
एमएक्स प्लेयर की वेब सीरीज़ ‘मिट्टी- एक नई पहचान’ एक ऐसे समय में आई है, जब भारत का ग्रामीण परिदृश्य कई मोर्चों पर संघर्ष कर रहा है। मौसम, मूल्य, बाजार और मानसिकता के स्तर पर। यह सीरीज़ न केवल आत्म-खोज और शहर बनाम गांव की बहस को छूती है बल्कि खेती को एक केंद्रीय बिंदु बनाकर मौजूदा पीढ़ी के भीतर उस ‘मिट्टी’ की पुकार को फिर से जागृत करती है जिसे हमने शहरी सपनों की दौड़ में पीछे छोड़ दिया है।
‘मिट्टी’ के नायक राघव, जो एक विज्ञापन एजेंसी में ऊंचा ओहदा रखते हैं, जब अपने दादा की मृत्यु के बाद गांव लौटते हैं, तो वो अपने ही बचपन, जमीन, रिश्तों और स्मृतियों से दोबारा मिलते हैं। उनके भीतर एक टकराव शुरू होता है। एक ओर कॉर्पोरेट दुनिया की तड़क-भड़क, और दूसरी ओर खेती-किसानी की सहज लेकिन उपेक्षित दुनिया। कहानी यहां से एक रूपक बन जाती है ऐसे लाखों युवाओं की जो कृषि पृष्ठभूमि से हैं लेकिन शहरी जीवनशैली ने उन्हें खेत की गंध से दूर कर दिया। ‘मिट्टी’ उन्हें यह एहसास दिलाती है कि खेती अब केवल बैलों और हल की बात नहीं रह गई बल्कि यह नवाचार, तकनीक और प्रबंधन का केंद्र बन चुकी है।
खेती अब केवल अनाज उगाने का जरिया नहीं रही, यह आत्मसम्मान और स्वावलंबन की भी कहानी है। जब राघव गांव लौटते हैं तो वह खेती के पुराने तौर-तरीकों को समझते हैं लेकिन साथ ही उसे नए दृष्टिकोण से देखते हैं। इस टकराव में जो ‘नई पहचान’ उभरती है, वह सिर्फ एक आदमी की नहीं, बल्कि उस पूरी युवा पीढ़ी की है जो अब खेती को एक ‘सम्मानजनक पेशा’ मानने लगी है। खेती में वैज्ञानिकता, डेटा एनालिटिक्स, मार्केट स्ट्रेटेजी और ब्रांडिंग जैसे तत्व शामिल हो चुके हैं। ‘मिट्टी’ यही बात संकेतों में कहती है कि अब किसान केवल हल नहीं चलाता, वह डिजिटल इंडिया का हिस्सा है।
सीरीज़ का यह पहलू बेहद महत्वपूर्ण है कि गांव अब केवल ‘माइग्रेशन का बिंदु’ नहीं रह गया है बल्कि यह एक ऐसी प्रयोगशाला बन सकता है जहां खेती के जरिए नवाचार और सतत विकास की नींव रखी जा सकती है। राघव जब गांव में बदलाव की कोशिश करता है तो उसे केवल खेत ही नहीं, लोगों की सोच भी बदलनी पड़ती है। यही भारत का आज का यथार्थ है। खेती तभी बदलेगी जब समाज की मानसिकता बदलेगी और मानसिकता तभी बदलेगी जब पढ़े-लिखे, प्रतिभाशाली युवा खेती को अपनाएंगे ना कि उसे छोड़ेगे।
‘मिट्टी’ में परोक्ष रूप से जैविक खेती, स्थानीय ब्रांडिंग, महिला किसानों की भागीदारी और कृषि-उद्यमिता जैसे विषय उठाए गए हैं। यह दिखाता है कि खेती अब एक अकेला काम नहीं बल्कि एक समन्वित सामाजिक-आर्थिक मॉडल है। एक उदाहरण के रूप में राघव द्वारा अपने गांव के उत्पादों को बाजार से जोड़ने की कोशिश इस ओर इशारा करती है कि कैसे खेती केवल खेत तक सीमित न रहकर, ब्रांडिंग और वैश्विक बाजार तक पहुंच बना सकती है। यह वर्तमान भारत की सबसे बड़ी जरूरत है ‘ फार्म टू मार्केट’ के बीच की खाई को भरना।
राघव का संघर्ष केवल एक पेशेवर और किसान के बीच का संघर्ष नहीं है, वह एक आधुनिकता और परंपरा के बीच की गहरी लड़ाई है। जब वह खेतों में खड़ा होता है तो उसे अपने दादा की सीख, मिट्टी की खुशबू और रिश्तों का भार महसूस होता है लेकिन जब वह गांव के लोगों से बात करता है तो उसे अहसास होता है कि खेती केवल भावना नहीं, प्रबंधन की भी मांग करती है। यह द्वंद्व हमें भी अपने आसपास देखने को मिलता है जहां कई लोग खेती से भावनात्मक रूप से तो जुड़े हैं, लेकिन उसे जीवन यापन का व्यावहारिक विकल्प नहीं मानते।
‘मिट्टी’ यही दर्शाती है कि भावनात्मक जुड़ाव और पेशेवर दक्षता जब एक साथ आती हैं, तभी खेती एक विकसित भारत की रीढ़ बन सकती है। ‘मिट्टी एक नई पहचान’ कोई प्रचार सामग्री नहीं है, न ही यह केवल मनोरंजन है। यह एक सांस्कृतिक पुकार है। उन लाखों युवाओं के लिए जो अपने पूर्वजों की जमीन से कट चुके हैं। यह कहानी हमें यह बताती है कि खेती केवल एक काम नहीं, यह जीवन-दर्शन है। और जब एक पढ़ा-लिखा युवा खेती की ओर लौटता है, तो वह केवल खेत नहीं जोतता, वह भविष्य को बोता है। आज जब भारत ‘विकसित राष्ट्र’ बनने की ओर बढ़ रहा है, तब हमें खेती को केवल ‘गरीब की मजबूरी’ नहीं, ‘राष्ट्र की पूंजी’ समझने की आवश्यकता है। ‘मिट्टी’ इसी सोच का अंकुरण है।