
तीर्थ भारतवर्ष की आत्मा हैं। प्रयागराज महाकुंभ के बाद चार धाम यात्रा शुरू हो चुकी है। भारतवर्ष के आत्म तत्व, जीवन तत्व, आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक तत्व एवं समग्रता में यदि भारत को जानना है तो तीर्थ एक महत्वपूर्ण माध्यम हैं। भारतभूमि समग्रता में देवभूमि है। यहां के कण कण में दिव्यता और भव्यता विद्यमान है। साक्षात प्रजापिता ब्रह्मा ने इस सृष्टि की रचना की है। हिमालय भगवान शिव का वास है तो क्षीरसागर में स्वयं भगवान विष्णु विराजते हैं। यही कारण है कि भारत की मूल चेतना आध्यात्मिक है। यहां न केवल मनुष्य अपितु जड़-चेतन सभी में परमात्मा का वास मानकर सभी के कल्याण की कामना की गई है। यही कारण है कि वैदिक चिंतन वसुधैव कुटुंबकम का उद्घोष करता है तो सर्वे भवंतु सुखिनः की कामना भी करता है। इसी प्रकार के मंत्र और उद्घोष यहां जन मन में संस्कार और विचार का निर्माण करते हैं।
यहां समष्टि कल्याण के लिए कहीं देव नदियां हैं, कहीं पर्वत हैं तो कहीं ऋषि, मुनि, संत और साधक निरंतर साधनारत रहते हैं। इस साधना के अथवा तप के बल से वह स्थान तीर्थ बनता चला जाता है। भारत में तीर्थ यात्रा की परंपरा अनादि है। समाज जीवन के लोग समय-समय पर ऐसे तप स्थलों अथवा तीर्थों पर जाकर साधनारत संतों के दर्शन करते हैं और उनके उपदेशों से ऊर्जा और सन्मार्ग का संदेश प्राप्त कर पुन: सांसारिक जीवन में जाकर अपने कार्य व्यापारों को पूरा करते हैं। विभिन्न तिथियां एवं पर्व उत्सवों पर स्वच्छ और निर्मल नदियों में स्नान सामान्य नहीं है अपितु उसमें संत और देव कृपा की दिव्यता विद्यमान रहती है।
तीर्थों की यह परंपरा स्वयं को पावन करने की परंपरा है। सर्वविदित है कि भारतीय ज्ञान, अध्यात्म एवं पूजा पद्धतियों पर अनेक बार हमले होते रहे हैं। विभिन्न मंदिरों के विध्वंश के बाद भी सनातन और अध्यात्म में जन आस्था बनी रही। परिणामस्वरूप वे स्थान पुनः अधिकाधिक दिव्यता और भव्यता के साथ पुनर्स्थापित हो रहे हैं। श्रीअयोध्या जी में बना भव्य और दिव्य श्रीराम मंदिर इस बात का प्रमाण है। आदि शंकराचार्य ने प्रश्नोत्तर रतनमालिका नामक रचना में लिखा है- किं तीर्थमपि च मुख्यम् ? अर्थात तीर्थ में मुख्य क्या है? अथवा तीर्थ यात्रा का महत्व क्या है? इसका उत्तर देते हुए वे लिखते हैं- चित्तमलं यन्निवर्तयति। अर्थात तीर्थ वह है जो मन की अशुद्धता को दूर करता है। यहां ध्यान रहे तीर्थ यात्रा केवल भौतिक यात्रा नहीं है अपितु यह मन की शुद्धि और वासनाओं से मुक्ति प्राप्त करना है।
इतिहास प्रसिद्ध है कि केरल के कालड़ी में जन्मे आदि शंकराचार्य ने अद्वैत वेदांत दर्शन और सनातन धर्म की रक्षा के लिए हजारों वर्ष पूर्व उत्तर में ज्योर्तिमठ बद्रीनाथ, दक्षिण में श्रृंगेरी पीठ,पश्चिम में शारदा पीठ तो पूर्व में गोवर्धन पीठ की स्थापना की। उन्होंने देश के विभिन्न स्थानों पर अपनी यात्राओं के माध्यम से जन जागरण के साथ-साथ मठ और पीठों की स्थापना की। उन्होंने वहां साधना की जिससे वे स्थान आध्यात्मिक केंद्र अथवा तीर्थ बन गए। आज भी इन तीर्थों पर प्रतिदिन लाखों श्रद्धालु पहुंचते हैं। ध्यान रहे तीर्थ वहीं है जहां ऋषि, मुनि एवं संत समाज साधनारत हैं। तीर्थों को तीर्थत्व संतों की साधना से ही मिलता है।
श्रीरामचरितमानस में गोस्वामी तुलसीदास ने अनेक स्थानों पर तीर्थराज प्रयाग के महत्व का उद्घाटन किया है-
सकल कामप्रद तीरथराऊ।
बेद बिदित जग प्रगट प्रभाऊ।।
वनवास के समय अयोध्या से निकलने के बाद श्रीराम, लक्ष्मण और सीता जी तीर्थराज प्रयाग सहित कई नदियों पर स्नान करते हैं और दिव्यता का अनुभव करते हैं। हाल ही में मां गंगा आरती के समय परमार्थ निकेतन ऋषिकेश के अध्यक्ष पूज्य स्वामी चिदानंद सरस्वती जी ने अपने उद्बोधन में कहा है कि- भारत की आत्मा तीर्थों में बसती है और तीर्थ वह हैं जो हमें पवित्र कर देते हैं, तीर्थ वही हैं जो हममें दिव्यता भरते हैं, तीर्थ वही हैं जो हमें तार देते हैं, तीर्थ में आने का यही मंतव्य है कि जीवन तीर्थ बने… तीर्थ हमें भीतर से जोड़ते हैं। विगत दिनों प्रयागराज स्थित संगम पर महाकुंभ समाप्त हुआ है जिसमें संत समाज के साथ-साथ देश विदेश के लगभग 67 करोड़ श्रद्धालुओं ने श्रद्धा और आस्था की डुबकी लगाई है। वहां पहुंचने वाला प्रत्येक व्यक्ति हर-हर गंगे, हर हर महादेव, जय प्रयागराज जैसे उद्घोष करता दिखाई दिया। हजारों संत लंबे समय तक निराहार रहकर साधनारत रहे।
अक्षय तृतीया के बाद से गंगोत्री, यमुनोत्री, बद्रीनाथ व केदारनाथ की चार धाम यात्रा शुरू हो चुकी है। देवभूमि उत्तराखंड स्थित ये चारों धाम अपनी दिव्यता-भव्यता, सकारात्मक ऊर्जा के लिए और साक्षात ईश्वर का वास होने से जगत प्रसिद्ध हैं। प्रतिवर्ष की भांति इस वर्ष भी यहां करोड़ों श्रद्धालु तीर्थ दर्शन के लिए पहुंचेंगे। ध्यान रहे जैसे-जैसे भौतिकता बढ़ रही है संसाधनों की अधिकता और अधिकाधिक पाने की महत्वाकांक्षा ने व्यक्ति के मानस को अशांत कर दिया है, ऐसे में स्वयं के और समूची मानवता के कल्याण हेतु तीर्थों का महत्व समझने, तीर्थ करने और तीर्थ बनने की आवश्यकता है।