काल की क्या मजाल जो विस्मृत करें बलिदान को

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कोई भी नगर, ग्राम निर्जीव संज्ञा नहीं होतां. उसे कुछ सौ या हजार वर्षों के इतिहास का मूक साक्षी अथवा कुछ लाख लोगों की उन्नत या विपन्न बस्ती मानना भी उनका सही मूल्यांकन नहीं हो सकता है। सब नहीं तो कुछ नगर अपने आप में इतिहास के ऐसे नायक होते हैं जिनके त्याग, समर्पण के समक्ष महानायक भी सिर झुका कर गौरवान्वित होते हैं।  इतिहास के अमिट पृष्ठों पर अपनी पहचान बनाने वाले नगरों में अमृतसर का नामोल्लेख होते ही मानस पटल पर उभर आते हैं- दरबार साहिब, जलियांवाला बाग, दुर्ग्याना मंदिर, रामबाग। शहर के हाल बाजार गेट पर लिखा, ‘अमृतसर सिफटी दा घर’ इस धरती की सिफटी (विशेषताएं) स्मरण कराता है।

 

जहां यह गुरु की नगरी है, वही स्वतंत्रता का तीर्थ भी है। जी हां, जलियांवाला बाग और हरमंदिर साहिब दोनों ही एक-दूसरे के निकट हैं। यदि इस संयोग पर गंभीरता से विचार किया जाये तो यह तथ्य हमारे सामने आता है कि पवित्र दरबार साहिब, हरमंदिर साहिब, स्वर्ण मंदिर जिन गुरुओं और उनके द्वारा आरंभ किये गये खालसा पंथ का प्रतीक है, उस खालसा ने भी भारत की धार्मिक स्वतंत्रता के लिए असंख्य बलिदान दिये हैं। स्वतंत्रता की रक्षा के क्रम में जालियांवाला बाग में हजारों हुतात्माओं ने बलिदान दिया। धार्मिक स्वतंत्रता और राजनीतिक स्वतंत्रता एक दूसरे की पूरक हैं। अतः हरमंदिर साहिब और जलियांवाला बाग का निकट होना मात्र संयोग नहीं, स्वाभाविक है।

 

अमृतसर नाम का उच्चारण ही हृदय को पवित्र करता है। अमृत के इस सरोवर ने भारतीयता को गौरवमयी पहचान दी। पंचनद की इस पवित्र नगरी ने इतिहास के अनेक स्याह और श्वेत अध्याय रचे हैं। खालसा पंथ की गरिमा और उच्च परम्परा की रक्षा के लिए बलिदान की कड़ी में देश की स्वतंत्रता के लिए 1919 की ख़ूनी वैसाखी को कौन भारतीय विस्मृत कर सकता है। अमृत सरोवर की नगरी को रक्त सरोवर बनाने वाले अंग्रेज जल्लाद डायर ने मानवता को शर्मसार करने की हद तक नीचता दिखाई।

 

यह किसी भावुक हृदय की अनुभूति नहीं, कठोर हृदय भी अमृतसर के जलियांवाला बाग में आकर भावुक हो जाये तो कोई आश्चर्य नहीं होगा। यह वह स्थान है जिसने स्वयं को दुनिया की सबसे सभ्य और सुसंस्कृत कौम बताने वालों के असली चेहरे को दुनिया के सामने बेनकाब किया था। शांतिपूर्वक सभा कर रहे लोगों पर बिना किसी चेतावनी के अंधाधुंध गोलियां बरसाने वाला जल्लाद अपनी करनी पर शर्मिदा नहीं था। इसीलिए तो उसने बार-बार कहा, ‘मेरे पास उस दिन 1,650 गोलियां ही थीं। अगर और अधिक होतीं तो ….!’ छह सप्ताह के बच्चे से वृद्ध तक को अपनी गोलियों का शिकार बनाने वाले से जब पूछा गया कि ‘छह सप्ताह के बच्चे से तुम्हें क्या खतरा था? उसे गोली का शिकार क्यों बनाया गया?’ उस अमानुष का उत्तर था, ‘ही डीड नाट आस्क फॉर मरसी he did not ask for mercy (उसने दया के लिए नहीं कहा था)’.  इससे भी बड़ा दुःखद आश्चर्य यह कि हंटर कमीशन से ब्रिटिश संसद तक डॉयर के कृत्य की निंदा करने वालों का अकाल था।

जहां तक मेरी स्मृति कारगर है, दस वर्ष का था तो अपनी पूज्य दादी के साथ वैशाखी के अवसर पर दरबार साहिब में दर्शन के बाद जलियांवाला बाग जाने का अवसर मिला। आज गलियारा योजना ने स्थिति को बदल दिया है लेकिन उस समय तंग रास्ते से होते हुए जब छोटे से गेट वाले एक बड़े मैदान में पहुंचे तो विशाल ‘अग्नि शिखा’ स्मारक से साक्षात्कार हुआ। यह जानकारी मिली कि भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद जी ने इस स्मारक को राष्ट्र को समर्पित किया था।

 

