
गोस्वामी तुलसीदास द्वारा अवधी में रचित रामचरितमानस भारतीय संस्कृति में एक विशेष स्थान रखता है। जीवन में सामाजिक मर्यादा का पालन करते हुए चुनौतियों से जूझने की प्रेरणा देने वाले यदि कोई ग्रन्थ है तो वह रामचरितमानस ही है। हालांकि तुलसी बाबा ने इसकी रचना के बारे में कहा हैं, ‘स्वांतः सुखाय तुलसी रघुनाथ गाथा’ लेकिन उनकी विशिष्ट शैली ने रामकथा के हर पात्र का चरित्र चित्रण करते हुए पारिवारिक-सामाजिक मूल्यों को भी स्पर्श किया है। यथा, भारतीय संस्कृति ‘मातृ देवो भव, पितृ देवो भव’ की है। तुलसी ने मानस में रामजी के माध्यम से इस बात को विशेष रूप से रेखांकित किया है। ‘प्रातकाल उठि कै रघुनाथा। मातु पिता गुरु नावहिं माथा।।’ वनगमन प्रकरण सहित राम जी ने माता-पिता और गुरुजनों की आज्ञा को अपना धर्म समझा। गुरु वसिष्ठ की हर आज्ञा चाहे वह राक्षसों की वध हो, शिव धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ाने की हो या फिर अन्य, रामजी व उनके भाइयों ने हमेशा नतमस्तक होकर उसका पालन किया।
रामजी का लक्ष्मण, भरत से प्रेम जगजाहिर है लेकिन मानस में भ्रातृ प्रेम को जिस प्रभावी ढ़ंग से प्रस्तुत किया गया है उसे पढ़ -सुनकर संस्कारित होना स्वाभाविक प्रक्रिया है। लक्ष्मण द्वारा वनवास के चौदह वर्ष में भ्रातृ सेवा में अपनी नींद तक का त्याग हो या गृहस्थ जीवन सहित अपना सर्वस्व न्योछावर करना अप्रतिम है। केवल लक्ष्मण ही नहीं, प्रतिपक्ष के कुंभकरण का सब कुछ जानते हुए निःस्वार्थ अपने भाई का साथ निभाते हुए मृत्यु का वरण भी भ्रातृ प्रेम का अनुकरणीय उदाहरण है। इसी प्रकार भरत द्वारा माता कैकयी के वचनों को अस्वीकार करते हुए दास भाव से रामजी की चरण पादुका को सिंहासन पर विराजित कर अयोध्या का राजकाज देखना भातृ प्रेम का अद्वितीय दृष्टान्त है।
राजा का कर्तव्य है प्रजा पालन अर्थात् जनता की सेवा। रामराज्य तो आदर्श है ही, राजा दशरथ, जनक, बाली, सुग्रीव हो, या लंका के राजा रावण, सभी का प्रजा के प्रति समर्पण था। प्रजा सुखी संपन्न थी और अपने राजा का सम्मान करती थी। मानस में कहा भी गया है-
सुर रंजन भंजन महि भारा। जौं भगवंत लीन्ह अवतारा।।
तौ मैं जाइ बैरु हठि करऊँ। प्रभु सर प्रान तजें भव तरऊँ।।
अर्थात् रावण ने विचार किया कि देवताओं को आनंद देने वाले और पृथ्वी का भार हरण करने वाले भगवान ने ही यदि अवतार लिया है तो मैं उनसे हठपूर्वक वैर करूंगा और प्रभु के बाण से प्राण छोड़कर भवसागर से तर जाऊंगा। इस प्रकार मैं तथा मेरी पूरी प्रजा रामजी के हाथों मोक्ष प्राप्त करेगी।
रामचरितमानस सर्वसाधारण का हितपोषक है क्योंकि-
सकल सुमंगल दायक, रघुनायक गुण गान।
सादर सुनहिं ते तरही भव,सिंधु बिना जल जान।।
