
महावीर स्वामी के वचन या उनकी प्रेरक वाणी सम्पूर्ण मानवीय जीवन दर्शन या जीवन-संस्कृति से अनुगुंजित है, जो मुख्यतया अहिंसा, अपरिग्रह और अनेकान्त की त्रयी पर आधारित है। महावीर स्वामी के वचनों के अनुसार दृष्टि निपुणता तथा सभी प्राणियों के प्रति संयम ही अहिंसा है। दृष्टि निपुणता का अर्थ है सतत् जागरुकता तथा संयम का अर्थ है मन वाणी और शरीर की क्रियाओं का नियमन। जीवन के स्तर पर जागरुकता का अर्थ तभी साकार होता है, जब उसकी परिणति संयम में हो। संयम का लक्ष्य तभी सिद्ध हो सकता है, जब उसका जागरुकता द्वारा सतत् दिशानिर्देश होता रहे। लक्ष्यहीन और दृष्टिगत संयम अर्थहीन काया क्लेश मात्र बनकर रह जाता है।
महावीर स्वामी के सन्देशों मेें प्रतिबिम्बित श्रमण संस्कृति के संदर्भ में, ज्ञान दृष्टि के आधार पर जीवन चर्चा का संयमन ही तात्विक संयम है। जीवन चर्चा के संयमन के बिना मानव जाति में एकता की प्रतिष्ठा तथा विलास वैभव का नियंत्रण सम्भव नहीं। एकता और समता, संयम और नियंत्रण के अभाव की स्थिति में हिंसा की प्रवृत्ति को प्रोत्साहन मिलता है, जिससे जनता का दु:ख बढ़ता है। इसलिए महावीर स्वामी ने दूसरों के दु:ख को दूर करने की धर्मवृत्ति को अहिंसा धर्म कहा है ‘परस्स अदुक्खकरणं धम्मो।’ (वसुदेवहिण्डी)
महावीर स्वामी ने अपनी वाणी से सम्पूर्ण मानव जाति को एकता का संदेश दिया। उन्होंने कहा है जन्म से कोई किसी जाति का नहीं, कर्म से उसकी जाति का निर्धारण होता है। ब्राह्मण, क्षत्रिय और शूद्र ये सब जन्मना नहीं, कर्मणा होते हैं (उतराध्ययन सूत्र)। तात्पर्य यह कि कर्म की शुचिता और अशुचिता के आधार पर ही मनुष्य की उच्चता या नीचता निर्भर होती है। उसमें जन्म से हीन या उच्च जैसा भाव नहीं है। प्रत्येक वाणी, चाहे वह छोटा-सा कीड़ा हो या आदमी, आत्मसत्ता के स्तर पर समान है, उसमें अनुर्निहित सम्भावनाएं समान हैं।
महावीर के वचनों में अनुध्वनित अपरिग्रह तथा अहिंसा के संदेश मनुष्य की वर्तमान आर्थिक और सामाजिक आकांक्षाओं को ऊपर उठाने में अधिकाधिक कामयाब सिद्ध हो सकते हैं। उन्होंने अपरिग्रह के व्रत पर इसलिए बल दिया है कि वह जानते थे कि आर्थिक असमानता और आवश्यक वस्तुओं का अनुचित संग्रह सामाजिक जीवन को विघटित करने वाला है। महावीर स्वामी ने ऐसे समाज घातक परिग्रहवाद के विरोध में आवाज उठाई और अपरिग्रह के सामाजिक मूल्य की स्थापना की। ‘परस्परोग्रहों जीवानाम्’ अर्थात् जीवों के प्रति परस्पर उपकार की भावना ही उनकी साधना का लक्ष्य था और उसका प्रतिफलन उनके मूल्यवान वचनों में हुआ है।
महावीर स्वामी का वचन है कि सत्य अनन्तमुख है। अपने को ही एकान्तिक रूप से सही मानना और दूसरे को गलत समझना सत्य का अनादर करना है। किसी को सर्वथा गलत मानना वैचारिक स्तर पर हिंसा है, उनकी जीवन सत्ता को अस्वीकार करना है। उनका कथन है कि सापेक्ष स्तर पर सत्य को उसके सन्दर्भों में देखा जाए और उन सन्दर्भों में उन्नत हित रूपों द्वारा उसे सम्मानित किया जाए।
