बाद भी यह वर्षों तक जीवित रहती हैं और तभी नष्ट होती हैं, जब वह पेड़ या पौधा ही सूख जाए, जिससे यह लिपटकर दाना-पानी ग्रहण करती हैं। वास्तव में अमरबेल पूरी तरह से पर जीवी पौधा होता है, जो भोजन के लिए दूसरों पर निर्भर रहता है। बंगाली भाषा (बंगला) में इसे ‘स्वर्णलताÓ (सुअर्नलता) कहते हैं जो इसके सुनहरे रूप को दर्शाता है। अमरबेल की शाखाओं को तोड़कर यदि उसे किसी दूसरे पौधे या पेड़ पर डाल दिया जाए तब यह उस पर भी अपना डेरा जमा लेती हैं। इसकी इसी विशेषता के कारण यह अत्यधिक पल्लवित हेाती है। (फलती-फूलती पनपती है।) इसके प्रसार में पक्षियों का भी योगदान है, पक्षी अपने घोंसलें के निर्माण के लिए इसे तोड़कर ले जाते हैं तब यह जिस पेड़ पर पहुंच जाता है फिर उसे ही जकड़ लेता है और पनपता रहता है।
दुनिया भर में अमरबेल की लगभग 190 प्रजातियां पाई जाती हैं। भारत में पाए जाने वाला अमरबेल जो अधिकता से पाया जाता है वह है ‘कस्कुटा रिफलेकसा।Ó उसे बबूल, बेर (कोयर) और सप्तपर्णी जैसे पेड़-पौधों पर देखा जा सकता है। अमरबेल को नष्ट करने के लिए संक्रमित पेड़ को ही अथवा उसके उस हिस्से को ही काटना श्रेयस्कर है।
अमरबेल में पौधे के नाम पर केवल पीले अथवा स्वर्णिम रंग का तार के समान ‘तनाÓ होता है। यह अंकुरित होते हैं अपने पोषक पेड़-पौधों के तने से लिपट जाती है और कुछ समय पश्चात भूमि से इसका नाता सर्वदा के लिए टूट जाता है। मूलत: अमरबेल में जड़ नहीं होती, परंतु उसके तने (लता) पर निश्चित दूरी पर विशेष प्रकार की जड़ की तरह निकलती है जो इसके पोषक पौधे तने से चिपकाए रखती है और इसके माध्यम से ही वह बना-बनाया भोजन वहां से खींचती रहती हैं, आज के जीव विज्ञान इसे ‘हास्टोरियाÓ कहते हैं। बीच से निकलकर अमरबेल अपने दम पर केवल 6-7 दिनों तक जीवित रह सकती है। इस पीले अथवा स्वर्णिम धागेनुमा अंकुर का आगे जीवित रहना तभी संभव रहता है जब वह सही पोषक पौधे यानी वह पौधा या पेड़ जिससे लिपटकर वह आगे बढ़ती है के सम्पर्क में आ सके। अमरबेल इस तरह किसी भी पेड़ को अपने चंगुल में लेकर उसे धीरे-धीरे नष्ट व समाप्त कर देती हैं। ‘रुनÓ नाम के एक अनुसंधानकर्ता के अनुसार यह पोषक पौधों से निकलने वाले कुछ वाष्पशील सुगंधित पदार्थों से आकर्षित होकर उसकी ओर बढ़ती है और फिर एक घंटे के भीतर ही उससे लिपट जाती हैं। भारत के अतिरिक्त चीन, कोरिया, पाकिस्तान और थाईलैंड में पारम्परिक चिकित्सा पद्धतियों (देशी चिकित्सा) में अमरबेल का अत्याधिक प्रयोग अथवा उपयोग किया जाता है। कुछ ही समय पहले ‘जर्र्नल ऑफ इथनों फार्मोकोलॉजीÓ में प्रकाशित एक शोध ने अमरबेल की चिकित्सकीय महत्ता बताई है। इस शोध के अनुसार अमरबेल में ‘एण्टी एजिंगÓ और ‘दर्द निवारकÓ गुण पाए गए हैं। साथ ही इसे यकृत (लिवर) और गुर्दों (किडनी) के स्वास्थ्य के लिए भी उपयोगी पाया गया है। वास्तव में इस संसार में ऐसा भी कोई पौधा हो सकता है, जिसकी न जड़ें (मूल) हों और न भोजन बनाने वाली पत्तियां, फिर भी यह जीवित रहे, यह अपने आप में एक आश्चर्य है? ऐसा ही एक विचित्र और अद्भुत पौधा है ‘अमरबेलÓ।