
भारतीय संस्कृति ने अपनी हजारों वर्षों की विकास यात्रा में मानवीय मूल्यों को गरिमा प्रदान करने की जो कला सीखी है, वह अद्वितीय है। मानवीय गरिमा में देवत्व के संस्कार के मुख्य स्रोतों के रूप में पर्वों, त्यौहारों, जयंतियों की ज्ञानगंगा यहाँ अविरल बहती आयी है। वैसे तो पर्व और जयंतियाँ विश्व के प्राय: हर भाग में मनायी जाती हैं, लेकिन हमारे देश में इनको मनाने के तरीके, दर्शन और आध्यात्मिक प्रवाह की जो सरसता है वह न सिर्फ भौतिक जीवन को अलौकिक रसों से सरावोर कर देती है, वरन् जीवनधारा प्रवाह को देवत्व से तादात्म्य स्थापित करने का प्रेरक उछाल भी देती है।
आज पतित पावन हनुमान जयंती का पर्व है। यह पतितों को, भूलों को, भटके हुओं को पवित्रता से, ओजस् से, ब्रह्मवर्चस से भर देने का पर्व है। व्यक्ति के जीवन में बल हो, पवित्रता हो, ब्रह्मचर्य हो, ज्ञान हो और भक्ति हो, सेवा हो तो व्यक्तित्व पूर्ण विकसित माना जा सकता है। इन सभी आध्यात्मिक गुणों की आराधना के लिए हनुमान जी श्रेष्ठ आदर्श हैं।
देवताओं में व्यक्ति को मनचाहा वरदान देने की सामथ्र्य होती है, पर शर्त यही है कि वह देवत्व का दर्शन समझे और उस फिलासफी को जीवन में उतारें। देवताओं जैसे व्यक्तित्व को हम अपने भीतर उतारना चाहें और महानता की ओर बढऩे का कुछ साहस रखते हों तो आत्मिक शिक्षण का यह पर्व हमें निहाल कर सकता है।
हनुमान जयंती वस्तुत: भक्ति की महानता का पर्व है। हनुमानजी भक्तों के आदर्श हैं। एक ऐसे भक्त जिन्होंने असुरता को समाप्त करने के लिए स्वयं को भगवान के काम में पूरी तरह समर्पित कर दिया। हनुमान एक ऐसे भक्त हैं, जो समर्पण से देवता हो गये। भक्ति शब्द संस्कृत व्याकरण के अनुसार, भज् सेवायां धातु से बना है। भक्त वह है जिसमें सेवा भावना भरी पड़ी हो। सेवा का महत्व बतलाते हुए संत तुलसीदास ‘विनय पत्रिका’ में लिखते हैं-
*सेवक भयो पवनपूत साहिब अनुहरत।*
*ताको लिये नाम राम सबको सुढऱ ढरत।।*
अर्थात् हनुमान जी सेवा करते-करते राम के ही समान हो गये, राम उनके इतने अनन्य प्रेमी हैं कि अब तो मात्र हनुमान का नाम भर लेने से वे प्रसन्न हो जाते हैं।
लेकिन इस भक्ति की पराकाष्ठा को प्राप्त करने के लिए सद्गुणों का विकास करना होता है। संत तुलसीदास ने हनुमान जी की वंदना करते हुए लिखा है –
*अतुलितबलधामं हेमशैलाभदेहं।*
*दनुजबनकृशानु ज्ञानिनामग्रगण्यम।*
*सकलगुणनिधानं वानराणामधीशं।*
*रघुवरप्रियभक्तं वातजातं नमामि।।*
अर्थात् अतुलित बल, असुरता के दांत तोड़ने में समर्थ, ज्ञानवान, विद्यावान तथा समस्त सद्गुणों के भण्डार और लोकनायक की विशेषताओं से वे परिपूर्ण थे। भक्त के गुणों के परिमार्जन पर बल देते हुए राष्ट्र संत पंड़ित श्रीराम शर्मा आचार्य ने इस प्रकार लिखा है-