एकत्व में अनेकत्व तथा अनेकत्व में एकत्व यानी उभयात्मक दृष्टि ही वास्तुसत्य के सही अभिज्ञान या सम्यग्ज्ञान में समर्थ होती है। हाथी के पैर, पूंछ, सूंड और कान को टटोलकर एक-एक अवयव को ही हाथी मानने वाले जन्मान्ध लोगों का अभिप्राय मिथ्या होता है पर हाथी के समस्त अवयवों के समुदाय को हाथी के रूप में पहचान करने वालों की दृष्टि होती है।
महावीर स्वामी के वचनों में निहित अहिंसा, अपरिग्रह और अनेकान्त के तत्व निश्चय ही उनके द्वारा किए गए सामाजिक विकास के तथ्यान्वेषण की युगान्तरकारी परिणति है। कोई भी आत्मसाधक महापुरुष लौकिक सामाजिक व्यवस्था के आधारभूत तत्वों की उपेक्षा नहीं कर सकता। महावीर स्वामी ने पददलित लोगों को सामाजिक सम्मान देकर उनमें आत्माभिमान को जगाया। उन्होंने अपने वचनों को बराबर अपने ही जीवन में उतारने का प्रयास किया। वह बराबर आत्मपर्यवेक्षण और आत्मपरीक्षण के दौर से गुजरते रहे। उनकी कथनी और करनी, यानी कर्म और वाणी में एकता थी, इसलिए उनकी संदेश वाणी अनेक स्वयं भुक्त जीवनानुभव की ही मार्मिक अभिव्यक्ति है।
महावीर ने अपनी क्षमावाणी में कहा है कि मैं सभी जीवों को क्षमा करता हूं और सभी जीव मुझे क्षमा करें। मेरी सभी जीवों से मैत्री हो। किसी के साथ मेरा वैर न हो।
उन्होंने प्राणी हिंसा की वर्जना करते हुए कहा, सभी जीव जीना चाहते हैं, मरना कोई नहीं चाहता, इसलिए क्रूर प्राणी हिंसा का सर्वथा परित्याग कर देना चाहिए।
पाप कार्य से बचने का उपदेश देते हुए उन्होंने कहा, जिस कर्म से पाप की उत्पत्ति हो, उसको कभी स्वीकार न करें। पाप कार्यों से बचकर अपनी आत्मा को ऊंचा उठाएं। शारीरिक क्लेशों से ग्रस्त होने पर भी उद्विग्न न होकर उन्हें धीरता से सहन करें।
आत्मा के अस्तित्व की घोषणा करते हुए महावीर स्वामी ने कहा जो आत्मा है, वह विज्ञाता है। जो विज्ञाता है, वह आत्मा है। जिससे जाना जाता है, वह आत्मा है। जानने के सामर्थ्य द्वारा ही आत्मा की प्रतीति सिद्ध होता है। परमार्थ ज्ञान के प्रति आग्रह प्रगट करते हुए उन्होंने कहा, जो परमार्थ को जानता है, उसे संसार के स्वरूप का ज्ञान होता है। जो परमार्थ को नहीं जानता उसे संसार का स्वरूप ज्ञात नहीं होता।
अपरिग्रहवाद : त्यागपूर्वक भोग
संसार का सारा कुछ सर्वव्यापी परमात्मा से व्याप्त है। इसका कोई भी अंश उनसे रहित नहीं है। ऐसा मानकर निरन्तर ईश्वर का स्मरण करना चाहिए। उपनिषद के ऋषि कहते हैं, जो सदा ईश्वर का स्मरण करते हुए, संसार के प्रति आसक्ति या ममता न रखते हुए केवल कर्तव्य पालन के लिए ही विषयों का यथाविधि उपभोग करता है, अर्थात् विश्वात्मा ईश्वर की पूजा के लिए ही कर्मों का आचरण करता है, उसका मन विषयों में नहीं फंसता, उसका निश्चित रूप से कल्याण होता है : न कर्म लिप्यते नरे। (ईशोपनिषद)
वस्तुत: संसार में जितने भोग्य पदार्थ हैं, वे किसी एक के नहीं हैं। मनुष्य भूल से उन्हें अपना समझ लेता है या उसके प्रति आसक्ति एवं ममत्व कर बैठता है। सच तो यह है कि संसार के सारे भोग्य पदार्थ परमेश्वर के हैं, जिनका उपयोग उनकी प्रसन्नता के लिए ही होना चाहिए। त्यागपूर्वक भोग ही वांछित है, भोग के प्रति आसक्ति अनुचित है।
