पति परायणता, त्याग, सेवा, शील और सौजन्य की प्रतिमूर्ति माता सीता

0
sita

रामायण के अनुसार त्रेतायुगीन मिथिला नरेश राजा जनक की ज्येष्ठ पुत्री सीता का बिहार के मिथिला नाम से विख्यात स्थान में हुआ था। माता सीता का इस स्थान पर जन्म लेने के कारण यह स्थान आगे चलकर सीतामढ़ी नाम से प्रसिद्ध हुआ। सीता को जानकी, भूमिपुत्री, जनकात्मजा, रामवल्लभा, भूसुता, मैथिली, सिया आदि नामों से श्रीराम से संबंधित ग्रंथों में संबोधित किया गया है।

 मान्यतानुसार मिथिला के राजा जनक ने वैशाख मास के शुक्ल पक्ष में नवमी तिथि को खेतों में हल जोतते समय भूमि में अटके एक पेटी में इन्हें पाया था। कतिपय कथाओं के अनुसार राजा जनक और रानी सुनयना के गर्भ में इनके कलाओं एवं आत्मा की दिव्यता को महर्षि याज्ञवल्क्य द्वारा स्थापित किया गया तत्पश्चात सुनयना ने अपनी मातृत्व को स्वीकार किया और पालन किया। उर्मिला उनकी छोटी बहन थीं। राजा जनक की पुत्री होने के कारण ये  जानकी, जनकात्मजा अथवा जनकसुता तथा मिथिला की राजकुमारी होने के कारण यें मैथिली नाम से भी प्रसिद्ध है। भूमि में पाये जाने के कारण इन्हे भूमिपुत्री अथवा  भूसुता भी कहा जाता है। कालांतर में देवी सीता का विवाह अयोध्या नरेश राजा दशरथ के ज्येष्ठ पुत्र श्रीराम से स्वयंवर में शिवधनुष को भंग करने के उपरांत हुआ। उन्होंने अपने जीवन में नारी मर्यादा की अत्यंत उच्च गरिमामयी परंपरा में स्त्री व पतिव्रता धर्म का पूर्णरूप से पालन कर इतना बड़ा त्याग किया कि वह युगों-युगों तक पवित्रता शब्द की ही पर्याय बन गई। अपने समर्पण, आत्म बलिदान, साहस और पवित्रता के लिए तथा एक आदर्श नारी के रूप में वे आज भी जनमानस में उदाहरण के रूप में प्रस्तुत की जाती हैं। आज भी उनका नाम अत्यंत सम्मानपूर्वक, बहुत आदर और नमनीय रूप से स्मरण किया जाता है। त्रेतायुग में ही इन्हें सौभाग्य की देवी लक्ष्मी का अवतार कहा गया है।



श्रीराम कथा से संबंधित ग्रंथों के समग्र पठन, समीचीन अध्ययन, अनुश्रवण व चिंतन से सीता कथा सभी प्राणियों के पापों का नाश करने और सबका कल्याण करने वाली सिद्ध होती है। सभी की निर्धनता को दूर कर धन प्रदान करने वाली, अपने भक्तों की प्रत्येक इच्छा को पूर्ण करने में सक्षम विदेह अर्थात जनक राजा की पुत्री राघव अर्थात श्रीराम के आनंद का कारण है। भूमि की पुत्री व उसमें से प्रकट हुई विद्या का स्वरुप शिवरुपी यह प्रकृति ही है। पुलस्त्य ऋषि के वंशज रावण के अहंकार व शक्ति का अंत करने वाली माता सरस्वती के रूप में नमनीय है। वे आज भी सभी पतिव्रता नारियों की आधार बनी हुई हैं और सभी उनसे ही शिक्षा ग्रहण करती हैं। वे अपने पिता जनक की आत्मा हैं अर्थात उनके प्राणों में बसती हैं। इसीलिए लोग आज भी पापरहित, पवित्र, समृद्धि प्रदान करने वाली, सब पर कृपा बरसाने वाली श्रीहरि को अत्यधिक प्रिय माता सीता का नमन करते हैं। क्षीरसागर में लक्ष्मी के रूप में विराजित, सबको शुभ फल देने वाली, आत्मविद्या प्रदान करने वाली देवी के तीनों रूपों को नमन करते हैं। चंद्रमा की बहन के समान शीतल गुणों वाली सीता के रूप में सबसे सुंदर और धर्म रक्षक, करुणामयी व वेदों की माता मान उन्हें प्रणाम करते हैं। कमल पुष्पासिनी, हस्त कमल धारिणी, विष्णु हृदय निवासिनी देवी को चंद्रमा के आभामंडल में रहने और चंद्रमा के समान ही शीतल गुणों वाली मानते हैं। सभी को आनंद प्रदान करने, सिद्धि प्रदान करने वाली व भगवान शिव की सती, इस विश्व की जननी और श्रीरामचंद्र को आनंद प्रदान करने वाली सर्वगुण निपुना माता सीता का सदैव अपने हृदय से भजन करते हैं। श्रीराम कथा में सर्वत्र माता सीता त्याग, प्रेम, दया की प्रतीक हैं और उनका सम्पूर्ण जीवन इसके लिए ही समर्पित रहा। अपने पुनीत कर्मों के कारण वह युगों-युगों तक मानव जाति के लिए एक प्रेरणास्रोत बन गई हैं।  लोग आज भी उन्हें आदर्श मानकर उदाहरण देते हैं।

