
डॉ. बालमुकुंद पांडेय
जीवंत, निष्पक्ष एवं गतिमान संवैधानिक सरकार एवं मर्यादित लोकतंत्र के लिए निर्वाचन अति आवश्यक प्रक्रिया हैं । स्वस्थ ,स्वतंत्र ,निष्पक्ष एवं पारदर्शी चुनाव लोकोन्मुखी लोकतंत्र की आधारशिला हैं। निर्वाचन के इतिहास के आंकड़ों को देखने से स्पष्ट होता है कि प्रत्येक वर्ष किसी- न- किसी प्रदेश में चुनाव होता रहता हैं । चुनाव की इस निरंतरता के कारण राज्य ( देश) हमेशा चुनावी मोड(Election mode) में विद्यमान रहता हैं । इस कारण भारत की प्रशासकीय निकाय और नीतिगत निर्णय लेने वाली संस्थाएं प्रभावित होती हैं बल्कि देश के राजकोष पर अत्यधिक बोझ पड़ता हैं । इन सब बोझिल प्रक्रियाओं के निवारण के लिए निर्वाचन आयोग, नीति आयोग, विधि आयोग एवं संविधान समीक्षा आयोग ने लोकसभाओं एवं राज्यों की विधानसभाओं का निर्वाचन एक साथ करवाने का अनुशंसा किया था।’
एक राष्ट्र – एक चुनाव’ कोई नवीन वैचारिक आंदोलन नहीं है बल्कि 1952 ,1957, 1962 एवं 1967 के आम चुनाव में यह प्रक्रिया क्रियान्वित हो चुका हैं जब लोकसभाओं एवं राज्य विधानसभाओं के चुनाव एक ही साथ करवाए गए थे ‘. एक राष्ट्र- एक चुनाव’ कराने का प्रत्यय सर्वोत्तम हैं । इसके कारण लोकतांत्रिक व्यवस्था में राजनीतिक स्थायित्व (Political stability) प्राप्त होगा। इस प्रक्रिया को क्रियान्वित करने के लिए भारत के संविधान के अनुच्छेद 83 (संसद का कार्यकाल), अनुच्छेद 85( संसदीय सत्र को स्थगित करना एवं समाप्त करना), अनुच्छेद 172( विधानसभाओं का कार्यकाल) एवं अनुच्छेद 174( विधानसभाओं के सत्र को स्थगित करना एवं समाप्त करना) में संशोधन करना अति आवश्यक हैं। इसके क्रियान्वयन के लिए दो – तिहाई बहुमत से संविधान संशोधन की आवश्यकता पड़ेगी जिसे आम सहमति के आधार पर संशोधित किया जा सकता है।
‘एक राष्ट्र- एक चुनाव’ विकसित भारत की आधारशिला हैं । इससे राष्ट्र के प्रशासकीय संरचना एवं मानव संसाधन(Human resources) पर अनावश्यक बोझ नहीं पड़ेगा। राष्ट्र की प्रगति निष्पक्ष, स्वतंत्र एवं पारदर्शी तरीके से संपन्न चुनाव से होता हैं ,बार-बार होने वाले चुनाव से राजकोष पर अनावश्यक बोझ पड़ता हैं जिससे विकास की गति धीमी हो जाती हैं । संसदीय समिति ने संसद के दोनों सदनों में प्रस्तुत अपने प्रतिवेदन में कहा था कि देश के राजनीतिक व्यवस्था में लोकसभाओं एवं राज्यों के विधानसभाओं के चुनाव एक साथ होने पर राजकोष पर दबाव कम पड़ेगा बल्कि राजनीतिक दलों का व्यय कम होने के साथ-साथ मानव संसाधन (Human resources)का अधिकतम उपयोग किया जा सकेगा। इससे मतदान के प्रति मतदाताओं के उदासीनता कम होगी और सक्रियता बढ़ेगी। यह सर्वविदित है कि बार-बार चुनाव होने से प्रशासकीय व्यवस्था पर अत्यधिक असर पड़ता है।