भारतीय चिन्तन संग्रहवादी या भोगवादी नहीं, अपितु त्यागवादी है। भारतीय शास्त्र कहता है कि जितने से पेट भर जाए, उतने से ही संतोष करना चाहिए जो ऐसा नहीं करता, वह दूसरों को छीनता या चुराता है और इसलिए वह दण्ड का भागी है। कबीर भी यही कहते हैं :
सांई इतना दीजिए, जामे कुटुम समाय।
मैं भी भूखा न रहूं, साधु न भूखा जाय॥
अपनी अनिवार्य आवश्यकता से अधिक किसी वस्तु का ग्रहण या भविष्य के लिए उसका संचय अनुचित है। भगवान महावीर स्वामी ने इसे अपरिग्रह कहा है। अपरिग्रह के अनुसार आचरण करने का अर्थ है, मनुष्य सतत् श्रम करते हुए समाज से उतना ही ग्रहण करें, जितना उसके जीवन के लिए अनिवार्य हो, शेष सब कुछ समाज के कल्याण के लिए छोड़ देना चाहिए। महात्मा गांधी का विश्वास था कि अगर सभी व्यक्ति अपने दैनिक जीवन में अपरिग्रह का आचरण करें तो समाज में व्याप्त आर्थिक विषमता का अन्त हो सकता है।
ज्ञातव्य है, प्रत्येक आवश्यकता की उपस्थिति मनुष्य को दु:ख देती है। आवश्यकता की पूर्ति हो जाने पर उसे क्षणिक सुख अवश्य मिलता है किन्तु पुन: एक आवश्यकता के बाद दूसरी आवश्यकता उठ खड़ी होती है। जरूरतों के बढऩे का क्रम सुख में नहीं, बल्कि दु:ख में बढ़ोतरी करता है। अतएव, जब तक आवश्यकता विहीन स्थिति नहीं आती, तब तक हमें सुख की प्राप्ति सम्भव नहीं। मनुष्य जैसे-जैसे अपनी आवश्यकताओं में कमी करेगा, वैसे-वैसे परमसुख के समीप पहुंचता जाएगा।
यदि वर्तमान में राष्ट्र, समाज और व्यक्ति को आत्मिक शान्ति की प्राप्ति या नैतिक मूल्यों की पुन: स्थापना करनी है तो भोगवादी प्रवृत्ति से विमुख होकर अपरिग्रह को मूल्य देना अनिवार्य होगा। उपनिषद की घोषणा है कि इस संसार में शास्त्र विहित निष्काम कर्म करते हुए सौ वर्षों तक जीने की इच्छा करनी चाहिए ‘जिजीविसेच्छतं समा:।
इस प्रकार त्याग-भाव से किया गया कर्म कभी बन्धन में नहीं डालता। कर्म करते हुए कर्मों से लिप्त न होने का यही एक मार्ग है। इसके अतिरिक्त कोई भी मार्ग कर्म बन्धन से मुक्त नहीं कर सकता।
महावीर स्वामी का अपरिग्रह यही है कि सिर्फ कर्म, देह, कुटुम्ब, धन वैभव आदि ही परिग्रह या आसक्ति नहीं है, अपितु इनसे जुडऩा इनमें ममत्व करना ही अपरिग्रह है। यहां तक कि अपने रूप सौन्दर्य या ज्ञान वैदुष्य पर घमण्ड करना भी परिग्रह है। इस प्रकार, परिग्रह केवल बहिरंग ही नहीं होता वरन् वह वस्तु से भिन्न आन्तरिक भावों से भी जुड़ा होता है।
संसार का प्रत्येक प्राणी शांति चाहता है, शान्ति की कामना करता है, मगर इसके लिए वास्तविक प्रयत्न नहीं करता।
आज के भौतिकवादी युग में सभी ने आसक्ति या परिग्रह को ही सुख का मूल मान रखा है। परिग्रह बढ़ाने वाले मनुष्य को अपना प्रिय जीवन, सुख शान्ति सब कुछ दांव पर लगा देना पड़ता है। उसे सदैव तनावों और अशान्त मन:स्थितियों का सामना करना पड़ता है। शान्ति के प्रेमी स्वामी रामकृष्ण, महावीर स्वामी के समस्वर हैं कि अगर तुम वास्तविक शान्ति प्राप्त करना चाहते हो तो इच्छाओं की दासता से आसक्ति या ममता की गुलामी से अपने मन को अलग करो। जिस क्षण तुम इच्छाओं से ऊपर उठ जाओगे या इच्छाओं के सामने झुकोगे नहीं, इच्छित वस्तु स्वत: तुम्हारी तलाश करने लग जाएगी। अवश्य ही, आज अपरिग्रह के तहत त्यागपूर्वक भोग से ही विश्व का कल्याण हो सकता है।
