
आज हम एक ऐसे युग में जी रहे हैं जहां आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (एआई ) न सिर्फ हमारी रोज़मर्रा की ज़िंदगी का हिस्सा बन चुकी है बल्कि अब यह हमारे निर्णयों, कामकाज और सोचने के तरीकों को भी प्रभावित कर रहा है। तकनीक की यह क्रांति अपने साथ अनगिनत संभावनाएं लेकर आई है—चाहे वो कोडिंग हो, रिपोर्ट लेखन, मेडिकल रिसर्च या फिर कानूनी सलाह। लेकिन जितना स्मार्ट यह सिस्टम बनता जा रहा है, उतना ही खतरनाक भी होता जा रहा है।
एआई की सबसे बड़ी समस्या यह है कि यह हमेशा सही नहीं होता। तकनीकी शब्दों में कहें तो जब एआई बिना किसी ठोस तथ्य के खुद से जानकारी गढ़ लेता है, तो उसे हैलूसिनेशन कहा जाता है। यह कोई सामान्य तकनीकी खामी नहीं, बल्कि एक गंभीर चेतावनी है—खासतौर पर तब जब इसका उपयोग संवेदनशील क्षेत्रों जैसे मेडिकल रिपोर्ट, कोर्ट केस या बिज़नेस एनालिटिक्स में किया जाए। ऐसे में एक छोटी सी गलती भी किसी की सेहत, न्याय या आर्थिक भविष्य को खतरे में डाल सकती है।
हाल ही में ऐसी ही एक घटना कर्सर नामक एक प्रोग्रामिंग टूल कंपनी में सामने आई। उनके एआई सपोर्ट बोट ने ग्राहकों को गलत जानकारी दी कि अब यह टूल केवल एक कंप्यूटर पर ही चलाया जा सकता है जबकि कंपनी की कोई ऐसी पॉलिसी नहीं थी। नतीजतन, कई ग्राहकों ने नाराज़ होकर अपने अकाउंट्स कैंसिल कर दिए। बाद में कंपनी को सफाई देनी पड़ी कि यह एक “एआई बोट की हैलूसिनेशन” थी।
यह मामला दिखाता है कि हम एक ऐसे दौर में प्रवेश कर चुके हैं जहां एआई न केवल सहायता करता है बल्कि गलत दिशा भी दिखा सकता है। गूगल जैमिनी, चैट जीपीटी और बिंग जैसे एआई टूल्स लाखों यूज़र्स की समस्याओं का समाधान करते हैं लेकिन उनमें भी गलतियां आम बात हैं। एक शोध के अनुसार, कुछ एआई मॉडल्स ने 79% मामलों में गलत जानकारी दी। ये आंकड़े सिर्फ तकनीकी चेतावनी नहीं हैं, बल्कि सामाजिक और नैतिक चिंता का विषय भी हैं।
एआई की गलतियों का प्रभाव तब और गंभीर हो जाता है जब ये हमारे सामाजिक, कानूनी या स्वास्थ्य से जुड़े मामलों में हस्तक्षेप करता है। उदाहरण के लिए, अगर कोई डॉक्टर एआई के सुझाव पर भरोसा कर गलत दवा लिख दे या कोई वकील एआई से प्राप्त गलत केस लॉ के आधार पर दलील पेश करे, तो परिणाम जानलेवा या अन्यायपूर्ण हो सकते हैं। इसलिए, एआई को किसी भी निर्णय का अंतिम स्रोत मानना घातक हो सकता है।
आज हम जिस डिजिटल युग में जी रहे हैं, वहां जानकारी ही शक्ति है। लेकिन अगर यह जानकारी गलत है, तो यह शक्ति विनाशकारी भी बन सकती है। सवाल यह है कि इस तेज़ तकनीकी दौड़ में हम कितना भरोसा करें और कितनी सतर्कता बरतें? इसका जवाब बहुत स्पष्ट है-भरोसे से पहले जांच ज़रूरी है। एआई एक अद्भुत सहायक हो सकता है, लेकिन अंतिम निर्णय अभी भी इंसानी विवेक, अनुभव और नैतिकता से ही लिए जाने चाहिए। एआई टूल्स को हमें दिशानिर्देश देने की अनुमति तो देनी चाहिए लेकिन उन्हें अंतिम जज बनने की छूट नहीं दी जा सकती।
एआई की कार्यप्रणाली आज भी आंकड़ों पर आधारित है न कि समझ पर। इसे यह नहीं पता होता कि सच क्या है और झूठ क्या। वह बस उपलब्ध डेटा से अनुमान लगाता है और जवाब देता है। यही कारण है कि हमें हर एआई-जनित जानकारी की पुष्टि करनी चाहिए, खासकर तब जब उससे किसी की ज़िंदगी, स्वास्थ्य या न्याय पर असर पड़ सकता हो। हमें टेक्नोलॉजी को अपनाने से डरना नहीं है लेकिन उसे आंख मूंदकर स्वीकार करना भी समझदारी नहीं है। एक ज़िम्मेदार समाज वही होता है जो नई तकनीकों का उपयोग विवेक और नैतिकता के साथ करे।
आख़िर में, यह याद रखना जरूरी है कि एआई का विकास मानव कल्याण के लिए हुआ है न कि मानव निर्णय को पूरी तरह हटाने के लिए। जब तक एआई यह नहीं समझता कि सच क्या है और झूठ क्या, तब तक इंसान की सोच, विवेक और मूल्यांकन क्षमता ही हमारे लिए सबसे बड़ी सुरक्षा कवच है।