प्राचीन नालंदा सांस्कृतिक कूटनीति का भी था केंद्र : अभय के.

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नयी दिल्ली, नौ अप्रैल (भाषा) प्राचीन नालंदा विश्वविद्यालय देशों की ‘‘सीमाओं से परे और दुनिया भर के विद्वानों को आकर्षित करने वाला संस्थान’’ होने के साथ-साथ ‘सांस्कृतिक कूटनीति का केंद्र’ भी था। यह कहना है राजनयिक और लेखक अभय के. का।

अभय ने अपनी नयी किताब ‘‘नालंदा: हाउ इट चेंज्ड द वर्ल्ड’’ में शिक्षा के इस प्रसिद्ध केंद्र के उत्थान, पतन और पुनरूद्धार के साथ-साथ सैकड़ों वर्षों तक निर्बाध रूप से विश्व को दिए गए इसके महत्वपूर्ण योगदान का भी वर्णन किया है।

वर्तमान में विदेश मंत्रालय के तहत भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद (आईसीसीआर)के उप महानिदेशक के रूप में कार्यरत, राजनयिक बिहार के नालंदा जिले के प्राचीन शहर राजगीर के मूल निवासी हैं।

अभय ने दिल्ली स्थित इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में मंगलवार शाम को आयोजित एक संवाद कार्यक्रम से इतर ‘पीटीआई-भाषा’ को दिए वीडियो साक्षात्कार में कहा, ‘‘मुझे लगता है कि इस स्थल पर और अधिक खुदाई की जरूरत है।’’

नालंदा विश्वविद्यालय या नालंदा महाविहार के खंडहर यूनेस्को विश्व धरोहर स्थलों की सूची में शामिल है। यह प्रतिष्ठित सम्मान इसे 2016 में प्राप्त हुआ था।

यूनेस्को की वेबसाइट के अनुसार, नालंदा महाविहार पुरातत्व स्थल पर तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व से 13वीं शताब्दी ईसवी तक के मठ और शैक्षिक संस्थान के अवशेष शामिल हैं।

अभय के. ने ‘पीटीआई-भाषा’ से कहा, ‘‘यह एक ऐसा स्थान था जहां दुनिया भर से लोग आते थे, एकत्र होते थे, ज्ञान प्राप्त करते थे और फिर उस ज्ञान को अपने साथ ले जाते थे और अपने देशों में इसका प्रसार करते थे। इसलिए, सांस्कृतिक कूटनीति के लिए नालंदा से बड़ा केंद्र और क्या हो सकता है।’’

राजनयिक ने कहा, ‘‘लेकिन हमारे पास स्वर्णदीप के राजा का एक उदाहरण भी है, जिन्होंने अपने राजदूत बाला बर्मन के माध्यम से पाल वंश के राजा देवपाल से एक मठ के रखरखाव के लिए पांच गांवों को समर्पित करने का अनुरोध किया था, जिसमें स्वर्णदीप के भिक्षु रहते थे।’’

मौजूदा इंडोनेशिया के सुमात्रा द्वीप को प्राचीन काल में स्वर्णदीप के नाम से जाना जाता था।

अभय ने कहा कि इसके अलावा कई अन्य उदाहरण भी हैं, जैसे कि तिब्बत से एक विद्वान आया और नालंदा में अध्ययन किया, ज्ञान लेकर गया और तिब्बती लिपि और व्याकरण को आकार दिया। उन्होंने बताया कि संत रक्षिता, पद्म संभव का उदाहरण है, ये सभी नालंदा से तिब्बत गए और वहां ज्ञान का प्रसार किया।

प्रख्यात लेखक और इतिहासकार विलियम डेलरिम्पल ने भी ‘‘नालंदा: हाउ इट चेंजड वर्ल्ड’ विषय पर आयोजित परिचर्चा में भाग लिया। इस दौरान अभय के. की नयी पुस्तक चर्चा के केंद्र बिंदु में रही।

बिहार की राजधानी पटना से करीब 98 किलोमीटर दूर 23 हेक्टेयर क्षेत्र में फैला नालंदा का एक प्राचीन स्थल है। इस पुरातत्व स्थल का संरक्षण, रखरखाव और प्रबंधन भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआई) करता है, जो संस्कृति मंत्रालय के तहत एक स्वायत्त संस्था है।