 

श्रीराम कथा में सीता माता के जीवन के संबंध में अंकित अद्भुत विवरणियों से उनकी महता का पता चलता है। माता सीता की भूमिका के अनुशीलन से मानव के अंदर प्रेम सहित त्याग की भावना विकसित होती है। उनकी कथा दूसरों का भला करने को प्रेरित करती है। मन शांत होता है। उसमें सकारात्मक विचार आते हैं। मन में पनप रही द्वेष, घृणा, तनाव, ईर्ष्या, लोभ, क्रोध इत्यादि की भावनाएं सभी समाप्त होने लगती है। मन प्रेम, स्नेह, दया, करुणा, त्याग, आध्यात्म की भावनाओं से भर जाता है। शांत मन से और उत्तम तरीके से अपना कार्य कर पाते हैं। वस्तुतः भारतीय वांग्मय में सीता भारतीय नारी भावना का चरमोत्कृष्ट चित्रण है। वाल्मीकि रामायण, रामचरित मानस सहित सपूर्ण रामकथा, नाना पुराण निगमागमों में व्यक्त नारी आदर्श सीता के रूप में सप्राण एवं जीवन्त हो उठे हैं। ऐसा कि स्त्री पात्रों में सीता ही सर्वाधिक विनयशीला, लज्जाशीला, संयमशीला, सहिष्णु और पातिव्रत की दीप्ति से दैदीप्यमान नारी नजर आती हैं। सम्पूर्ण रामकाव्य उसके तप, त्याग एवं बलिदान के मंगल कुंकुम से जगमगा उठा है। लंका में सीता को पहचानकर उनके व्यक्तित्व की प्रशंसा करते हुए हनुमान कहते हैं-

ऐसी सीता के बिना जीवित रहकर राम ने सचमुच ही बड़ा दुष्कर कार्य किया है। इनके लिए यदि राम समुद्र-पर्यन्त पृथ्वी को पलट दें तो भी मेरी समझ में उचित ही होगा, त्रैलौक्य का राज्य सीता की एक कला के बराबर भी नहीं है।

पत्नी व पति भारतीय संस्कृति में एक-दूसरे के पूरक हैं। आदर्श पत्नी का चरित्र हमें जगदम्बा जानकी के चरित्र में तब दृष्टिगोचर होता है, जब श्रीराम द्वारा वन में साथ न चलने की प्रेरणा करने पर वे अपना अंतिम निर्णय सुनाते हुए कहती हैं-
विषादग्रस्त होकर भी पत्नी अथवा पति को अपने जीवन-साथी का ध्यान रखना भारतीय सांस्कृतिक आदर्श है ।

 

सीता को अशोकवाटिका में रखकर रावण के द्वारा साम, दाम, दण्ड, भेद आदि उपायों से पथ-विचलित करने का प्रयास किए जाने पर सीता ने अपने पारिवारिक आदर्श का परिचय देते हुए केवल श्रीराम का ही ध्यान किया। वनगमन के अवसर पर सीता द्वारा उर्मिला के प्रति संवेदना प्रकट किए जाने के समय माता सुमित्रा सीता के चरित्र को मार्मिक उद्गारों में व्यक्त करते हुए कहती हैं-  

पति-परायणा, पतित भावना, भक्ति भावना, भक्ति भावना मृदु तुम हो, स्नेहमयी, वात्सल्यमयी, श्रीकृराम-कामना मृदु तुम हो।

सीता एक ओर भारतीय आदर्श पत्नी है, जिनमें पतिपरायणता, त्याग, सेवा, शील और सौजन्य है, तो दूसरी ओर वे युगजीवन की मर्यादा के अनुरूप श्रमसाध्य जीवनयापन में गौरव का अनुभव करने वाली नारी हैं। वे कभी अपना उदार हृदय व सहिष्णु चरित्र का परित्याग नहीं करती और न ही पति को दोष देती है, बल्कि इसे लोकोत्तर त्याग कहकर शिरोधार्य करती है व अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करती है। श्रीराम से संबंधित समस्त ग्रंथों में सीता के चरित्र का उज्ज्वलतम पक्ष प्रस्तुत हुआ है। वह श्रीरामकथा के केन्द्र में रहकर केन्द्रीय पात्र बनी हैं।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *