
राजेश जैन
आईआईटी, एनआईटी और आईआईएम जैसे संस्थान हर पढ़ने वाले छात्र और उनके परिवारों का सपना होते हैं। सालों की मेहनत, रातों की नींदें, लाखों की कोचिंग और मां-बाप की हर उम्मीद– सब कुछ इस एक सीट के लिए दांव पर लगा होता है। जब वह सीट मिलती है, तो लगता है कि ज़िंदगी जीत ली। लेकिन हाल ही में आईआईटी खड़गपुर से आई खबरों ने इस जीत की चमक के पीछे छुपा एक ऐसा स्याह सच उजागर कर दिया । यहां एक ही साल में चार छात्रों की आत्महत्या की है। यह कोई अपवाद नहीं। बीते एक दशक में भारत के टॉप संस्थानों में आत्महत्या की घटनाएं बढ़ती जा रही हैं। आंकड़े कहते हैं कि हर साल ऐसे 30 से 40 छात्र आत्महत्या कर लेते हैं, लेकिन असल संख्या इससे कहीं अधिक हो सकती है — क्योंकि बहुत से मामले रिपोर्ट ही नहीं होते।
इस देश में जो छात्र सबसे होशियार, टॉपर और घर का गौरव कहे जाते हैं, वे आखिर खुद को खत्म करने जैसा फैसला क्यों कर बैठते हैं? इसका जवाब सीधा नहीं, बहुत जटिल है। आईआईटी और आईआईएम जैसे संस्थानों में जाना जितना मुश्किल है, वहां टिके रहना उससे भी ज्यादा चुनौतीपूर्ण है। वहां पहुंचते ही शुरू हो जाती है एक अंतहीन दौड़ — नंबरों की, इंटर्नशिप की, प्लेसमेंट की और अब तो स्टार्टअप और सोशल मीडिया ब्रांडिंग की भी। हर तरफ सफलता की परिभाषा “मिलियन डॉलर पैकेज” है। कोई एक दिन धीमा हुआ तो उसे पीछे छूटने का डर सताने लगता है और यही डर, धीरे-धीरे दिल-दिमाग में घर बना लेता है।
इन संस्थानों के कैंपस चाहे कितने भी बड़े क्यों न हों, उनके हॉस्टल्स कितने भी आबाद क्यों न दिखें पर सच्चाई यह है कि वहां एक अजीब-सी तन्हाई बसती है, एक ऐसी तन्हाई, जो बाहर से नहीं, भीतर से खाए जाती है। भाषा की दीवार, नए माहौल की असहजता, पढ़ाई का लगातार दबाव और परफेक्ट बने रहने की अंधी दौड़ — ये सब मिलकर छात्र को उस जगह पर ले जाते हैं जहां वो खुद को नाकाम, अकेला और अस्वीकार्य मानने लगता है।
यह सिर्फ पढ़ाई तक सीमित नहीं है। इन संस्थानों में बहुत सारे छात्र दलित, आदिवासी, पिछड़े वर्गों और आर्थिक रूप से कमजोर परिवारों से भी आते हैं। उनके लिए संघर्ष सिर्फ अकादमिक नहीं, सामाजिक भी होता है। उन्हें बार-बार जताया जाता है कि वे कोटा से आए हैं, मेरिट से नहीं। प्रोफेसर हों या साथी छात्र, भेदभाव खुलकर भले न करें, लेकिन व्यवहार से झलक जाता है। पहचान पर लांछन लगाना, सवाल करना और मानसिक रूप से अलग-थलग कर देना— ये एक इंसान को अंदर से तोड़ने के लिए काफी है।
फिर परिवार का दबाव भी होता है। कई छात्र ऐसे परिवारों से आते हैं जहां पहली बार किसी ने आईआईटी और आईआईएम का मुंह देखा होता है। उनके लिए वह बच्चा सिर्फ एक छात्र नहीं, पूरे खानदान की उम्मीद होता है। मां-बाप कहते हैं–बेटा, तू ही तो सहारा है और यह सहारा बनने की कोशिश, छात्र को खुद को खो देने पर मजबूर कर देती है। वह डरने लगता है कि अगर असफल हुआ तो सिर्फ खुद को नहीं, अपने परिवार के सपनों को भी तोड़ देगा।
इन सबके बीच सिस्टम की सबसे बड़ी चूक यह है कि उसने सफलता की परिभाषा को बहुत संकुचित कर दिया है। टॉपर बनना, 10 सीजीपीए लाना, गूगल या अमेज़न में नौकरी पाना— यही सफलता के मानक बन चुके हैं। कोई मिड लेवल जॉब ले ले, ब्रेक ले ले, करियर बदल ले या पढ़ाई धीमे करे — तो उसे फेलियर समझा जाने लगता है। ऐसी सोच एक छात्र को इंसान से मशीन बना देती है और जब मशीन ब्रेक करती है तो कोई नहीं पूछता, बस फाइल बंद हो जाती है।
