गीता : जीवन का ज्ञान

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गीता ज्ञान, भक्ति, कर्म, साधना योग आदि सभी का भंडार है। गीता को जिसने समझ लिया उसका यह जीवन अर्थात इहलोक और परलोक दोनों ही संवर जायेगें। गीता गहन चिंतन-मनन और जीवन में उतारे का विषय है। इसमें रचा बसा एक-एक शब्द रूपी मोती जीवन को बदल देता है। भारतीय ज्ञान परंपरा की जब भी बात आती है तो मन मस्तिष्क गीता में पहुंच जाता है। गीता में ज्ञान शब्द को लेकर कितना ही बड़ा चिंतन-मनन किया जा सकता है। वास्तव में ज्ञान की कोई सीमा नहीं है। कहा भी गया है कि ज्ञानं विहाया नश्यन्ति मूढाः अर्थात ज्ञान को त्यागने से मूढ़ व्यक्ति नष्ट हो जाते हैं।

गीता का एक-एक श्लोक ज्ञान का महासागर है। इस पर जितनी चर्चा कि जाए उतनी ही कम लगती है। हर एक व्यक्ति गीता का रसपान करना चाहता है। लेकिन व्यक्ति अपने अज्ञान के कारण इससे अछुता भी रह जाता है। मधुर कंठ से गाया और बताया गया गीता का एक-एक श्लोक, उसका अर्थ, जीवन की सुंदरता को बढ़ा देता है। फिर उसी में रम जाने का मन करता है।

गीता के अध्याय चार में ज्ञान, कर्म, सन्यास योग को बताया गया है। गीता के अध्याय 4 के श्लोक 34 में भगवान कहते हैं, तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया। उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः अर्थात सत्य को जानने के लिए, नम्रतापूर्वक, श्रद्धा से, प्रश्न करके और सेवा करके, सत्य को अनुभव करने वाले ज्ञानी महात्माओं से ज्ञान प्राप्त करो। अध्याय 4, श्लोक 38 में भगवान कहते हैं कि, न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते। अर्थात इस संसार में ज्ञान के समान पवित्र करने वाला निःसंदेह कुछ भी नहीं है।

 आगे अध्याय 4, श्लोक 39 में भगवान कहते हैं, श्रद्धावान्ल्लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः| ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति अर्थात श्रद्धावान, अपनी इंद्रियों पर संयम रखने वाला, तत्पर होकर ज्ञान प्राप्त करता है और ज्ञान प्राप्त कर जल्द ही परम शांति को प्राप्त होता है। सही मायनों में ज्ञान जहाँ भी मिले ले लेना चाहिए। अध्याय 4 के श्लोक 40 में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को कहते हैं कि, संशयात्मा विनश्यति अर्थात संशययुक्त मनुष्य परमार्थ से अवश्य भ्रष्ट हो जाता है।

भगवान ने कहा है कि ज्ञान हर जगह है, बस उसे देखने वाले का दृष्टिकोण होना चाहिए। श्रृष्टि में हर एक वस्तु को जानना ज्ञान का विस्तार है। इस चराचर जगत में सभी कुछ तो भगवान ने बनाया है। हमें भगवान के प्रति समर्पित भाव के साथ रहना चाहिए, जो कुछ है प्रभु आपका ही दिया हुआ है। गीता के अध्याय 7,  श्लोक 18 में लिखा है कि,  उदाराः सर्व एवैते ज्ञानी तत्त्मैव मे मतं। आस्थितः स हि युक्तात्मा मामेवनुत्तमं गतिम् ।। जो लोग मुझ पर समर्पित हैं वे वास्तव में महान हैं किन्तु जो ज्ञानी हैं, जो स्थिर मन वाले हैं, जिनकी बुद्धि मुझमें लीन है  तथा जिन्होंने मुझे ही अपना परम लक्ष्य बना लिया है, मैं उन्हें अपना ही स्वरूप मानता हूँ।

 अध्याय 15, श्लोक 15 में भगवान कहते हैं कि, सर्वस्य चाहं हृदि सन्निविष्टो मत्तः स्मृतिर्ज्ञानमपोहनं च। वेदैश्च सर्वैरहमेव वेद्यो वेदान्तकृद्वेदविदेव चाहम् ॥ अर्थात मैं सभी जीवों के हृदय में निवास करता हूँ, मुझसे ही स्मृति, ज्ञान और विस्मृति आती है। मैं ही सभी वेदों द्वारा जानने योग्य हूँ, मैं वेदांत का रचयिता और वेदों का अर्थ जानने वाला हूँ।

गीता ज्ञान का महासागर है। इसमें जहाँ भी गोता लगाओ, मोती हाथ जरूर लगता है। जिसने गीता को सुना-पढ़ा-गाया-जाना, वह चरित्र और जीवन अपने आप में अदभुत हो जाता है। गीता को पढ़ने वाला भी गीता ही हो जाता है। वह भगवान को प्राप्त होता है, भगवान उसकी रक्षा स्वयं करते हैं। वह व्यक्तित्व संकट से मुक्त, जीवन पथ पर आगे बढ़ता ही चला जाता है। 
 

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