स्वतंत्र , स्वस्थ एवं विकसित लोकतंत्र के लिए ‘ एक राष्ट्र- एक चुनाव ‘ अति आवश्यक हैं । यह लोकसभाओं एवं राज्यों की विधानसभाओं का एक साथ चुनाव करवाने का एक नीतिगत उपक्रम हैं। हमारे देश में ,केंद्र( संघ), सभी राज्यों एवं केंद्र- शासित- प्रदेश( राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली )और पुडुचेरी में जनता द्वारा निर्वाचित सरकारें काम करती हैं । इन निर्वाचित सरकारों का कार्यकाल 5 वर्ष होता हैं । (कार्यपालिका का विधायिका में विश्वास होने की स्थिति में अन्यथा अविश्वास की स्थिति में”मध्यावधि चुनाव “भी हो सकता हैं )।जब सरकार का कार्यकाल पूर्ण हो जाता है तो संवैधानिक परंपराओं के अनुसार चुनाव करवाना अनिवार्य होता हैं जिससे नई सरकार गठित किया जा सके एवं देश एवं संबंधित प्रदेश की शासकीय व्यवस्था संचालित किया जा सके।
चुनाव को संपन्न करने के लिए बहुत बड़े प्रशासकीय निकाय और धन की आवश्यकता होती हैं। संघीय स्तर (केंद्र स्तर के चुनाव), राज्य स्तर( इकाई स्तर) एवं जमीनी स्तर( मूल स्तर )के चुनाव के लिए बड़े तंत्र की आवश्यकता होती हैं । आम चुनाव के कारण लोकसभाओं के निर्वाचन एवं राज्य विधानसभाओं के निर्वाचनों के परिणाम स्वरुप ” आदर्श आचार संहिता” लंबे समय तक क्रियान्वित रहता हैं एवं इसके कारण विकास कार्यों एवं लोक कल्याणकारी परियोजनाओं को पूरा करने में प्रतिकूल प्रभाव पड़ता हैं । सामूहिक परिदृश्य में देखें तो हम पाएंगे कि देश का कोई ना कोई परिक्षेत्र चुनावमय रहता हैं ।देश के पहले चुनाव से लेकर अगले 15 सालों तक 1952, 1957, 1962 एवं 1967 में क्रमशः चार बार लोकसभा चुनाव हुए और संयोगवश इसी क्रम में विधानसभाओं के चुनाव भी लोकसभा चुनाव के साथ हुए थे लेकिन, 1968 – 1969 में विचारधारात्मक क्लेश (संघ और राज्यों में अलग – अलग विचारधाराओं की सरकार ) और सत्ता की राजनीति के कारण कुछ राज्यों के विधानसभाओं को उनके कार्यकाल समाप्त होने के पहले ही भंग कर दिया गया था जिससे एक साथ चुनाव प्रक्रिया बाधित हो गई थी । विदित हो कि पहली बार लोकसभा चुनाव निर्धारित समय से पहले कर लिए गए थे। चौथी लोकसभा का कार्यकाल 1972 तक था लेकिन आम चुनाव इसके पूरा होने के पहले 1971 मे करा लिए गए थे।
