वह काला आपातकाल- बाद में पछताई थी इंदिरा गांधी

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डॉ घनश्याम बादल

25 जून 1975 की रात के 12:02 बजे, आकाशवाणी से एक संदेश प्रसारित हुआ  “राष्ट्रपति ने देश में आपात स्थिति लागू कर दी है”  और इसके साथ ही देश भर से विपक्षी नेताओं की गिरफ्तारी का लंबा दौर शुरू हो गया। सारा देश हस्तप्रभ था लेकिन किसी की हिम्मत नहीं कि विरोध करें और जिसने विरोध किया वह  जेल मे गया जहां उसे थर्ड डिग्री की यातनाएं  दी गईं। यह था देश में अंतरिक्ष सुरक्षा के नाम पर पहली बार लागू की गई इमरजेंसी का प्रभाव।

  आपातकाल लागू करने के लिए संवैधानिक औपचारिकताओं का भी पालन नहीं किया गया था संविधान के अनुसार देश में आपातकालीन स्थिति लागू करने के लिए मंत्रिमंडल की लिखित संस्तुति जरूरी होती है लेकिन न तो मंत्रिमंडल की बैठक बुलाई गई थी और न ही स्पष्ट रूप से यह बताया गया था कि आखिर देश की आंतरिक सुरक्षा को खतरा क्या था । इससे भी बढ़कर तत्कालीन राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद ने केवल प्रधानमंत्री की सिफारिश के आधार पर देश में आपातकालीन स्थिति के पत्र पर हस्ताक्षर कर दिए थे ।  हालांकि इस पर भी विवाद होते रहे हैं और कहा तो यहां तक गया कि आपातकालीन स्थिति की घोषणा पहले की गई एवं राष्ट्रपति से इस पर हस्ताक्षर बाद में कराए गए एक तरह से उन्हें बाध्य करके । ख़ैर इसमें कितना सच है यह कभी पता नहीं चला और न ही इसके चलने की कोई संभावना है।

यदि आपातकालीन स्थिति की पृष्ठभूमि पर एक नज़र डालें तो पता चलता है कि  तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के अनुसार देश में उस समय भारी अव्यवस्था, दंगे, धरने, प्रदर्शन और कानून तथा व्यवस्था की स्थिति इतनी खराब हो गई थी कि उसे नियंत्रण में करने के लिए आपातकालीन स्थिति लागू करना आवश्यक हो गया लेकिन विपक्ष के अनुसार यह इंदिरा गांधी ने केवल अपने स्वार्थ पूर्ति के लिए लगाई थी और उनका एकमात्र लक्ष्य अपनी अधिनायकवादी सत्ता को बनाए रखना था।

  जब इतिहास को खंगालते हैं तो जो बातें उभर कर सामने आती हैं उनमें सबसे प्रमुख था इलाहाबाद हाईकोर्ट का वह निर्णय जिसमें तत्कालीन न्यायाधीश जगमोहन लाल सिन्हा ने रायबरेली से इंदिरा गांधी के लोकसभा चुनाव में प्रतिद्वंद्वी राजनारायण की याचिका पर हुई सुनवाई के बाद अपने निर्णय में इंदिरा गांधी के 1971 के लोकसभा चुनाव में हुई विजय को अवैधानिक करार दे दिया था।‌  न्यायालय के अनुसार इंदिरा गांधी पर लगाए गए आदर्श आचार संहिता के उल्लंघन के आरोप सिद्ध हो गए थे और उन्हें परोक्ष रूप से सरकारी संसाधनों व केंद्र सरकार के अधिकारियों खास तौर पर प्रधानमंत्री के निजी सचिव यशपाल कपूर, तथा श्रीमती गांधी के संसदीय क्षेत्र के डी एम एवं पुलिसअधीक्षक द्वारा अपने अधिकारों का बेजां एवं पक्षपात पूर्ण इस्तेमाल करने का दोषी पाया गया था। इस निर्णय का सीधा सा मतलब था कि इंदिरा गांधी को प्रधानमंत्री का पद छोड़ना पड़ता जो वे किसी कीमत पर नहीं चाहती थी । ऐसी स्थिति में उन्होंने सभी नागरिक अधिकारों को निलंबित कर न्यायपालिका को पंगु बनाते हुए प्रधानमंत्री, लोकसभा अध्यक्ष, राष्ट्रपति एवं संसद की कार्रवाई को न्यायपालिका के विचार क्षेत्र से बाहर कर दिया था । एक तरह से यह भारत की लोकतांत्रिक व्यवस्था की मूल भावना का गला घोंटने जैसा था ।‌

  यदि   उस काले अध्याय पर निगाह डालें तो पता चलता है कि इंदिरा गांधी ने 1971 में पाक की विजय को अपने राजनीतिक लाभ के लिए जमकर इस्तेमाल किया और भारी बहुमत के साथ सत्ता में वापस लौटी थी। मगर इस बार वापसी के साथ उनका व्यवहार पूरी तरह बदला हुआ था तथा वह अपने बेटे संजय गांधी के साथ खुद को सभी नियम कायदों से ऊपर मानने लगी थीं । उनके चारों ओर एक ‘काकस’ इकट्ठा हो गया था और देश भर में ‘इंदिरा इज़ इंडिया और इंडिया इज़ इंदिरा’  का नारा गूंजने लगा था  लेकिन उच्च न्यायालय के इस निर्णय ने इंदिरा गांधी के सपनों को धराशाई कर दिया था और इस बात का पूरा अंदेशा  था कि न केवल उन्हें संसद की सदस्यता छोड़नी  पड़ती अपित जेल भी जाना पड़ता।