सबसे बड़ी विडंबना है कि ये सभी संस्थान सक्सेस को ग्लैमराइज तो करते हैं लेकिन फेलियर के लिए कोई ठोस और संवेदनशील व्यवस्था नहीं रखते। काउंसलिंग सिस्टम नाम मात्र का है । या तो काउंसलर होते ही नहीं और अगर होते भी हैं तो स्टूडेंट्स तक उनकी पहुंच नहीं होती। जो छात्र महीनों तक अकेलापन, एंग्जायटी और डिप्रेशन से जूझते रहते हैं, उन्हें खुलकर मदद मांगने में शर्म आती है। डर लगता है कि उन्हें कमज़ोर समझा जाएगा। वहां आई एम नॉट ओके कहना आसान नहीं होता।
इसके अलावा कोई छात्र अगर फेल हो जाए, तो न तो कोई उसे संभालने वाला होता है, न कोई प्रोफेशनल मदद। वहां हर जगह यह सोच हावी होती है कि यहां सब प्रेशर में हैं, तुम भी झेलो लेकिन हर किसी की सहनशक्ति एक जैसी नहीं होती और जब सहनशक्ति जवाब दे देती है, तो छात्र चुपचाप उस चुप्पी को चुन लेता है जिसे आत्महत्या कहते हैं।
अब सवाल यह नहीं है कि यह सब क्यों हो रहा है, सवाल यह है कि हम इसके लिए क्या कर रहे हैं? सबसे पहले तो हमें हर संस्थान में मानसिक स्वास्थ्य को पाठ्यक्रम जितना ही अनिवार्य बनाना होगा। छात्र जब कॉलेज में दाखिल होता है, उसी दिन से उसे मेंटल हेल्थ से जुड़ी जानकारी, संसाधन और मदद की व्यवस्था दी जानी चाहिए। काउंसलिंग को वैकल्पिक नहीं, ज़रूरी बनाया जाना चाहिए। हर हॉस्टल में एक पियर लिसनर ग्रुप हो, जहां छात्र अपने जैसे साथियों से बात कर सकें।
दूसरा, हमें “फेल होने” को ‘नॉर्मल’ बनाना होगा। कोई परीक्षा में पिछड़ जाए तो उसे रिपीट करने, ब्रेक लेने या स्लो-ट्रैक पर चलने के विकल्प बिना किसी शर्म के दिए जाने चाहिए। छात्रों को यह विश्वास होना चाहिए कि संस्थान उनकी असफलता के समय भी उतना ही उनके साथ खड़ा रहेगा जितना सफलता के समय। फेल होने पर सहानुभूति नहीं, समर्थन चाहिए।
तीसरा, भेदभाव के खिलाफ ज़ीरो टॉलरेंस नीति होनी चाहिए। चाहे वह प्रोफेसर हो या छात्र, कोई जातिगत या आर्थिक आधार पर भेदभाव करता है तो उस पर तुरंत कार्रवाई हो। फैकल्टी को सिर्फ विषय पढ़ाना नहीं, इंसान पढ़ाना भी आना चाहिए। उन्हें सेंसिटिविटी और इमोशनल इंटेलिजेंस की ट्रेनिंग दी जाए।
चौथा और सबसे जरूरी, हमें अभिभावकों को भी समझाना होगा कि उनके बच्चे भगवान नहीं हैं। वे इंसान हैं, और इंसान को गलती करने, थकने, रुकने और फिर से चलने का हक होता है। माता-पिता को चाहिए कि वे सिर्फ मार्क्स नहीं, बच्चों से संवाद भी मांगें। बच्चे को यह अहसास हो कि वह मां-बाप की उम्मीदों से नहीं, उनके प्यार से बंधा है।
आखिरी बात यह कि इस बदलाव की जिम्मेदारी सिर्फ संस्थानों की नहीं, हम सबकी है। मीडिया, शिक्षक, सरकार, परिवार, दोस्त— हर किसी को मिलकर यह माहौल बनाना होगा जिसमें छात्र खुद को अकेला महसूस न करे। हमें सफलता की परिभाषा बदलनी होगी— वह सिर्फ ऊंची तनख्वाह नहीं, एक शांत मन भी है। वह सिर्फ रैंक नहीं, रिश्तों की गर्माहट भी है। वह सिर्फ टॉपर बनना नहीं, एक अच्छा इंसान बने रहना भी है। हमारी नई पीढ़ी सिर्फ नौकरी की तैयारी नहीं कर रही, वह ज़िंदगी की तैयारी कर रही है और अगर ज़िंदगी ही उनसे छिन जाए तो हमने क्या पाया?