महाभारत कथा- इतना सामन्जस्य

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आओ बहन सत्यभामा!‘
कैसी हो द्रौपदी?‘
’ठीक हूं।‘
’मेरे मन में एक प्रश्न सदा ही उठता रहता है। मैं इसे सदा दबाए रखती हूं पर आज रहा नहीं जा रहा। पूछ ही लूं तुम से?‘
’हां, हां, क्यों नहीं।‘
’बहन पांचाली! बताओ, तुम पांच पतियों को एक साथ कैसे खुश रखती हो? उनके साथ कैसे निभाती हो? मेरा मतलब।‘
’मैं समझ गई तुम्हारी जिज्ञासा। सुनो। मैं पांच पांडवों की पत्नी स्वेच्छा से नहीं, मजबूरी से हूं। फिर भी मैंने पांचों को जिस रूप में देखा, वह बताती हूं।‘
’यही तो मैं जानना चाहती हूं। बता कर मेरी जिज्ञासा को शांत करो।‘
’सखी! सुन, मैंने सहदेव को मां को सा प्यार दिया। उसे मेरी गोद में लेट कर बड़ी खुशी मिलती है। मैं नकुल के लिए बहन की तरह शुभचिंतक बनी आ रही हूं। इसी में उसे परम सन्तोष मिलता है। भीम को सदा सेवक समझ कर उस से सहयोग लेती रही हूं। उसे भी मेरी आज्ञा का पालन करने तथा मेरी सेवा करने में आत्मिक शांति मिलती है। वह मेरी रक्षा करने के लिए सदा तत्पर रहा है। मैं भी उस के आचरण से प्रसन्न रहती हूं।‘
’अच्छा बाकी दो से कैसे निभाती हो?‘
’मैंने तन मन से केवल अर्जुन को  ही अपना पति माना है। बाकी सब को विवशता से निभा रही हूं। हां, अर्जुन ने मुझे सदैव पांच भागों में विभक्त पाया। इस बात का उसे सदा खेद रहा। तभी तो वह भी पांच हिस्सों में बंट कर पांच स्त्रिायों से देह-सुख पाता रहा है। मुझे इस का कभी दुःख नहीं हुआ। शेष रहे युधिध्ठिर! उन्होंने मुझे सदैव अपनी निजी चल-सम्पत्ति ही माना, तभी तो जुए में दांव पर लगा दिया।
’तुम धन्य हो। इतना सामन्जस्य व तालमेल बनाए रखना तुम्हारी तीव्र बुद्धि का प्रतीक है।‘
’मैं क्या हूं, यह निर्णय लेना तो मैं तुम्हीं पर छोड़ रही हूं। 

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