दूध के लिए बाजार पर निर्भर भारत

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भारत भले ही वर्ष 2023 में 230 मिलियन टन से अधिक दूध उत्पादन के साथ विश्व का सबसे बड़ा दुग्ध उत्पादक देश बना रहा, लेकिन यह एक विडंबना है कि आज भारत का समाज, विशेषतः ग्रामीण समाज, दूध जैसे मूलभूत पोषक आहार के लिए बाज़ार पर निर्भर होता जा रहा है।

 

गाय से ग्लास तक की यह यात्रा अब घरेलू नहीं रही। दूध अब पैकेट, ब्रांड और कीमतों का उत्पाद बन गया है। यह बदलाव सिर्फ खानपान की आदतों में नहीं, बल्कि आर्थिक व्यवस्थाओं, सामाजिक संरचनाओं और ग्रामीण आत्मनिर्भरता में भी गहरे बदलाव ला रहा है।

 

भारतीय समाज में दूध सदा से पवित्र माना गया है। यह न केवल पोषण का स्रोत है, बल्कि धार्मिक अनुष्ठानों, पर्व-त्योहारों और स्वास्थ्य परंपराओं का भी अभिन्न हिस्सा रहा है। आज से कुछ दशक पहले तक ग्रामीण भारत के अधिकांश घरों में एक-दो गाय-भैंस पालना सामान्य था। परिवार की जरूरत के अनुसार दूध की आपूर्ति घर पर ही होती थी। लेकिन आज भारत के 6 लाख गांवों में से अधिकतर गांवों के निवासी भी पैकेट वाले दूध पर निर्भर हो चुके हैं। राष्ट्रीय पशुगणना 2019 के अनुसार, 2012 की तुलना में ग्रामीण क्षेत्रों में दुधारू पशुओं की संख्या में गिरावट दर्ज की गई है। इसके पीछे कारण हैं – खेती का ह्रास, पशुपालन में युवाओं की रुचि की कमी, रोजगार का संकट, और बाजारवादी दृष्टिकोण।

 

आज दूध अमूल, मदर डेयरी, पराग, संतुष्टि, वरुण डेयरी जैसे ब्रांडों में बिक रहा है। भारत में दुग्ध प्रसंस्करण उद्योग 2023 तक ₹11.3 लाख करोड़ (लगभग $135 बिलियन) तक पहुँच चुका है, और एफएमसीजी सेक्टर में दूध व डेयरी उत्पादों का हिस्सा 18% से अधिक है। शहरी परिवारों के लिए दूध अब एक प्लास्टिक पैकेट है, जिसे कोई डिलीवरी बॉय सुबह दरवाजे पर रख जाता है। पर क्या यह दूध उसी गुणवत्ता और आत्मनिर्भरता का प्रतीक है जो कभी गाँवों में दिखता था?

 

छोटे और सीमांत किसान, जो भारत के 86% किसान वर्ग का हिस्सा हैं (नाबार्ड रिपोर्ट 2021), अब पशुपालन से दूर होते जा रहे हैं। कारण – न तो चारे की व्यवस्था, न पर्याप्त समय, न ही मुनाफा। इसका फायदा उठा रही हैं बड़ी व्यवसायिक डेयरियाँ, जो अत्याधुनिक मशीनों और तकनीकों से बड़े स्तर पर दूध निकालती हैं। इन डेयरियों में पशु अब पालतू नहीं, बल्कि एक ‘दूध मशीन’ है। यह मानवीय संबंधों को भी प्रभावित कर रहा है।

 

गांवों में कई छोटे किसान अभी भी 1 या 2 भैंसों से दूध निकालकर स्थानीय डेयरी या सहकारी समितियों को बेचते हैं। उन्हें औसतन ₹35–40 प्रति लीटर तक की दर मिलती है, जबकि यही दूध शहरों में ₹60–80 प्रति लीटर तक बिकता है। राष्ट्रीय डेयरी विकास बोर्ड  के अनुसार, किसानों को उनकी बिक्री का केवल 25–30% हिस्सा ही वास्तविक लाभ के रूप में मिलता है।

