
प्राचीन राजपूताना अब राजस्थान कहलाता है। इस प्रदेश के जनपद सवाई माधोपुर में मुख्यालय से कुछ ही दूर पर श्री महावीर जी का मंदिर अवस्थित है। वास्तव में गोमाता की कृपा से यहां भगवान महावीर की प्रतिमा का प्राकट्य हुआ था, जिन्हें यहां विराजमान कराया गया। सारे भारत की तरह राजपूताना (राजस्थान) में भी छोटे-बड़े रियासती राज्य कायम थे। भारत वर्ष की राजनीतिक एकता विदेशी शासकों के आधीन थी। ऐसे ही समय में 18वीं सदी ई. के मध्य की यह एक चमत्कारी घटना है। ग्राम चांदनपुर गम्भीर नदी के तट पर बसा हुआ था, जहां एक चतरा मोची का निवास था। उसके परिवार में महत्वपूर्ण थी उसकी धर्मपत्नी लक्ष्मी एवं गाय धोरी। नित्य दिन धोरी गाय को चराने के लिए चरवाहा ग्वाला ले जाता था और शाम को आकर धोरी अच्छी मात्रा में दूध देती और पुन: प्रात: भी दूध देती जिससे चतरा का सपरिवार पालन-पोषण हो जाता था।
लेकिन एक दिन धोरी ने दूध देना बन्द कर दिया। कई दिन तक जब गाय ने दूध नहीं दिया तब चतरा चिन्तित हो उठा। तब उसने पत्नी लक्ष्मी को कहा कि हमें यह ज्ञात करना ही होगा कि घोरी के दूध न देने का कारण क्या है? चतरा व लक्ष्मी चुपचाप धोरी के पीछे पीछे चले। ग्वाला सभी गायों को लेकर चराने सदा की भांति ही गया। इसी बीच धोरी एक ओर चल पड़ी। वह गम्भीर नदी के तट पर स्थित एक छोटे से टीले पर खड़ी हो गई और चारों थनों से दूध की धारा गिराने लगी। ऐसा लग रहा था कि गोमाता वहां भूमि का अपने दूध से अभिषेक कर रही है। दूसरे दिन चतरा ने गाय को जाने से रोकना चाहा, पर गाय न रुकी और सीधे उसी टीले पर दूध की धार छोड़कर ही मानी। तब चतरा ने लक्ष्मी व ग्वाले से कहा कि अवश्य ही उस टीले के भीतर कोई दिव्य परमात्म तत्व विराजमान है, जिसका खुदाई करके पता करना ही चाहिए। तब उन्होंने वहां की सावधानी पूर्वक खुदाई की तो भगवान महावीर की देव प्रतिमा निकल पड़ी। उन्होंने यह बात चांदनपुर वासियों को बताई। सबने मिलकर तय किया कि एक भव्य मंदिर बनाया जाए और उसमें भगवान महावीर को बैठाया जाए। मंदिर बनकर तैयार हुआ तो लोगों ने बैलगाड़ी पर मूर्ति को रखकर लाना चाहा, परन्तु मूर्ति अपने स्थान से टस से मस नहीं हुई। कई बैलगाड़ियां लगाकर सभी गांव वासियों ने मिलकर प्रयास किया तब भी सफलता हाथ न लगी। तब अकस्मात धोरी गाय वहां आ गई और रम्भाने लगी। चतरा भी पहुंचा तो धोरी उसकी धोती मुंह से पकड़कर मूर्ति के निकट ले आई। अब चतरा ने जैसे ही मूर्ति को उठाने के लिए हाथ लगाया तो मूर्ति उसके स्पर्श से ही उठ गई और लोग बैलगाड़ी में लादकर मूर्ति को मंदिर तक लाए और चतरा के साथ ही मूर्ति को मंदिर के भीतर प्रतिष्ठित किया। विधि विधान से प्राण प्रतिष्ठा की गई और भगवान श्री महावीर यहां पूज्य हो गए। उक्त स्थान तीर्थ स्थल बन गया। इस प्रकार गौमाता की कृपा से संसार ने भगवान महावीर के प्राकट्य का सौभाग्य प्राप्त किया।