अर्थात रघुनायक श्री रामजी का गुणगान अति मंगलकारी है. जो नर इसे आदर के साथ सुनते हैं, इस संसार सागर से पार उतर जाते हैं।
तुलसी बाबा ने मित्र गुण वर्णन करते हुए कहा है-
जे न मित्र दुख होहिं दुखारी। तिन्हहि बिलोकत पातक भारी।।
निज दुख गिरि सम रज करि जाना। मित्रक दुख रज मेरु समाना।।
-जो लोग मित्र के दुःख से दुःखी नहीं होते, उन्हें देखने से ही बड़ा पाप लगता है। अपने पर्वत के समान दुःख को धूल के समान और मित्र के धूल के समान दुःख को सुमेरु (बड़े भारी पर्वत) के समान जाने।
जिन्ह कें असि मति सहज न आई। ते सठ कत हठि करत मिताई।
कुपथ निवारि सुपंथ चलावा। गुन प्रगटै अवगुनन्हि दुराव।।
-जिन्हें स्वभाव से ही ऐसी बुद्धि प्राप्त नहीं है, वे मूर्ख हठ करके क्यों किसी से मित्रता करते हैं? मित्र का धर्म है कि वह मित्र को बुरे मार्ग से रोककर अच्छे मार्ग पर चलावे। उसके गुण प्रकट करे और अवगुणों को छिपावे।।
देत लेत मन संक न धरई। बल अनुमान सदा हित करई।
बिपति काल कर सतगुन नेहा। श्रुति कह संत मित्र गुन एहा।।
-देने-लेने में मन में शंका न रखे। अपने बल के अनुसार सदा हित ही करता रहे। विपत्ति के समय तो सदा सौगुना स्नेह करे। वेद कहते हैं कि संत (श्रेष्ठ) मित्र के गुण (लक्षण) ये हैं।
आगें कह मृदु बचन बनाई। पाछें अनहित मन कुटिलाई।।
जाकर चित अहि गति सम भाई। अस कुमित्र परिहरेहिं भलाई।।
-जो सामने तो मधुर वचन कहता है और पीठ-पीछे बुराई करता है तथा मन में कुटिलता रखता है- हे भाई! (इस तरह) जिसका मन साँप की चाल के समान टेढ़ा है, ऐसे कुमित्र को तो त्यागने में ही भलाई है।
सेवक सठ नृप कृपन कुनारी। कपटी मित्र सूल सम चारी।।
सखा सोच त्यागहु बल मोरें। सब बिधि घटब काज मैं तोरें।।
-मूर्ख सेवक, कंजूस राजा, कुलटा स्त्री और कपटी मित्र- ये चारों शूल के समान पीड़ा देने वाले हैं। हे सखा! मेरे बल पर अब तुम चिंता छोड़ दो। मैं सब प्रकार से तुम्हारे काम आऊँगा (तुम्हारी सहायता करूँगा)।
रामचरित मानस में बालि वध के बाद सुग्रीव का राज्याभिषेक हुआ। वह राजकाज सम्हालने में व्यस्त हो गया। रामजी अपने अनुज लक्ष्मण के साथ ऋष्यमूक पर्वत पर ही रहे क्योंकि वर्षा काल था। वे वर्षा ऋतु के वर्णन के साथ अपने मन की बात भी कहने से नहीं चूकते हैं। इसके माध्यम से तुलसी बाबा ने नीति और व्यवहार से साक्षात्कार कराया। यथा रामजी अपने अनुज लक्ष्मण से कहते हैं-
लछिमन देखु मोर गन नाचत बारिद पेखि।
गृही बिरति रत हरष जस बिष्नुभगत कहुँ देखि।।
-हे लक्ष्मण! देखो, मोरों के झुंड बादलों को देखकर नाच रहे हैं जैसे वैराग्य में अनुरक्त गृहस्थ किसी विष्णुभक्त को देखकर हर्षित होते हैं।
घन घमंड नभ गरजत घोरा। प्रिया हीन डरपत मन मोरा।।
दामिनि दमक रहनि घन माहीं। खल की प्रीति जथा थिर नाहीं।।
