
जन्म के साथ ही प्रकृति मनुष्य को अपनी संरक्षण भरी अपनी गोद दे देती है. कुदरत ने उसे स्वच्छ जल, हवा, हरी – भरी पृथ्वी, निर्मल आकाश एवं अग्नि दिए हैं । इन्हीं पांच तत्वों से मिलकर पर्यावरण का निर्माण होता है।
धरती पर मानव जीवन का अस्तित्व एवं उसके वर्चस्व में इन पांचों तत्वों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है । मगर मानव ने ही पर्यावरण को इस कदर नुकसान पहुंचाया है कि आज पर्यावरण संरक्षण एक अहम मुद्दा बन गया है।
प्रकृति द्वारा प्रदत उपहारों को संरक्षित करना मानव का पहला धर्म है। ईसाई, इस्लाम, हिंदू, बौद्ध, सिख, जैन, यहूदी, बहाई आदि सभी धर्म पर्यावरण के संरक्षण की प्रेरणा देते हैं ।
आदि काल से ही धर्म और पर्यावरण में गहरा संबंध रहा है. उदाहरण के तौर पर बौद्ध धर्म का मत है कि सभी जीव जंतुओं एवं प्रकृति का सम्मान करना चाहिेए। इसी प्रकार बहाई धर्म का मानना है कि प्राकृतिक ऐश्वर्य और विविधता मानव जाति पर ईश्वर की कृपा है, अतः हमे इसकी रक्षा करनी चाहिेए । आइए, देखते हैं विभिन्न धर्मग्रंथ पर्यावरण संरक्षण के बारे में क्या कहते हैं।
हिंदू धर्म में तो प्रकृति को महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है ही । प्रकृति के विभिन्न रूपों को देवताओं का रूप माना गया है। हिंदू धर्म के अनुसार, जीवन पाँच तत्त्वों- क्षिति जल, पावक, गगन व समीर से मिलकर बना है। इसे पुष्ट करते हुए तुलसीदास रामचरितमानस में एक चौपाई में कहते भी हैं ‘छिति,जल ,पावक, गगन समीरा पंच रचित अति अधम सरीरा’ अब इनसे बना शरीर भले ही अधम हो पर इन पांचों तत्वों को सनातन हिंदू धर्म में देवताओं का स्थान दिया गया है क्योंकि यह मानव को बहुत कुछ देते हैं।
हिंदू धर्म में पृथ्वी को देवी का रूप माना गया है और इसके विभिन्न अंगों पर्वत, नदी, जंगल, वृक्ष, पशु-पक्षी आदि को दैवीय कथाओं व पुराणों से जोड़कर देखा जाता है। श्रीमद्भागवतगीता में भी कहा गया है कि ईश्वर सर्वव्यापी है तथा विभिन्न रूपों में सभी प्राणियों में विद्यमान है इसलिये व्यक्ति को सभी जीवों की रक्षा करनी चाहिये।
इस्लाम धर्म में भी कहा गया है कि, पृथ्वी का मालिक खुदा है तथा यहाँ इंसान की भूमिका ख़लीफा अर्थात् खुदा के न्यासी की है एवं इंसान का कार्य पृथ्वी और इसके विभिन्न अवयवों की रक्षा करना है। कुरान के अनुसार, सृष्टि की रचना जल से हुई है तथा जल को व्यर्थ करना इस्राफ (पाप) है। इसके अलावा किसी भी प्राकृतिक संसाधन का अनावश्यक उपयोग करना इस्लाम में वर्जित माना गया है।
ईसाई मत के मतानुसार भी सभी जीवों की रचना ईश्वर के प्रेम का रूप है तथा मानव को जैविक विविधता तथा ईश्वर के निर्माण को नष्ट करने का अधिकार नहीं है। ईसाई धर्म मनुष्य को सृष्टि के अन्य जीवों की रक्षा उत्तरदायी मानता है। इसके अलावा यह भी संसाधनों के सीमित उपयोग और उनके संरक्षण पर ज़ोर देता है।