महावीर स्वामी के सन्देशों मेें प्रतिबिम्बित श्रमण संस्कृति के संदर्भ में, ज्ञान दृष्टि के आधार पर जीवन चर्चा का संयमन ही तात्विक संयम है। जीवन चर्चा के संयमन के बिना मानव जाति में एकता की प्रतिष्ठा तथा विलास वैभव का नियंत्रण सम्भव नहीं। एकता और समता, संयम और नियंत्रण के अभाव की स्थिति में हिंसा की प्रवृत्ति को प्रोत्साहन मिलता है, जिससे जनता का दु:ख बढ़ता है। इसलिए महावीर स्वामी ने दूसरों के दु:ख को दूर करने की धर्मवृत्ति को अहिंसा धर्म कहा है ‘परस्स अदुक्खकरणं धम्मो।’ (वसुदेवहिण्डी)
महावीर स्वामी ने अपनी वाणी से सम्पूर्ण मानव जाति को एकता का संदेश दिया। उन्होंने कहा है जन्म से कोई किसी जाति का नहीं, कर्म से उसकी जाति का निर्धारण होता है। ब्राह्मण, क्षत्रिय और शूद्र ये सब जन्मना नहीं, कर्मणा होते हैं (उतराध्ययन सूत्र)। तात्पर्य यह कि कर्म की शुचिता और अशुचिता के आधार पर ही मनुष्य की उच्चता या नीचता निर्भर होती है। उसमें जन्म से हीन या उच्च जैसा भाव नहीं है। प्रत्येक वाणी, चाहे वह छोटा-सा कीड़ा हो या आदमी, आत्मसत्ता के स्तर पर समान है, उसमें अनुर्निहित सम्भावनाएं समान हैं।
महावीर के वचनों में अनुध्वनित अपरिग्रह तथा अहिंसा के संदेश मनुष्य की वर्तमान आर्थिक और सामाजिक आकांक्षाओं को ऊपर उठाने में अधिकाधिक कामयाब सिद्ध हो सकते हैं। उन्होंने अपरिग्रह के व्रत पर इसलिए बल दिया है कि वह जानते थे कि आर्थिक असमानता और आवश्यक वस्तुओं का अनुचित संग्रह सामाजिक जीवन को विघटित करने वाला है। महावीर स्वामी ने ऐसे समाज घातक परिग्रहवाद के विरोध में आवाज उठाई और अपरिग्रह के सामाजिक मूल्य की स्थापना की। ‘परस्परोग्रहों जीवानाम्’ अर्थात् जीवों के प्रति परस्पर उपकार की भावना ही उनकी साधना का लक्ष्य था और उसका प्रतिफलन उनके मूल्यवान वचनों में हुआ है।
महावीर स्वामी का वचन है कि सत्य अनन्तमुख है। अपने को ही एकान्तिक रूप से सही मानना और दूसरे को गलत समझना सत्य का अनादर करना है। किसी को सर्वथा गलत मानना वैचारिक स्तर पर हिंसा है, उनकी जीवन सत्ता को अस्वीकार करना है। उनका कथन है कि सापेक्ष स्तर पर सत्य को उसके सन्दर्भों में देखा जाए और उन सन्दर्भों में उन्नत हित रूपों द्वारा उसे सम्मानित किया जाए।
एकत्व में अनेकत्व तथा अनेकत्व में एकत्व यानी उभयात्मक दृष्टि ही वास्तुसत्य के सही अभिज्ञान या सम्यग्ज्ञान में समर्थ होती है। हाथी के पैर, पूंछ, सूंड और कान को टटोलकर एक-एक अवयव को ही हाथी मानने वाले जन्मान्ध लोगों का अभिप्राय मिथ्या होता है पर हाथी के समस्त अवयवों के समुदाय को हाथी के रूप में पहचान करने वालों की दृष्टि होती है।