-आकाश में बादल घुमड़-घुमड़कर घोर गर्जना कर रहे हैं, प्रिया (सीताजी) के बिना मेरा मन डर रहा है। बिजली की चमक बादलों में ठहरती नहीं, जैसे दुष्ट की प्रीति स्थिर नहीं रहती।
बरषहिं जलद भूमि निअराएँ। जथा नवहिं बुध बिद्या पाएँ।
बूँद अघात सहहिं गिरि कैसे। खल के बचन संत सह जैसें।।
-बादल पृथ्वी के समीप आकर बरस रहे हैं, जैसे विद्या पाकर विद्वान विनम्र हो जाते हैं। बूँदों की चोट पर्वत कैसे सहते हैं, जैसे दुष्टों के वचन संत सहते हैं।
छुद्र नदीं भरि चलीं तोराई। जस थोरेहुँ धन खल इतराई।।
भूमि परत भा ढाबर पानी। जनु जीवहि माया लपटानी।।
-छोटी नदियाँ भरकर किनारों को तुड़ाती हुई चलीं, जैसे थोड़े धन से भी दुष्ट इतरा जाते हैं। मर्यादा का त्याग कर देते हैं। पृथ्वी पर पड़ते ही पानी गंदला हो गया है, जैसे शुद्ध जीव के माया लिपट गई हो।
समिटि समिटि जल भरहिं तलावा। जिमि सदगुन सज्जन पहिं आवा।।
सरिता जल जलनिधि महुँ जोई। होइ अचल जिमि जिव हरि पाई।।
-जल एकत्र हो-होकर तालाबों में भर रहा है, जैसे सद्गुण एक-एककर सज्जन के पास चले आते हैं। नदी का जल समुद्र में जाकर वैसे ही स्थिर हो जाता है, जैसे जीव श्री हरि को पाकर अचल (आवागमन से मुक्त) हो जाता है।
हरित भूमि तृन संकुल समुझि परहिं नहिं पंथ।
जिमि पाखंडवाद ते गुप्त होहिं सदग्रंथ।।
-पृथ्वी घास से परिपूर्ण होकर हरी हो गई है, जिससे रास्ते समझ नहीं पड़ते। जैसे पाखंड मत के प्रचार से सद्ग्रंथ गुप्त (लुप्त) हो जाते हैं।
दादुर धुनि चहु दिसा सुहाई। बेद पढ़हिं जनु बटु समुदाई।।
नव पल्लव भए बिटप अनेका। साधक मन जस मिलें बिबेका।।
-चारों दिशाओं में मेंढकों की ध्वनि ऐसी सुहावनी लगती है, मानो विद्यार्थियों के समुदाय वेद पढ़ रहे हों। अनेक वृक्षों में नए पत्ते आ गए हैं, जिससे वे ऐसे हरे-भरे एवं सुशोभित हो गए हैं जैसे साधक का मन विवेक (ज्ञान) प्राप्त होने पर हो जाता है।
अर्क जवास पात बिनु भयऊ। जस सुराज खल उद्यम गयऊ।।
खोजत कतहुँ मिलइ नहिं धूरी। करइ क्रोध जिमि धरमहि दूरी।।
-मदार और जवासा बिना पत्ते के हो गए यानी उनके पत्ते झड़ गए। जैसे श्रेष्ठ राज्य में दुष्टों का उद्यम जाता रहा उनकी एक भी नहीं चलती। धूल कहीं खोजने पर भी नहीं मिलती, जैसे क्रोध धर्म को दूर कर देता है। अर्थात् क्रोध का आवेश होने पर धर्म का ज्ञान नहीं रह जाता।
ससि संपन्न सोह महि कैसी। उपकारी कै संपति जैसी।।
निसि तम घन खद्योत बिराजा। जनु दंभिन्ह कर मिला समाजा।।
-अन्न से युक्त लहराती हुई खेती से हरी-भरी पृथ्वी कैसी शोभित हो रही है, जैसी उपकारी पुरुष की संपत्ति। रात के घने अंधकार में जुगनू शोभा पा रहे हैं, मानो दम्भियों का समाज आ जुटा हो।
महाबृष्टि चलि फूटि किआरीं। जिमि सुतंत्र भएँ बिगरहिं नारीं।।
कृषी निरावहिं चतुर किसाना। जिमि बुध तजहिं मोह मद माना।।