 

दूध का मूल्य निर्धारण अब किसानों के हाथ में नहीं रहा। अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में स्किम्ड मिल्क पाउडर की कीमतें, निर्यात-आयात नीति, और सरकारी सब्सिडी जैसे घटक दूध की दर तय करते हैं। यही कारण है कि कई बार किसान को उसका ही उत्पाद बाजार से महंगे दामों पर खरीदना पड़ता है – यह एक कटु विडंबना है।

 

 

राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण -5 के अनुसार (2019-21), भारत में 33.1% बच्चे कुपोषित हैं, 19.3% बच्चे गंभीर रूप से कम वजन के हैं। वहीं, दूध जैसे महत्वपूर्ण पोषक आहार की उपलब्धता अब केवल मध्यम और उच्च वर्गों तक सीमित होती जा रही है। सरकार की राष्ट्रीय पोषण मिशन जैसी योजनाएँ ज़रूरी तो हैं, लेकिन ज़मीनी स्तर पर इनकी पहुँच सीमित है।

 

भारत में दूध की मिलावट एक गंभीर समस्या बनी हुई है। एफएसएसएआई  2022 की एक रिपोर्ट के अनुसार, बाजार में बिकने वाला लगभग 68% दूध या तो मिलावटी है या मानकों पर खरा नहीं उतरता। इसमें पानी, डिटर्जेंट, यूरिया, सिंथेटिक मिल्क जैसे पदार्थ मिलाए जाते हैं। हर साल करीब ₹15,000 करोड़ का नुकसान मिलावट के कारण होता है, और स्वास्थ्य पर इसका प्रभाव दीर्घकालिक होता है।

 

 

पशुपालन को ग्रामीण आजीविका से पुनः जोड़ना होगा। गो-पालन केवल धार्मिक आस्था नहीं, व्यावहारिक आय का साधन बने।दुग्ध सहकारी समितियों को पारदर्शी और किसान-केंद्रित बनाना होगा। राष्ट्रीय डेयरी विकास बोर्ड जैसी संस्थाओं को जमीनी स्तर पर पहुंच बढ़ानी होगी। स्थानीय दूध उत्पादन और वितरण को बढ़ावा देना होगा। हर पंचायत या ब्लॉक स्तर पर छोटे डेयरी हब बनाए जाएं। सरकारी स्कूलों में मिड-डे मील में दूध को अनिवार्य किया जाए, ताकि बच्चों का पोषण स्तर सुधरे। उपभोक्ताओं को ‘स्रोत आधारित खरीद’ को प्राथमिकता देनी चाहिए। यदि दूध किसी स्थानीय किसान या दुग्ध समिति से लिया गया है, तो उसमें भरोसे का भाव ज्यादा होगा। दूध की गुणवत्ता की निगरानी के लिए स्थानीय प्रयोगशालाओं और मोबाइल टेस्टिंग यूनिट्स की स्थापना की जानी चाहिए। आज का बड़ा सवाल यह नहीं कि भारत दूध कितना पैदा करता है, बल्कि यह है कि क्या वह इसका न्यायसंगत उपभोग कर पा रहा है? क्या दूध उत्पादन में अग्रणी भारत, दूध उपभोग में आत्मनिर्भर है? क्या हमारा गांव, जो कभी दूध-दही से भरपूर होता था, अब हर सुबह डेयरी वैन का इंतजार करता है?

 

दूध केवल एक पोषक पेय नहीं है – यह एक सांस्कृतिक, सामाजिक और आर्थिक पहचान का प्रतीक है। इसे केवल ‘उद्योग’ नहीं, ‘विचार’ के रूप में देखा जाना चाहिए। यदि भारत को वास्तव में दुग्ध क्रांति की दूसरी लहर लानी है, तो उसे ग्रामीण भारत को दुग्ध उत्पादन की रीढ़ के रूप में पुनर्स्थापित करना होगा — एक ऐसी रीढ़ जो बाजार के नहीं, आत्मनिर्भरता के बल पर खड़ी हो।

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