”सुदृढ़ और सुविकसित व्यक्तित्व से ही भगवान का कार्य अधिक मात्रा में और अधिक अच्छा किया जा सकता है, यह मानते हुए ईश्वर परायण लोग क्षमताएँ, योग्यताएँ बढ़ाकर सतत अपना सर्वतोमुखी बलवर्धन करते रहते हैं। इस शक्ति संपादन की तप-साधना से भगवान प्रसन्न होते हैं और उस समर्थ भक्त को अधिक उत्तरदायित्व सौंपते हैं। हनुमान के बल और बुद्धि कौशल को देखते हुए राम ने उन्हें अधिक काम सौंपे और अपना प्रिय पात्र माना।”
प्रभु कार्य में बाधा बनकर तृष्णा रूपी सुरसा मुँह फाड़ती है। उसकी पूर्ति के लिए हनुमान जी अपना आकार बढ़ाते हैं। साधन जुटाते हैं, पर इस क्रम से पार नहीं पड़ता। आग में घी डालने की तरह तृष्णा रूपी सुरसा का मुँह बढ़ता ही जाता है। अंत में हनुमान अपना छोटा रूप बनाकर संतोष और अपरिग्रह का आश्रय लेकर उससे अपना पिण्ड छुड़ाते हैं। ईश भक्तों को विवेक का सहारा लेकर इसी प्रकार सासांरिक प्रलोभनों से अपना बचाव करना चाहिए।
मैनाक पर्वत थके हुए हनुमान को कार्यरत देखकर कुछ समय अपने ऊपर विश्राम करने का अनुरोध करता है, लेकिन हनुमान जी विश्राम में तनिक भी समय नहीं गंवाना चाहते हैं, हर क्षण भगवान का कार्य ही उन्हें अभीष्ट है। वे असमर्थता व्यक्त करते हुए कहते हैं –
*’राम काज कीन्हें बिना, मोहि कहाँ विश्राम।*
सीता माता की खोज, रावण को भगवान का संदेश सुनाना और उसका दंभ नष्ट करना, लंका दहन, संजीवनी बूटी लाना, अनेकों दुर्दान्तदैत्यों को यमलोक पहुंचाना, मेघनाथ का यज्ञ ध्वंस तथा रावण को अपने पराक्रम से अचेत कर देने जैसे असंभव कार्यों को उन्होंने खेल की तरह कर दिखाया।
वास्तव में हनुमान वह भक्त होता है, जिसने अपने मान का हनन कर दिया हो। ऐसे निर्मल संतों के साथ हर कार्य में भगवान होते हैं, इसके लिए फिर कोई भी कार्य असंभव नहीं रहता।
हनुमान जी के चरित्र से प्रबल भक्ति की प्रेरणा प्राप्त होती है। हम भी हनुमान जी की तरह शक्ति को, देवत्व को प्राप्त कर सकते हैं, लेकिन उसके लिए हमें भगवान के कार्यों से जुडऩा होगा।
आज यह विडम्बना ही कही जाएगी कि देश में लाखों मंदिरों में पूजा-अर्चना हो रही होगी, लेकिन हममें से कितने व्यक्ति भक्त हैं? आज असुरता का मुकाबला करने के लिए कितने व्यक्ति हनुमान बन पाये? असंख्य सीताओं का हरण हो रहा है, उनकी इज्जत खतरे में हैं, कितने हनुमान उनके रक्षक हैं? असामाजिक तत्व संगठित होकर आतंक फैला रहे हैं, उनका ध्वंस करने के लिए कितने व्यक्तियों में साहस पैदा हुआ है?
हमें हनुमान जी की फिर से आराधना करनी होगी। उनके बल की उपासना करनी होगी। बल पैदा हो तो भक्ति करें और ऐसी भक्ति करें कि समाज से रावणत्व का फिर से समूल नाश हो जाय। सुरसा को जीतना होगा, मैनाक को ठुकराना होगा, कालनेमि जैसे धूर्तों के बहकावे से बचना होगा, तब हम ‘श्रीराम’ के सच्चे सहायक बन सकेंगे और उनका भागवत कार्य कर सकेंगे। भगवान ने हमेशा मदद दी है और वह सदैव देते रहेंगे- उनका वचन है।
आइए हम हनुमान जी से भक्ति सीखें और सच्चे भक्त बनने का हनुमंत संकल्प लें। श्रीराम का कार्य करके उनके प्रिय बनें और उनके प्रियपात्रों में हम भी उसी प्रकार सम्मिलित हों जायें जिस प्रकार हनुमान जी हुए हैं।