-भारी वर्षा से खेतों की क्यारियाँ फूट चली हैं, जैसे स्वतंत्र होने से स्त्रियाँ बिगड़ जाती हैं। चतुर किसान खेतों को निरा रहे हैं उनमें से घास आदि को निकालकर फेंक रहे हैं।) जैसे विद्वान लोग मोह, मद और मान का त्याग कर देते हैं।
देखिअत चक्रबाक खग नाहीं। कलिहि पाइ जिमि धर्म पराहीं।।
ऊषर बरषइ तृन नहिं जामा। जिमि हरिजन हियँ उपज न कामा।।
-चक्रवाक पक्षी दिखाई नहीं दे रहे हैं, जैसे कलियुग को पाकर धर्म भाग जाते हैं। ऊसर में वर्षा होती है, पर वहाँ घास तक नहीं उगती। जैसे हरिभक्त के हृदय में काम नहीं उत्पन्न होता।
बिबिध जंतु संकुल महि भ्राजा। प्रजा बाढ़ जिमि पाइ सुराजा।।
जहँ तहँ रहे पथिक थकि नाना। जिमि इंद्रिय गन उपजें ग्याना।।
-पृथ्वी अनेक तरह के जीवों से भरी हुई उसी तरह शोभायमान है, जैसे सुराज्य पाकर प्रजा की वृद्धि होती है। जहाँ-तहाँ अनेक पथिक थककर ठहरे हुए हैं, जैसे ज्ञान उत्पन्न होने पर इंद्रियाँ शिथिल होकर विषयों की ओर जाना छोड़ देती हैं।
कबहुँ प्रबल बह मारुत जहँ तहँ मेघ बिलाहिं।
जिमि कपूत के उपजें कुल सद्धर्म नसाहिं।।
-कभी-कभी वायु बड़े जोर से चलने लगती है, जिससे बादल जहाँ-तहाँ गायब हो जाते हैं। जैसे कुपुत्र के उत्पन्न होने से कुल के उत्तम धर्म (श्रेष्ठ आचरण) नष्ट हो जाते हैं।
कबहु दिवस महँ निबिड़ तम कबहुँक प्रगट पतंग।
बिनसइ उपजइ ग्यान जिमि पाइ कुसंग सुसंग।।
-कभी (बादलों के कारण) दिन में घोर अंधकार छा जाता है और कभी सूर्य प्रकट हो जाते हैं। जैसे कुसंग पाकर ज्ञान नष्ट हो जाता है और सुसंग पाकर उत्पन्न हो जाता है।
रामचरितमानस में अनेक प्रसंग बहुत प्रभावी हैं। लंकाकांड का ‘विजय रथ’ मुझे बहुत प्रिय है क्योंकि यह एक गंभीर प्रसंग है। राम और रावण के बीच संग्राम शुरू होने के समय का यह दृश्य है। एक तरफ रावण की सुसज्जित सेना है तो दूसरी ओर राम की संसाधन रहित सेना है। इन परिस्थितियों के कारण विभीषण के मन में शंका हुई तो राम ने धर्मरथ की सही व्याख्या कर विभीषण की शंका का समाधान करते हुए राम समझाते हैं कि ऐसा धर्ममय रथ जिसके पास होगा वह सर्वथा अजेय है। संसार उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकता। इस तथ्य को जिसने अपने आचरण का विषय बना लिया है, सच्चे अर्थों में वही ज्ञानी है।
रावनु रथी विरथ रघुवीरा। देखी विभीषन भयऊ अधीरा।।
अधिक प्रीति मन भा संदेहा। बंदि चरण कह सहित सनेहा।।
रावण को रथ पर और श्री रघुवीर को बिना रथ के देखकर विभीषण अधीर हो गए। प्रेम अधिक होने से उनके मन में सन्देह हो गया (कि वे बिना रथ के रावण को कैसे जीत सकेंगे)। श्री रामजी के चरणों की वंदना करके वे स्नेह पूर्वक कहने लगे।
नाथ न रथ नहि तन पद त्राना। केहि विधि जितब वीर बलवाना।।
सुनहु सखा कह कृपानिधाना। जेहिं जय होइ सो स्यंदन आना।।
