
भारत विश्व का सबसे सुंदर और व्यवस्थित समाज व्यवस्था का देश है। युगों-युगों से भारतीय समाज में रिश्ते नातों को लेकर जिया गया है। हम अपनी पौराणिक और शास्त्री कथाओं को भी उठाकर देखें तो हमें अपने समाज, परिवार के प्रति प्रेम, स्नेह, त्याग, तपस्या, आज्ञा, परोपकार आदि कितने ही गुण मिल जाएंगे। संयुक्त परिवार की जीवन व्यवस्था ही हमारे सामाजिक जीवन का आधार रही है। दादा-दादी, ताऊ-ताई, चाचा-चाची, बुआ, सास-ससुर, साला, साली आदि इन सभी रिश्तों के साथ हम सभी बंधे रहे हैं। इनकी संतानों के प्रति भी हमारे मधुर बंधन रहे हैं।
भाई का भाई के प्रति त्याग, आज्ञाकारी होना आदि गुण पाया जाता है। पति-पत्नी के मधुर संबंध, माता-पिता की आज्ञा का पालन करना आदि। हर समय और कालखंड में कुछ अपवाद भी रहे लेकिन उन अपवादों की ओर किसी ने ध्यान नहीं दिया है। आगे आने वाली पीढ़ियों ने उन्हें ना तो अपना आदर्श माना है और ना ही उन्हें सराहा है।
युग परिवर्तन के साथ ही वर्तमान महानगरीय या शहरी और अब कुछ-कुछ ग्रामीण जीवन शैली में भी पारिवारिक रिश्तों को लेकर अजब सी रस्साकशी दिखाई देती है। पाश्चात्य समाज का कुप्रभाव अब हम सभी की जीवन शैली पर धीरे-धीरे पड़ने लगा है। एक छत के नीचे रहने वाला हर एक प्राणी अपनी स्वतंत्रता को लेकर समाज पर प्रश्न चिन्ह लगा रहा है। चारदिवारी को तोड़ो, सभी कुछ खुल्लम खुल्ला करो। बिना किसी रोक-टोक के किसी की कोई इज्जत मत करो। सभी संबंध केवल दैहिक सुख से जोड़ दिए गए हैं। देह का खुला भोग, संबंधों से दूर, अपने जीवन में किसी का अधिकार नहीं, एक जंगली व्यवस्था सी दिखाई दे रही है।
चारों तरफ भागम-भाग मची हुई है। शादी को तो वर्तमान पीढ़ी एक ऐसा बंधन मानने लगी है कि इसके बाद तो जीवन ही समाप्त हो जाएगा। यह बात सभी पर लागू नहीं होती लेकिन देखा ऐसा ही जा रहा है। घर बसाने की जिम्मेदारी उठाने से कतराती नई युवा पीढ़ी कौन सा संदेश देना चाहती है? यह बड़ा प्रश्न है। विचार करें तो यदि उनके माता-पिता ही नहीं होते तो वह इस धरा धाम पर कैसे आते? यदि माता-पिता उनकी देख-रेख या परवरिश नहीं करते तो क्या वह आज को देख पाते? यह बहुत बड़े प्रश्न हैं जिस पर उन्हें सोचने की जरूरत है ना कि उन्हें भोगने की।
बदलती पीढ़ियों के दौर के साथ रिश्तों अर्थात संबंधों के नाम भी तेजी से बदल रहे हैं। कभी बचपन में हमें माई बेस्ट फ्रेंड पढ़ाया गया और हमें बताया गया कि बेस्ट फ्रेंड क्या होता है। समय बदला तो बॉयफ्रेंड और गर्लफ्रेंड शब्द चल निकले जो कि समय की मांग कहे जाने लगे। समय परिवर्तनशील है फिर रिलेशनशिप शब्द चल पड़ा। युवा पीढ़ी इन सभी शब्दों और संबंधों के बारे में हमसे अधिक जानते-समझते हैं। समय के साथ सिचुएशनशिप शब्द चल पड़ा, अब यह समझ नहीं आ रहा कि इस शिप कल्चर में हो क्या रहा है? समय बदला तो नैनोशिप शब्द चल निकला। इसके अलावा भी युवाओं में बहुत सारे शिप और संबंध भीतर ही भीतर चल रहे हैं।
विचार करें तो युवाओं में यह सभी शब्द और परिस्थितियाँ तेजी से बढ़ रही हैं। हॉस्टल कल्चर या पीजी ने बच्चों को माता-पिता की छत से दूर रखा, बालक कुछ बनकर बाहर निकालेगा लेकिन परिस्थितियाँ इससे कुछ अलग ही रूप ले रही है। इस व्यवस्था में सिनेमा और अन्य सिनेमाई प्लेटफार्म बहुत बड़ी भूमिका अदा कर रहे हैं। इन पर भी हमें लगाम लगाने की जरूरत है। एक बात फिर दोहरा रहा हूं कि यह सारी बातें सभी पर लागू नहीं होती हैं लेकिन समाज का एक बहुत बड़ा वर्ग इसकी चपेट में अवश्य आ गया है। बुराई का यह मकड़जाल सामान्य से सामान्य को भी जकड़ रहा है। हमें इस ओर भी ध्यान देने की जरूरत है।