लोकसभा के चुनाव और राज्यों के विधानसभाओं के चुनाव एक साथ आयोजित होते तो देश के राजकोष पर अधिक दबाव नहीं पड़ता और सरकार द्वारा कल्याणकारी योजनाओं के वैकासिक अव्यय प्रदान किया जाता हैं । इस विषय पर सरकार प्रगतिशील मुद्रा में होती है तो विपक्ष इस पर असहयोग की मुद्रा में नजर आता हैं । विपक्ष इसको भाजपा का “सत्ता का केंद्रीकरण करने की योजना ” कहकर इसका विरोध कर रहा हैं ,जबकि जमीनी धरातल पर सत्यता यह हैं कि ‘ एक राष्ट्र- एक चुनाव ‘ की अवधारणा बहुत पुरानी हैं । समकालीन में इसकी प्रासंगिकता सर्वाधिक हैं क्योंकि चुनाव के कारण निर्वाचन आयोग पर बहुत अधिक दबाव हैं ।यह विचार राष्ट्रीय हित में गत्यात्मक अवधारणा में बदलकर राष्ट्र के विकास में उपादेयता दे रहा है।
चुनावी मामलों के विशेषज्ञ लंबे समयांतराल से ‘ एक राष्ट्र- एक चुनाव’ की प्रासंगिकता बतलाते रहे हैं। सन 1999 में विधि आयोग ने अपनी 170 वीं प्रतिवेदन में लोकसभा एवं राज्यों के विधानसभाओं को एक साथ चुनाव कराने की सहमत व्यक्त किए थे। प्रतिवेदन का एक संपूर्ण अध्याय इसी विषय पर केंद्रित हैं ।चुनाव सुधारो पर विधि आयोग के प्रतिवेदन को ” देश में सर्वाधिक अधिकृत अनुशंसा वाला प्रतिवेदन ” माना जाता है। ‘ एक राष्ट्र – एक चुनाव ‘ की संकल्पना के क्रियान्वयन होने से राजकोष पर पड़ने वाले चुनावी खर्च के बोझ को कम किया जाए जो विगत कुछ दशकों में निरंतर बढ़ता ही गया हैं । इसके अतिरिक्त थोड़े-थोड़े अंतरालों के पश्चात होने वाले चुनाव के दौरान “आदर्श आचार संहिता” क्रियान्वित होने से बहुत सारे विकास कार्य और लोकोन्मुखी कार्यक्रम बाधित होते हैं, इससे भी निवारण मिल सकता हैं ।
2019 के लोकसभा चुनाव में कुल 9000 उम्मीदवारों ने चुनाव लड़ा और लगभग 60000 करोड रुपए चुनावी व्यय आएं। समस्त विधानसभाओं में 4000 से अधिक सीटें हैं । एक लोकसभा सीट एवं इसके अंतर्गत आने वाली आठ विधानसभा सीटों के लिए दो अलग-अलग समय पर चुनाव होते हैं, ऐसे में यह खर्च दोगुना हो जाएगा लेकिन इन्हीं चुनाव को समवेत कराया जाए तो इस व्यय को काफी मात्रा में कम किया जा सकता हैं ,इससे जो धनराशि बचेगी उसका सदुपयोग शिक्षा, स्वास्थ्य, पर्यावरण संरक्षण ,शुद्ध पेयजल, गरीबी निवारण और लोक कल्याणकारी लक्ष्यों की पूर्ति के लिए कर सकते हैं।
‘ एक राष्ट्र – एक चुनाव ‘ के लिए सुझाव
‘ एक राष्ट्र – एक चुनाव’ विकसित भारत @ 2047 के लक्ष्य को पूरा करने में अत्यधिक सहयोगी होगा;
यह व्यवस्था मजबूत एवं स्थिर भारत के निर्माण में निर्णायक भूमिका निभाएगी ;
यह व्यवस्था राजनीतिक (राजनैतिक)स्थिरता ,सुशासन और राज्य( देश )के विकास को नवीन दिशा देने का माध्यम है;और
इससे जो धनराशि प्राप्त होगी उसको शिक्षा, स्वास्थ्य उन्नयन ,गरीबी निवारण , पर्यटन समृद्धि ,पर्यावरण विकास ,शुद्ध पेयजल एवं लोक कल्याणकारी कार्यों में निवेश किया जाएगा।
डॉ.बालमुकुंद पांडेय
राष्ट्रीय संगठन सचिव, अखिल भारतीय इतिहास संकलन योजना, दिल्ली।