हे नाथ! आपके न रथ है, न तन की रक्षा करने वाला कवच है और न जूते ही हैं। वह बलवान वीर रावण किस प्रकार जीता जाएगा? कृपानिधान श्रीराम ने कहा-हे सखे! सुनो, जिससे जय होती है, वह रथ दूसरा ही है।
सौरज धीरज तेहि रथ चाका। सत्य, शील, दृढ़, ध्वजा पताका।।
बल विवेक दम परहित धोरे। छमा कृपा समता रजु जोरे।।
शौर्य और धैर्य उस रथ के पहिए हैं। सत्य और शील (सदाचार) उसकी मजबूत ध्वजा और पताका हैं। बल, विवेक, दम (इंद्रियों का वश में होना) और परोपकार- ये चार उसके घोड़े हैं, जो क्षमा, दया और समता रूपी डोरी से रथ में जोड़े हुए हैं।
इस भजनु सारथी सुजाना। बिरति चर्म संतोष कृपाना।।
दान परसु बुधि सक्ति प्रचण्डा। बर बिग्यान कठिन कोदंडा।।
ईश्वर का भजन ही (उस रथ को चलाने वाला) चतुर सारथी है। वैराग्य ढाल है और संतोष तलवार है। दान फरसा है, बुद्धि प्रचण्ड शक्ति है, श्रेष्ठ विज्ञान कठिन धनुष है।
अमल अचल मन त्रोन समाना। सम जम नियम सिलीमुख नाना।।
कवच अभेद विप्र गुरु पूजा। एहि सम विजय उपाय न दूजां।।
निर्मल (पापरहित) और अचल (स्थिर) मन तरकस के समान है। शम (मन का वश में होना), (अहिंसादि) यम और (शौचादि) नियम- ये बहुत से बाण हैं। ब्राह्मणों और गुरु का पूजन अभेद्य कवच है। इसके समान विजय का दूसरा उपाय नहीं है।
सखा धर्ममय अरू रथ जाके। जीतन कहँ न कतँहु रिपु ताके।।
हे सखे! ऐसा धर्ममय रथ जिसके हो उसके लिए जीतने को कहीं शत्रु ही नहीं है।
महा अजय संसार रिपु जीति सकड़ सो बीर।
जाके अस रथ होइ दृढ़ सुनहु सखा मतिधीर।।
हे धीरबुद्धि वाले सखा! सुनो, जिसके पास ऐसा दृढ़ रथ हो, वह वीर संसार (जन्म-मृत्यु) रूपी महान दुर्जय शत्रु को भी जीत सकता है (रावण की तो बात ही क्या है)।
सुनि प्रभु वचन विभीषण हरष् गहे पद कंज।
एहि मिस मोहि उपदेसेहु राम कृपा सुख पुंज।।
प्रभु के वचन सुनकर विभीषणजी ने हर्षित होकर उनके चरण कमल पकड़ लिए (और कहा-) हे कृपा और सुख के समूह श्री रामजी! आपने इसी बहाने मुझे (महान)उपदेश दिया।
त्रेतायुग से अब तक समय बदला है लेकिन असमानता के संघर्ष वाली परिस्थितियां लगभग वही हैं। रावण राजनीति से बाजार और तंत्र तक अपनी घुसपैठ बना चुका है। रावण प्रतीक है अधर्म, अन्याय, अहंकार और अनीति का, सामान्यजन के उत्पीड़न का। वह दशानन है। सिर अहंकार का प्रतीक है और दस मुंह अर्थात् एक साथ दस तरह के कुतर्क प्रस्तुत करने की क्षमता। वह मायावी भी कम नहीं है। छल में मास्टर है तो साधनों की अधिकता के कारण उसे अपने उद्देश्य के लिए असंख्य मारीच भी सहज उपलब्ध हैं। राम तो आज भी वनवासी है। स्वयं साधनहीन हैं तो उसके साथी भी दीन-हीन। अनियंत्रित, असीमित शक्तियों वाली सत्ता पर सवार रावण को देख कभी-कभी लगता है कि शायद रावण कालजयी है। रावण नीति-निर्माता है, जनता उसे भुगतती है। रथी और विरथी की लड़ाई जारी है लेकिन क्या यह लड़ाई अनंत है?