महावीर स्वामी के वचनों में निहित अहिंसा, अपरिग्रह और अनेकान्त के तत्व निश्चय ही उनके द्वारा किए गए सामाजिक विकास के तथ्यान्वेषण की युगान्तरकारी परिणति है। कोई भी आत्मसाधक महापुरुष लौकिक सामाजिक व्यवस्था के आधारभूत तत्वों की उपेक्षा नहीं कर सकता। महावीर स्वामी ने पददलित लोगों को सामाजिक सम्मान देकर उनमें आत्माभिमान को जगाया। उन्होंने अपने वचनों को बराबर अपने ही जीवन में उतारने का प्रयास किया। वह बराबर आत्मपर्यवेक्षण और आत्मपरीक्षण के दौर से गुजरते रहे। उनकी कथनी और करनी, यानी कर्म और वाणी में एकता थी, इसलिए उनकी संदेश वाणी अनेक स्वयं भुक्त जीवनानुभव की ही मार्मिक अभिव्यक्ति है।
महावीर ने अपनी क्षमावाणी में कहा है कि मैं सभी जीवों को क्षमा करता हूं और सभी जीव मुझे क्षमा करें। मेरी सभी जीवों से मैत्री हो। किसी के साथ मेरा वैर न हो।
उन्होंने प्राणी हिंसा की वर्जना करते हुए कहा, सभी जीव जीना चाहते हैं, मरना कोई नहीं चाहता, इसलिए क्रूर प्राणी हिंसा का सर्वथा परित्याग कर देना चाहिए।
पाप कार्य से बचने का उपदेश देते हुए उन्होंने कहा, जिस कर्म से पाप की उत्पत्ति हो, उसको कभी स्वीकार न करें। पाप कार्यों से बचकर अपनी आत्मा को ऊंचा उठाएं। शारीरिक क्लेशों से ग्रस्त होने पर भी उद्विग्न न होकर उन्हें धीरता से सहन करें।
आत्मा के अस्तित्व की घोषणा करते हुए महावीर स्वामी ने कहा जो आत्मा है, वह विज्ञाता है। जो विज्ञाता है, वह आत्मा है। जिससे जाना जाता है, वह आत्मा है। जानने के सामर्थ्य द्वारा ही आत्मा की प्रतीति सिद्ध होता है। परमार्थ ज्ञान के प्रति आग्रह प्रगट करते हुए उन्होंने कहा, जो परमार्थ को जानता है, उसे संसार के स्वरूप का ज्ञान होता है। जो परमार्थ को नहीं जानता उसे संसार का स्वरूप ज्ञात नहीं होता।
अपरिग्रहवाद : त्यागपूर्वक भोग
संसार का सारा कुछ सर्वव्यापी परमात्मा से व्याप्त है। इसका कोई भी अंश उनसे रहित नहीं है। ऐसा मानकर निरन्तर ईश्वर का स्मरण करना चाहिए। उपनिषद के ऋषि कहते हैं, जो सदा ईश्वर का स्मरण करते हुए, संसार के प्रति आसक्ति या ममता न रखते हुए केवल कर्तव्य पालन के लिए ही विषयों का यथाविधि उपभोग करता है, अर्थात् विश्वात्मा ईश्वर की पूजा के लिए ही कर्मों का आचरण करता है, उसका मन विषयों में नहीं फंसता, उसका निश्चित रूप से कल्याण होता है : न कर्म लिप्यते नरे। (ईशोपनिषद)
वस्तुत: संसार में जितने भोग्य पदार्थ हैं, वे किसी एक के नहीं हैं। मनुष्य भूल से उन्हें अपना समझ लेता है या उसके प्रति आसक्ति एवं ममत्व कर बैठता है। सच तो यह है कि संसार के सारे भोग्य पदार्थ परमेश्वर के हैं, जिनका उपयोग उनकी प्रसन्नता के लिए ही होना चाहिए। त्यागपूर्वक भोग ही वांछित है, भोग के प्रति आसक्ति अनुचित है।
भारतीय चिन्तन संग्रहवादी या भोगवादी नहीं, अपितु त्यागवादी है। भारतीय शास्त्र कहता है कि जितने से पेट भर जाए, उतने से ही संतोष करना चाहिए जो ऐसा नहीं करता, वह दूसरों को छीनता या चुराता है और इसलिए वह दण्ड का भागी है। कबीर भी यही कहते हैं :