दूसरी और विपक्ष उच्च न्यायालय के इस निर्णय से अत्यधिक उत्साहित होकर सड़कों पर उतर आया और जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में बिहार से छात्र आंदोलन राजनीति को नई दिशा देने लगा था।  24 जून 1975 को राजनीति के इतिहास में संभवतः पहली बार एक ऐसी विशाल सभा हुई थी जिसमें तत्कालीन विपक्ष की सभी पार्टियों के नेता मंच पर थे और सब ने एकमत से इंदिरा गांधी के खिलाफ आंदोलन की घोषणा कर दी थी।  तब उन्होंने नारा दिया था ‘इंदिरा हटाओ, देश बचाओ’

 ऐसे हालात में देश में महंगाई एवं भ्रष्टाचार के साथ-साथ कानून एवं व्यवस्था भी हाथ से निकलती जा रही थी। मगर इसका नैरेटिव सत्ता पक्ष एवं विपक्ष अलग-अलग तरीके से तैयार कर रहा था।

 आपातकालीन स्थिति में लोकतांत्रिक मूल्यों को ताक पर रखते हुए तत्कालीन विपक्ष के ही नहीं अपितु कांग्रेस के भी इंदिरा विरोधी नेताओं को जेल में ठूंस दिया गया ।  लाखों की संख्या में छात्र नेता, सामाजिक कार्यकर्ता, व समाज सुधारक भी गिरफ्तार किए गए ।  न केवल जयप्रकाश नारायण अपितु मोरारजी देसाई, अटल बिहारी वाजपेई, लालकृष्ण आडवाणी, सुषमा स्वराज, अशोक मेहता, चंद्रशेखर, भैरोंसिंह शेखावत जैसे प्रभावशाली नेताओं को गिरफ्तार करके 21 महीने तक जेल में रखा गया । बाद में जॉर्ज फर्नांडिस ने तो यहां तक कहा कि जेल में उन्हें थर्ड डिग्री से भी आगे की यातनाएं दी गईं ।  जयप्रकाश नारायण को इतना प्रताड़ित किया गया कि उसके बाद वे डायलिसिस पर ही रहे सच कहा जाए तो डायलिसिस पर केवल जयप्रकाश नारायण नहीं अपितु  देश का लोकतंत्र चला गया था।

  इंदिरा गांधी ने लोकतंत्र को ‘अनुशासन पर्व’ कहा । उन्होंने अपने 20 सूत्री कार्यक्रम के अलावा संजय गांधी के पांच सूत्री त कार्यक्रम तथा कई आकर्षक नारों वाले पोस्टर जगह-जगह लगवाए।  कड़ी मेहनत, दूर -दृष्टि, पक्का इरादा, लग्न और अनुशासन जैसे लुभावने शब्दों का इस्तेमाल किया गया और आपातकाल के दिनों को ‘सबसे अच्छे दिन’ का नाम दिया गया आज जो नारा देश नरेंद्र मोदी के मुंह से सुन रहा है वह नारा तब इंदिरा गांधी ने ही दिया था । ऐसा ही एक दूसरा नारा था ‘सबका साथ सबका विकास’  लेकिन सच तो यह है कि इस काले युग में न विकास हुआ और न सबका साथ लिया गया ।  अपितु इंदिरा गांधी व उनके परिवार तथा समर्थकों का स्वर्णकाल रहा इस दौर में।

   यद्यपि यह नहीं कहा जा सकता है कि आपातकाल में लिए गए सारे ही निर्णय ग़लत थे लेकिन जिस तरीके से उन्हें लागू किया गया वह निश्चित रूप से ग़लत था।  उदाहरण के लिए जनसंख्या नियंत्रण के नाम पर जिस तरह जोर जबरदस्ती से नसबंदियां की गईं वह  घोर अमानवीय था सौंदर्यीकरण के नाम पर झुग्गी झोपड़ी हटाने की मुहिम ने लाखों लोगों को बेघर कर दिया गया, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता एवं मौलिक नागरिक अधिकार छीन लिए गए ।

 21 महीने के कार्यकाल में कितने ही संवैधानिक संशोधन किए गए जिनमें 42 वें संविधान संशोधन विधेयक ने सारी शक्तियां प्रधानमंत्री को दे दी थीं और नागरिकों के अधिकारों के साथ-साथ कर्तव्य  भी जोड़ दिए गए ।

 हालांकि इंदिरा गांधी ने बैंकों का राष्ट्रीयकरण, प्रिवीपर्स का खात्मा, जमींदारी प्रथा का उन्मूलन जैसे क्रांतिकारी कदम भी उठाए ।

लेकिन  जोर जबरदस्ती का जनता पर भारी विपरीत प्रभाव पड़ा और इसका बदला जनता ने 1977 के चुनाव में कांग्रेस ही नहीं अपितु इंदिरा गांधी को भी हराकर लिया हालांकि विभिन्न दलों का गैर वैचारिक जनता पार्टी नाम का संगठन केवल ढाई वर्षो में ही बिखर गया और 1980 में इंदिरा गांधी एक बार फिर सत्ता में लौट आई।

    इंदिरा गांधी को आपातकाल लगाने का पश्चाताप भी रहा उन्होंने इसके लिए देश से माफी भी मांगी । एक अच्छा काम उन्होंने अपना इस्तीफा देने से पहले यह किया था कि उन्होंने आपातकालीन स्थिति को हटा दिया ।

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