सिद्धांतहीनता और मानव मूल्यों के इस द्वंद्व को देख आज भी हर विभीषण अधीर होता है। विभीषण की नजर साध्य की तरफ है। राम की साधन की ओर। उसका विश्वास है कि साधन जिसके पवित्र होंगे, जीत उसकी होगी। कहने को हमने ‘सत्यमेव जयते’ को अपना राष्ट्रीय प्रतीक बनाया है। संसद से हर कार्यालय तक इसे महिमामंडित किया लेकिन सत्य किसके पक्ष में खड़ा है यह सब जानते हैं। पर यह भी तो उतना ही सत्य है कि हारना पाप है, जीतना पुण्य है। युगों से रावणी प्रवृत्ति से लड़ते लोगों के लिए आज भी राम आशा की एक किरण हैं। उसी राम के इंतजार में पीढ़ी-दर-पीढ़ी लगे हैं। घर-घर अखण्ड रामचरितमानस, हर वर्ष रामलीला और उसका समापन रावण का पुतला फूंकने तक राम के लिए पलक-पांवड़े बिछाना राम के प्रति अविचल आस्था नहीं तो और क्या है?
तुलसी अस्पृश्यता के विरोध में खड़े हैं इसीलिए केवट को दण्डवत करते देख भरत उसे प्रेम से उठाकर अपने हृदय से लगा लेते हैं, मानो अपने भाई लक्ष्मण से मिल रहे हों।
जासु छाँह छुई लेइहि सींचा। लोक बेद सब भाँतिहुँ नीचा।
करत दण्डवत देखि तेहि, भरत लीन्ह उर लाइ।
मनहुँ लखन सन भेंट भई, प्रेम न हृदय समाइ।।
महर्षि वसिष्ठ समस्त लोक रूढ़ियों को ध्वस्त करते हुए नीची जाति में जन्मे उस रामसखा को स्वयं आगे बढ़कर गले लगाते हैं तब तुलसी ने सामाजिक समरसता का एक अनुपम अध्याय प्रस्तुत करते हुए कहा है –
प्रेम पुलक केवट कहि नामू। कीन्ह दूर तें दंड प्रनामू।
राम सखा रिषि बरबस भेंटा। जनु महि लुटत सनेह समेटा।।
यहाँ यह स्मरणीय है कि रावण विद्वान था। शास्त्रों का ज्ञाता। ऋषि पुलत्स्य का पौत्र और विश्वश्रवा का पुत्र था। महान वास्तुकार मय का दामाद था। उसका अधर्म का प्रतीक होने का कारण उसका मर्यादित और अहंकारी होना है। सत्ता के दंभ में चूर था। विद्वानों की राय की परवाह न करने वाला यानी अलोकतांत्रिक था। जो युगधर्म को न माने उसे अधर्मी माना जाता है। आज के साधन-संपन्न (रथी) इसी परंपरा के वाहक ऐसे ही अवगुणों से सुसज्जित हैं। तो कैसे मान ले कि रावण स्मृति शेष हो गया।
चुनावी समर में मतदाता ‘मर्यादा पुरुषोत्तम’ का प्रतिनिधि है तो प्रश्न है कि धनबल, बाहुबल, छल, सत्ता के रथ पर सवार नेता किसके प्रतिनिधि हैं? राम पिता से प्रजा की इच्छा पर घर, परिवार, राजपाट छोड़ने को तैयार है लेकिन अपना राजपाट बचाने के लिए सबसे समझौता, गठबंधन, लठबंधन, संविधान संशोधन के नाटक से अध्यादेश फाड़ने तक