नेपाल में राजनीतिक अस्थिरता, जोर पकड़ रही राजशाही की मांग

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 साल 2008 में राजशाही ख़त्म कर पड़ोसी देश नेपाल में गणतांत्रिक राज्य की स्थापना को 17 साल ही हुए हैं। संविधान को 10 साल भी पूरे नहीं हुए लेकिन 14 सरकारें बदल गई हैं। इस दौरान कोई भी चुनी हुई सरकार अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर सकी है। जनता को लगने लगा है कि विचारधारा गौण हो चुकी है। राजनीतिक दल सिर्फ सत्ता के स्वार्थ में बेमेल गठबंधन करते हैं। लोगों का गुस्सा केवल नेताओं से ही नहीं, पूरे लोकतांत्रिक ढांचे से है। लोग पुराने राजशाही शासन के दिनों को याद कर रहे हैं। उनका मानना है कि उस समय देश अधिक स्थिर और सुरक्षित था।

निराशा के इस माहौल में नेपाल में  राजशाही की वापसी के अलावा हिंदू राष्ट्र बनाने के लिए भी आवाज़ें उठीं हैं। फिलहाल वहां हिंसक प्रदर्शन हो रहे हैं। इनमें दो लोगों की मौत हो गई और दर्जनों घायल हुए हैं। एक विवादित चेहरा-54 साल के दुर्गा प्रसाई इस आंदोलन की अगुवाई कर रहे हैं। झापा जिले में हॉस्पिटल चलाने वाले प्रसाई तीनों बड़ी पार्टियों- नेपाल कांग्रेस, माओवादी पार्टी और नेशनल कम्युनिस्ट पार्टी में रह चुके हैं। उनका अतीत नेपाल में 1996 से 2006 तक चले गृहयुद्ध से भी जुड़ा है। बताया जाता है कि तब दुर्गा प्रसाई दूध की गाड़ियों में माओवादी लड़ाकों के लिए हथियारों की तस्करी करते थे। वहीं अब करीब 19 साल बाद राजशाही की बहाली के लिए चल रहे आंदोलन का सबसे बड़ा चेहरा बनकर उभरे हैं।

गत 28 मार्च को काठमांडू में हुए प्रदर्शन का नेतृत्व दुर्गा प्रसाई ही कर रहे थे। नेपाल पुलिस ने प्रदर्शन के लिए एक एरिया तय कर दिया था। आरोप है कि दुर्गा प्रसाई ने बैरिकेडिंग तोड़ दी और पार्लियामेंट हाउस और सेक्रेटेरिएट बिल्डिंग-सिंह दरबार की तरफ बढ़ने लगे। भीड़ उनके पीछे-पीछे चल दी। पुलिस ने भीड़ को संभालने के लिए आंसू गैस के गोले छोड़े और पैलेट गन चलाई। इसके बाद हिंसा भड़क गई, जिसमें दो लोग मारे गए। प्रदर्शन के बाद दुर्गा प्रसाई भूमिगत हो गए। उनकी कार भारत के बॉर्डर से करीब 20 किमी पहले मिली है।

भ्रष्टाचार और बेरोजगारी है लोगों की बेचैनी का कारण

नेपाल में राजशाही खत्म होने के बाद भ्रष्टाचार ने गहरी जड़ें जमा ली है और आम जनता को रोजाना भ्रष्टाचार का सामना करना पड़ता है। इसके अलावा अर्थव्यवस्था की रफ़्तार धीमी है। जीडीपी का क़रीब एक चौथाई हिस्सा विदेशों में रह रहे नेपाली लोगों से आता है। बेरोजगारी से परेशान युवा देश छोड़कर जाने के मौक़े तलाश रहे हैं। नेपाल सरकार की रिपोर्ट के मुताबिक, 2023 में देश में बेरोजगारी दर 12.6 % रही। यानी 2018 से 2023 तक देश की बेरोजगारी दर में 1.2% का इजाफा हुआ। 2023 में एवरेज हर महीना 65 हजार युवाओं ने देश छोड़ा और काम की तलाश में बाहर गए। 23-24 लाख लोग नेपाल छोड़ कर विदेशों में नौकरी कर रहे हैं। 3 करोड़ आबादी वाले देश के लिए यह बहुत बड़ा नंबर है।  

 

सत्ता के लिए पार्टियां हर समझौता कर रहीं

नेपाल में 2008 में लोकतंत्र की शुरुआत हुई थी। बीते 17 साल में 14 बार सरकार बदल चुकी है। आंदोलनकरियों का कहना है कि लोग लोकतंत्र की वजह से नहीं, इसकी खामियों से नाराज हैं। संसद में अलग-अलग राजनीति दलों में मतभेद के कारण देश का विकास नहीं हो रहा। एक बंटी हुई संसद आमतौर पर कोई एकतरफा फैसला नहीं ले सकती है। वहीं, एक राजा तेजी और अकेले किसी भी फैसले को आसानी से ले सकता है। उनकी मांग है कि देश की स्थिरता के लिए नेपाल में संवैधानिक राजतंत्र की बहाली हो।

यह हैं मौजूदा राजनीतिक हालत

नेपाल में तीन सबसे बड़ी पार्टियां हैं। नेपाली कांग्रेस, नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी और नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी)। यही तीन पार्टियां नेपाल में सरकार बनाती हैं। मौजूदा प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी के नेता हैं। उनकी पार्टी का नेपाली कांग्रेस के साथ गठबंधन है। दोनों पार्टियां एक दूसरे की विरोधी रही हैं। भारत के लिहाज से देखें तो ये भाजपा और कांग्रेस के साथ आने जैसा है। यही वजह है कि नेपाल के लोग मानते हैं कि सत्ता के लिए पार्टियां किसी के भी साथ सरकार बना लेती हैं। राजशाही के समर्थन में हो रहे प्रदर्शन इन तीनों पार्टियों के खिलाफ हैं। सांसदों के लिहाज से 5वें नंबर की पार्टी राष्ट्रीय प्रजातंत्र पार्टी  (आरपीपी) राजतंत्र की बहाली के लिए खुलकर सामने आ गई है। इसके 13 सांसद हैं और 2022 में हुए चुनाव में उसे करीब 5% वोट मिले थे। पार्टी को नेपाल के पूर्व राजा ज्ञानेंद्र शाह खुलकर तो समर्थन नहीं करते लेकिन माना जाता है कि आरपीपी को उन्हीं का सपोर्ट है। संसद में कुछ पार्टियां खुले तौर पर संवैधानिक राजतंत्र का सपोर्ट करती हैं। बड़ी पार्टियों जैसे नेपाली कांग्रेस, नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी , नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) के कई नेता राजशाही और हिंदू राष्ट्र की बात करते रहते हैं। इतिहास में नेपाल के सारे आंदोलन पार्टियों ने किए हैं। इस बार ये पॉलिटिकल से ज्यादा सोशल मूवमेंट बन गया है। भले आरपीपी कह रही है कि वो ये प्रदर्शन कर रही है लेकिन वो इस आंदोलन का एक हिस्सा भर हैं।

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