मैं आश्चर्यचकित था कि वहां भीड़ होते हुए भी एक अजीब किस्म का मौन पसरा हुआ था। ऐसा महसूस हो रहा था कि वह भीड़ आज भी गोलियों की आवाज़ के बीच स्वजनों के चीत्कार सुन रही थी। चारों ओर नज़र दौड़ाने पर दीवारों पर गोलियों के निशान और उसी मैदान में बने कुएं पर लगी पट्टिका 13 अप्रैल, 1919 (वैसाखी) के उस भयावह क्षण का स्मरण करा रही थी जब सैकड़ों लोगों ने गोलियों की बौछार से स्वयं को बचाने के लिए इस कुएं में छलांग लगाकर अपने प्राण बचाने का असफल प्रयास किया था। रोलेट ऐक्ट के विरोध के लिए इस मैदान में एकत्र भीड़ पर अंग्रेज अधिकारी जनरल डॉयर ने बिना किसी चेतावनी के गोलियाँ चलवा दीं। 1,650 राउंड फायर हुए जिससे धरती ख़ून से लथपथ लाल हो उठी। मारे गये लोगों की संख्या पर अनेक मत हैं। अमृतसर के डिप्टी कमिश्नर कार्यालय में 484 शहीदों की सूची है जबकि जलियांवाला बाग में लगी सूची में 388 शहीदों के नाम हैं। पंडित मदन मोहन मालवीय के अनुसार कम से कम 1,300 लोग मारे गए। स्वामी श्रद्धानंद के अनुसार मरने वालों की संख्या 1,500 से अधिक थी जबकि अमृतसर के तत्कालीन सिविल सर्जन डॉक्टर स्मिथ के अनुसार मरने वालों की संख्या 1,800 से अधिक थी।  ब्रिटिश अभिलेख इस घटना में 200 लोगों के घायल होने और 379 लोगों के शहीद होने की बात स्वीकारते हैं जिनमें से 337 पुरुष,  41 नाबालिग लड़के और एक छह सप्ताह का बच्चा था। अनेक वृद्ध और अक्षम भी मृतकों में शामिल थे।

 

भारतीयों के लिए जलियांवाला बाग स्वतंत्रता का तीर्थ है। बचपन से आज तक जब-जब अमृतसर जाने का अवसर मिला, इस तीर्थ की माटी को मस्तक पर लगाना नहीं भूला। जब-जब जलियांवाला बाग के कुंए में झांका मैंने अपने पंचभूत शरीर को वहां पाया। दीवार में लगी गोलियों के निशान मुझे अपने सीने से टकराती डॉयर की गोलियों सरीखे कष्ट देते है। कोई आश्चय्र नहीं, हर संवेदनशील भारतीय 1954 में बनी ‘जागृति’ फिल्म का कवि प्रदीप द्वारा रचित गीत ‘आओ बच्चों तुम्हें दिखाये झाँकी हिंदुस्तान की, इस मिट्टी से तिलक करो ये धरती है बलिदान की! वंदे मातरम!’ सुनते हुए स्वयं को जलियांवाला बाग में ही पाता है।

 

शायद ही कोई इस तथ्य से असहमत होगा कि यदि किसी एक घटना ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को सर्वाधिक प्रभावित किया तो वह जलियांवाला का जघन्य हत्याकाण्ड ही था। इसने उत्तर-दक्षिण, पूर्व-पश्चिम की सीमाओं को भुलाते हुए सम्पूर्ण भारत में स्वतंत्रता की ऐसी लहर उत्पन्न की जिसके सम्मुख अपराजित ब्रिटिश भी पराजित हो गये। जलियांवाला बाग़ नरसंहार को व्यापक रूप से भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन में महत्वपूर्ण मोड़ के रूप में देखा जाता है, जिसने अंग्रेजों के उस क्रूर और दमनकारी चेहरे को बेनक़ाब कर दिया जो अंग्रेजी राज को भारतीयों के लिए वरदान घोषित करता था।

 

इस हत्याकांड से गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर इतने विचलित हुए कि ब्रिटिश शासन द्वारा 1915 में प्रदत्त ‘नाइटहुड’ की उपाधि वापस लौटाते हुए तत्कालीन वायसराय लॉर्ड चेम्सफोर्ड को प्रेषित पत्र में उन्होंने कहा था, ‘जिस तरह हमें अपमानित किया गया है, अब उसे देखते हुए सरकार से मिले सम्मान के तमगे हमारे लिए लज्जा का विषय बन गये हैं। इसलिए मैं अपने देशवासियों की खातिर उन सब विशेष सम्मानों से वंचित होना चाहता हूं क्योंकि मेरे देशवासियों को इतना महत्वहीन समझा गया और उनसे ऐसा अपमानजनक व्यवहार किया गया जो मनुष्योचित्त नहीं कहा जा सकता।

 

स्वयं को सर्वाधिक सभ्य घोषित करने वालों की इस करतूत को जानना हर भारतीय का कर्तव्य है। जो कौम अपने बलिदानी धरती-पुत्रों को विस्मृत कर देती है, वह अपने भविष्य में भी अतीत के काले अध्याय की पुनरावृत्ति को सुनिश्चित करती है। इसलिए यह लेखनी जलियांवाला बाग के हुतात्माओं को बारम्बार प्रणाम करते हुए कहना चाहती है-

भारत माता के वीर बलिदानी सपूतों ! काल की क्या मजाल कि तुम्हें मार सके, तुम अमर थे! अमर हो! सदा अमर ही रहोगे!!
 

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