रावण क्या नहीं करते। सत्य ही है कि रावण मिथ नहीं, प्रवृत्ति है और उससे लड़ना विरथी की नियति है। लड़ने के अतिरिक्त कोई विकल्प भी नहीं है। पर यहाँ भी विभीषण की तरह इस मन से हर राष्ट्र-प्रेमी के मन में एक संदेह उपजता है, ‘रावण तो रक्तबीज की तरह लगातार बढ़ रहे हैं। उनसे भिड़ने के लिए आज इतने राम कहाँ ले लाऊं।’
राम न तो शोषित रहना चाहते हैं और न ही किसी के राज्य पर अपना अधिपत्य जमाना चाहते हैं। लंका पर विजय हासिल करने के बाद मर्यादा पुरुषोत्तम राम का यह कथन –
अपि स्वर्णमयी लङ्का न मे लक्ष्मण रोचते।
जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी।।
अर्थात् यह सोने की लंका मुझे किसी तरह से प्रभावित नहीं कर रही है। मेरे लिए माँ और जन्मभूमि स्वर्ग से भी बढ़ है।’
रामचरितमानस में कहा गया है-
सुनु कपीस अंगद लंकेसा। पवन पुरी रूचिर यह देसा।।
जद्यपि सब बैकुंठ बखाना। वेद पुराण विदित जगु जाना।।
अवधपुरी सम प्रिय नहीं सोऊ। यह प्रसंग जाने कोऊ-कोऊ।।
जन्मभूमि मम पुरी सुहाबनी। उत्तर दिसि बह सरजू पावनि।।
तुलसी ने मानस में देश की प्रमुख नदियों का गौरव के साथ स्मरण किया है- सुरसरि सरसई दिनकर कन्या. मेकलसुता गोदावरी धन्य ‘पवन गंग तरंग माल से’ तथा ‘धन्य देस सो जहँ सुरसरी’ कहकर गोस्वामीजी ने अपने देश भारत की महिमा का गान किया है।
तुलसी के राम धनिकों गणमान्यों का अनादर कर सकते हैं पर गरीबों को आदर देते (विनयपत्रिका – 165) हैं-
रघुवर रावरि यहै बड़ाई।
निदरि गनी आदर गरीब पर, करत कृपा अधिकाई।।
तुलसी बाबा लघुता को प्रतिष्ठित करते हैं। छोटेपन को बड़ा बनाते हैं। (दोहावली- 309)ं-
सासु ससुर गुरु मातु पितु प्रभु भयो चहै सब कोइ।
होनी दूजी ओर को सुजन सराहिअ सोइ।।
सास, ससुर गुरु, माता पिता मालिक सब होना चाहते हैं बड़े बन कर हुकुम चलाने के लिये, पर जो दूसरी ओर बहू, शिष्य, सन्तान, नौकर बन कर आज्ञा पालन और सेवा करना चाहते हैं वे ही वास्तव में सराहने योग्य हैं ।
हमारी भारतीय संस्कृति प्रेम, त्याग, करुणा, समर्पण इत्यादि गुणों की खान है। परिवार हो, समाज हो, देश हो या विश्व हर संबंध में एकता, संगठन, शांति, त्याग आदि का महत्व बताया गया है। यथा –
जहाँ सुमति तहाँ सम्पति नाना; जहाँ कुमति तहाँ बिपति निदाना।
लेकिन समाज हित में दिये गये किसी भी वचन को हर कीमत पर निभाना है क्योंकि –
रघुकुल रीत सदा चली आई, प्राण जाए पर वचन ना जाइ।
चाहे कैसे भी संकट आये विचलित नहीं होना है-