सांई इतना दीजिए, जामे कुटुम समाय।
मैं भी भूखा न रहूं, साधु न भूखा जाय॥
अपनी अनिवार्य आवश्यकता से अधिक किसी वस्तु का ग्रहण या भविष्य के लिए उसका संचय अनुचित है। भगवान महावीर स्वामी ने इसे अपरिग्रह कहा है। अपरिग्रह के अनुसार आचरण करने का अर्थ है, मनुष्य सतत् श्रम करते हुए समाज से उतना ही ग्रहण करें, जितना उसके जीवन के लिए अनिवार्य हो, शेष सब कुछ समाज के कल्याण के लिए छोड़ देना चाहिए। महात्मा गांधी का विश्वास था कि अगर सभी व्यक्ति अपने दैनिक जीवन में अपरिग्रह का आचरण करें तो समाज में व्याप्त आर्थिक विषमता का अन्त हो सकता है।
ज्ञातव्य है, प्रत्येक आवश्यकता की उपस्थिति मनुष्य को दु:ख देती है। आवश्यकता की पूर्ति हो जाने पर उसे क्षणिक सुख अवश्य मिलता है किन्तु पुन: एक आवश्यकता के बाद दूसरी आवश्यकता उठ खड़ी होती है। जरूरतों के बढऩे का क्रम सुख में नहीं, बल्कि दु:ख में बढ़ोतरी करता है। अतएव, जब तक आवश्यकता विहीन स्थिति नहीं आती, तब तक हमें सुख की प्राप्ति सम्भव नहीं। मनुष्य जैसे-जैसे अपनी आवश्यकताओं में कमी करेगा, वैसे-वैसे परमसुख के समीप पहुंचता जाएगा।
यदि वर्तमान में राष्ट्र, समाज और व्यक्ति को आत्मिक शान्ति की प्राप्ति या नैतिक मूल्यों की पुन: स्थापना करनी है तो भोगवादी प्रवृत्ति से विमुख होकर अपरिग्रह को मूल्य देना अनिवार्य होगा। उपनिषद की घोषणा है कि इस संसार में शास्त्र विहित निष्काम कर्म करते हुए सौ वर्षों तक जीने की इच्छा करनी चाहिए ‘जिजीविसेच्छतं समा:।
इस प्रकार त्याग-भाव से किया गया कर्म कभी बन्धन में नहीं डालता। कर्म करते हुए कर्मों से लिप्त न होने का यही एक मार्ग है। इसके अतिरिक्त कोई भी मार्ग कर्म बन्धन से मुक्त नहीं कर सकता।
महावीर स्वामी का अपरिग्रह यही है कि सिर्फ कर्म, देह, कुटुम्ब, धन वैभव आदि ही परिग्रह या आसक्ति नहीं है, अपितु इनसे जुडऩा इनमें ममत्व करना ही अपरिग्रह है। यहां तक कि अपने रूप सौन्दर्य या ज्ञान वैदुष्य पर घमण्ड करना भी परिग्रह है। इस प्रकार, परिग्रह केवल बहिरंग ही नहीं होता वरन् वह वस्तु से भिन्न आन्तरिक भावों से भी जुड़ा होता है।
संसार का प्रत्येक प्राणी शांति चाहता है, शान्ति की कामना करता है, मगर इसके लिए वास्तविक प्रयत्न नहीं करता।
आज के भौतिकवादी युग में सभी ने आसक्ति या परिग्रह को ही सुख का मूल मान रखा है। परिग्रह बढ़ाने वाले मनुष्य को अपना प्रिय जीवन, सुख शान्ति सब कुछ दांव पर लगा देना पड़ता है। उसे सदैव तनावों और अशान्त मन:स्थितियों का सामना करना पड़ता है। शान्ति के प्रेमी स्वामी रामकृष्ण, महावीर स्वामी के समस्वर हैं कि अगर तुम वास्तविक शान्ति प्राप्त करना चाहते हो तो इच्छाओं की दासता से आसक्ति या ममता की गुलामी से अपने मन को अलग करो। जिस क्षण तुम इच्छाओं से ऊपर उठ जाओगे या इच्छाओं के सामने झुकोगे नहीं, इच्छित वस्तु स्वत: तुम्हारी तलाश करने लग जाएगी। अवश्य ही, आज अपरिग्रह के तहत त्यागपूर्वक भोग से ही विश्व का कल्याण हो सकता है।