यूनेस्को की वेबसाइट पर इसके बारे में लिखा गया है, ‘‘इसमें स्तूप, मठ, विहार (आवासीय और शैक्षणिक भवन) और प्लास्टर, पत्थर और धातु से बनी महत्वपूर्ण कलाकृतियां शामिल हैं। नालंदा भारतीय उपमहाद्वीप के सबसे प्राचीन विश्वविद्यालय के रूप में जाना जाता है। यह 800 वर्षों की निर्बाध अवधि तक ज्ञान का संगठित प्रसार करता रहा।’’

राजनयिक ने कहा कि नालंदा ‘‘पहला वैश्विक संस्थान या सीमाविहीन संस्थान’’ था, क्योंकि इसमें विभिन्न देशों के छात्र, कई देशों के शिक्षक थे, इसकी शिक्षाएं और दर्शन ने शेष विश्व की संस्कृतियों और सभ्यताओं को प्रभावित किया।

उन्होंने कहा, ‘‘इसलिए, विश्वविद्यालय का विचार नालंदा में ही पैदा हुआ। नालंदा के कई योगदान हैं, एक तरह से इसने विश्व के सांस्कृतिक संगम स्थल के रूप में कार्य किया।’’

उन्होंने प्राचीन काल में भारत आए चीनी यात्री ह्वेनसांग की नालंदा यात्रा का उदाहरण देते हुए कहा कि वह ‘‘नालंदा के महान सूत्र पुस्तकालय से सूत्रों की प्रतिलिपियां लेने’’ के लिए यहां आया था, इसलिए नालंदा ‘‘एक महान आकर्षण’’था और यह दुनिया भर से लोगों को आकर्षित करता था।

अभय से जब पूछा गया कि उन्हें यह पुस्तक लिखने के लिए कहां से प्रेरणा मिली तो उन्होंने बताया, ‘‘हमें नागार्जुन या धर्मकीर्ति या आर्यभट्ट और अन्य के बारे में अधिक जानने की आवश्यकता है। हम अपने महान गुरुओं को भूल गए हैं। यह पुस्तक उसी दिशा में एक पहल है।’’

उन्होंने कहा कि यह पुस्तक ‘‘नालंदा के योगदान’’ और ‘‘नालंदा ने किस तरह से दिशा तय करता है’’ के बारे में है। साथ ही, अपने आठ अध्यायों के माध्यम से, ‘‘यह आपको नालंदा की उत्पत्ति तक ले जाती है, विश्वविद्यालय, मठ विश्वविद्यालय की उत्पत्ति कैसे हुई, यह इतना प्रसिद्ध क्यों हुआ और वहां किस-किस ने अध्ययन किया’’।

अभय ने कहा कि लगभग 200 पृष्ठों की यह पुस्तक ‘‘13वीं शताब्दी में इसके पतन के बाद भी नालंदा की महान निरंतरता या कम से कम नालंदा के विचार को भी रेखांकित करती है। उन्होंने कहा कि यह न केवल जीवित रहा, बल्कि फलता-फूलता रहा, जैसा कि हम आज दुनिया भर में नालंदा के नाम पर संस्थानों में देखते हैं, ब्राजील से लेकर ऑस्ट्रेलिया, कनाडा से लेकर मलेशिया तक, इस प्रकार नालंदा नाम के संस्थान हर जगह पाए जाते हैं।’’

राजनयिक ने नालंदा के महान गौरव को पुनर्जीवित करने के लिए हाल के वर्षों में किए गए प्रयासों और पिछले वर्ष प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी द्वारा नए नालंदा विश्वविद्यालय के परिसर के उद्घाटन का उल्लेख किया।

उन्होंने बताया, ‘‘लेकिन उससे बहुत पहले 1951 में भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने पुराने नालंदा विश्वविद्यालय के खंडहरों के बहुत करीब नव नालंदा महावीर की नींव रखी थी। इसलिए यह एक ऐसी पुस्तक है जो आपको नालंदा, इसकी उत्पत्ति, इसके उत्थान, इसके पतन और इसकी निरंतरता तथा आधुनिक विश्व को आकार देने में इसके योगदान की व्यापक तस्वीर प्रस्तुत करती है।’’

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