धीरज, धर्म, मित्र अरु नारी, आपत काल परखिए चारी।
इसके अतिरिक्त मानस में अनेक सूक्तियां भी हैं जो भारतीय संस्कृति से साक्षात्कार कराती है। यथा, ‘जैसे घर का भेदी लंका ढाए’, ‘देव देव आलसी पुकारा’, ‘भय बिन होय न प्रीत’, ‘जाति पाती पूछे नहीं कोई, हरि को भजे सो हरि का होई’, ‘बिनु सत्संग विवेक न होई.। रामकृपा बिनु सुलभ न सोई।।’ ‘टेढ़ जानि सब बंदहि काहू। वक्र चन्द्रमहि ग्रसहिं न राहूं।।’ ‘पर उपदेश कुसल बहुतेरे। जे आचरहिं ते नर न घनेरे।।’ ‘बैर प्रीति नहीं दुरइ दुराये।’, पराधीन सपनेहु सुख नाहीं।’, ‘बांझ कि जान प्रसव के पीरा।’ ‘होइहै सोइ जो राम रचि राखा।’, ‘का वर्षा जब कृषी सुखाने।’, स्वारथ लागि करहिं सब प्रीति।’ सहित 825 सूक्तियां मानस में है। यह सर्वकालिक सत्य है कि सामथ्र्यवान नैतिक- अनैतिक किसी भी मार्ग पर चले, उसके दोषों की ओर संकेत करने का साहस किसी में नहीं होता-
समरथ को नहिं दोषु गोसाई। रवि पावक सुरसरि की नाई।।
इसके अतिरिक्त भी बहुत कुछ है। जिसे एक लेख क्या, एक ग्रन्थ में प्रस्तुत करना भी कठिन है। भक्तमाल में नाभादास ने तुलसीदास के विषय में ठीक ही कहा है-
त्रेता काब्य निबंध करी सतकोटि रमायन।
इक अच्छर उच्चरैं ब्रह्महत्यादि पलायन।।
अब भक्तनि सुख दैन बहुरि लीला बिस्तारी।
राम चरन रस मत्त रटत अह निसि ब्रतधारी ।।
संसार अपार के पार को सुगम रूप नौका लयो।
कलि कुटिल जीव निस्तार हित बाल्मीकि तुलसी भयो।।
विशेष यह कि तुलसी साहित्य में भारतीय काव्यशास्त्र में वर्णित सभी 6 प्रमुख मानदंड रस, ध्वनि, अलंकार, रीति, वक्रोक्ति और औचित्य से साक्षात्कार होता है। तुलसी ने अपने काव्य में मार्मिक प्रसंग विधान, चारित्रिक महत्ता, सांस्कृतिक गरिमा एवं गुरुता, गंभीर भाव-प्रवाह, सरस घटना संघटन, अलंकारित, उन्नत कलात्मकता एवं प्रबंधात्मकता का बहुत ध्यान रखा है।
कलियुगी मनुष्य की स्वाभाविक कुटिलता के उपचार का सबसे सुगम साधन तुलसी बताते हैं। तुलसी की सबसे बड़ी उपलब्धि इस कलियुग के कलुष का नाश कर चित्त को उजला बनाना है। इस कठिन संसार सागर को सहज ही पार करने का मार्ग सुझाने की है। यद्यपि सभी भक्त कवि यही काम करते हैं। तथापि सर्वाधिक सुगम, सुदृढ़ और सुखदायक नौका तुलसी ने तैयार की। 31 जुलाई ,2025 (श्रावण शुक्ल सप्तमी) भारतीय संस्कृति के उन्नायक गोस्वामी तुलसीदास जी की 528 वी जयंती के अवसर पर उन्हें शत्-शत् नमन!
डा. विनोद बब्बर