बौद्ध धर्म भी पूर्णतः प्रेम, सद्भाव तथा अहिंसा पर आधारित है। बौद्ध धर्म ‘प्रतीत्यसमुत्पाद’ पर आधारित है जिसे करण-कारण का सिद्धांत भी कहते हैं। इसे हिंदू धर्म के कर्म के सिद्धांत के समान माना जा सकता है अर्थात् मानव के व्यवहार का प्रभाव उसके पर्यावरण पर पड़ता है। बौद्ध धर्म भी जीव संसाधनों के अतिदोहन को वर्जित करताा है और सभी जीवों की परस्पर निर्भरता में विश्वास करता है ।
जैन धर्म में अहिंसा को सर्वाधिक महत्व दिया गया है तथा किसी भी जीव-जंतु, वनस्पति आदि को नुकसान पहुँचाना वर्जित माना गया है। जैन धर्म के अनुयायियों के लिये प्रकृति व इसके सभी जीव जंतुओं को समान माना गया है तथा इनका संरक्षण और इनके प्रति समान व्यवहार करना जैन धर्म की मूल शिक्षा है। जैन धर्म में जीव जंतुओं की हत्या पर पूर्ण निषेध है इसी निषेध के चलते जैनी चौमास व्रत का भी पालन करते हैं।
सिखों के धार्मिक ग्रंथ गुरु ग्रंथ साहिब में कहा गया है कि संसार में स्थित सभी वस्तुएँ ईश्वर की इच्छा के अनुरूप ही कार्य करती हैं तथा ईश्वर उनकी रक्षा करता है। ‘गुरु ग्रंथ साहिब’ के अनुसार, सभी जीव-जंतु, वृक्ष, नदी, पर्वत, समुद्र आदि को ईश्वर का रूप माना गया है।
हिब्रू बाइबिल तोराह में प्रकृति के संरक्षण के लिये अनेक नैतिक बाध्यताएँ दी गई हैं। तोराह के अनुसार, “जब ईश्वर ने आदम को बनाया, उसने उसे स्वर्ग के बगीचे दिखाए और कहा मेरे कार्यों को देखो, कितना सुंदर है ये? मैंने जो भी बनाया है वह सब तुम्हारे लिये है। तुम्हें इसकी रक्षा करनी है और यदि तुमने इसे नष्ट किया तो तुम्हारे बाद इसे ठीक करने वाला कोई नहीं होगा।”
पर्यावरण व प्रकृति के संरक्षण के लिये विभिन्न धार्मिक समूहों द्वारा वैश्विक या स्थानीय स्तर पर प्रयास किये जा रहे हैं।
पाकिस्तान में स्थित कब्रगाहों में प्राचीन वृक्षों की प्रजातियाँ पाई जाती हैं क्योंकि इनको काटना गुनाह माना जाता है. लेबनान के मैरोनाईट चर्च ने हरीसा के जंगलों को पिछले 1,000 वर्षों से संरक्षित रखा है। थाईलैंड के बौद्ध भिक्षुओं ने संकटग्रस्त जंगलों की रक्षा हेतु वहाँ छोटे-छोटे विहारों की स्थापना की है तथा उन्हें पवित्र जंगल घोषित किया गया है । जर्मनी के चर्चों ने स्थानीय समुदायों के सहयोग से सौर ऊर्जा प्रणाली अपनाई है । अमेरिका में रहने वाले अफ्रीकी मूल के लोगों द्वारा’क्वान्ज़ा’ नाम का त्यौहार प्रकृति संरक्षण का एक उदाहरण है। इसी प्रकार स्वीडन के लूथरन चर्च के सहयोग से स्वीडन में नेशनल फॉरेस्ट स्टेवर्डशिप है।
वस्तुतः हम किसी भी धर्म का अनुशीलन करें परंतु यदि हम पर्यावरण को ही धर्म मान ले तो पर्यावरण की रक्षा स्वयं हो जाएगी।
आज की सबसे बड़ी ज़रूरत तो यही है कि भले ही हम किसी धर्म को मानें या ना मानें लेकिन पर्यावरण को सबसे बड़ा धर्म मानना ही हमारा सबसे बड़ा मानव धर्म हो। केवल नारों के भरोसे न रहकर प्रत्येक व्यक्ति का नैतिक कर्तव्य है कि वह पर्यावरण संरक्षण में अपना योगदान दे तथा पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने वाली गतिविधियों में न तो स्वयं शामिल हो एवं न ही अपनी जानकारी के चलते उन गतिविधियों को कहीं होने दे।