
अर्चित सक्सेना
मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल को बुद्धिजीवियों का शहर माना जाता है। यहां साहित्य के क्षेत्र में नित नये प्रयोग होते रहते हैं। लगभग चालीस वर्ष पूर्व यहां समाचार पत्र-पत्रिकाओं का अनोखा संग्रहालय स्थापित किया गया था। जो आज अत्याधुनिक रुप ले चुका है। जिसमें देश के सबसे पुराने समाचारपत्र से लेकर सैकड़ों अद्भुत और अनोखे समाचार पत्र और पत्रिकाएं उपलब्ध हैं। माधवराव सप्रे संग्रहालय आज भोपाल ही नहीं देश भर में अपनी पहचान बना चुका है। ठीक इसी तरह भोपाल की एक कॉलोनी मीनाल रेजीडेंसी में भी एक अनोखी और प्रेरणादायक पहल ने जन्म लिया है, जिसका नाम है “ओपन डब्बा लाइब्रेरी”। यह पुस्तकालय पारंपरिक पुस्तकालयों से बिल्कुल अलग है, क्योंकि यह न तो किसी बड़े भवन में स्थित है और न ही इसमें कोई ताला-चाबी है । न ही यहां कोई लाइब्रेरियन है जो किताबों का लेखा जोखा रखता हो। यह एक साधारण-सा बुक शेल्फ है, जो जाने माने लेखक श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव के घर की बाउंड्री वाल पर लगा हुआ है। इसकी सबसे बड़ी विशेषता यह है कि यह 24 घंटे खुला रहता है और सड़क से गुजरने वाला कोई भी व्यक्ति कभी भी यहां से किताब ले सकता है। इस पुस्तकालय को समृद्ध करने के लिए यहां कोई भी व्यक्ति अपनी भी किताबें इसमें रख सकता है। इस पुस्तक मित्र लाइब्रेरी की शुरुआत श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ने की है। इस छोटे से बुक शेल्फ में आरंभ में लगभग 4000 रुपये मूल्य की विभिन्न लेखकों और प्रकाशकों की पुस्तकें रखी गई थीं। इनमें प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव विदग्ध, श्री सुरेश पटवा, स्वयं विवेक रंजन श्रीवास्तव और ज्ञानगंगा प्रकाशन की किताबें शामिल हैं। ये पुस्तकें साहित्य, ज्ञान और मनोरंजन का खजाना लेकर आई हैं, जो हर आयु वर्ग के पाठकों के लिए उपयोगी हैं। इस लाइब्रेरी का मूल मंत्र है- “एक किताब रखो, एक ले जाओ”। यह सिद्धांत न केवल किताबों के आदान-प्रदान को प्रोत्साहित करता है, बल्कि “पढ़ो और पढ़ाओ” के सुविचार को भी बढ़ावा देता है। आज के दौर में जब डिजिटल माध्यमों के बढ़ते प्रभाव के कारण किताबों की पठनीयता में कमी देखी जा रही है, तब यह पहल एक ताजी हवा के झोंके की तरह है। लोग अक्सर अपने घरों में पढ़ी हुई किताबों और पत्रिकाओं को इधर-उधर रख देते हैं या उन्हें बेकार समझकर रद्दी में बेच देते हैं या फेंक देते हैं। ऐसे में ओपन डब्बा लाइब्रेरी इन किताबों को नया जीवन दे रही है, जिससे एक के लिए अनुपयोगी पुस्तकें दूसरों के लिए उपयोगी बन रही हैं। इस अभियान की सफलता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि मीनाल रेजीडेंसी के निवासी और आसपास के लोग इसे हाथों-हाथ ले रहे हैं। कॉलोनी के लोगों में पुस्तकों के प्रति उत्सुकता और उत्साह साफ देखा जा सकता है। लोग न केवल किताबें लेने आते हैं, बल्कि अपनी पढ़ी हुई किताबें भी इस शेल्फ में रखकर जाते हैं । इस तरह यह एक ऐसा चक्र बन गया है, जो ज्ञान और साहित्य के प्रेम को बढ़ावा दे रहा है।
पुस्तकें खरीदने में आर्थिक रुप से कमजोर लोग भी इस डिब्बा लाइब्रेरी का भरपूर सदुपयोग कर रहे हैं। स्थानीय रहवासियों के अलावा छुट्टियों में दादा-दादी, नाना-नानी के घर आने वाले बच्चों से लेकर कॉलोनी के सिक्यूरिटी गार्ड,सफाई कर्मचारी,जल कर्मचारी सभी के बीच यह डिब्बा लाइब्रेरी खूब लोकप्रिय हो रही है। ये यहां से पुस्तकें लेते हैं और पढ़कर वापस वहीं रख देते हैं। छुट्टियों में जो मेहमान मिनाल रेजीडेंसी में आते हैं, और घूमने निकलते हैं वे इस अनूठे प्रयोग का लाभ तो लेते ही हैं ,साथ ही फोटो लिए बगैर भी नहीं रहते और अगली बार जब आते हैं तो यहां रखने के लिए पुस्तकें भी साथ लाते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव का यह प्रयास समाज के लिए एक मिसाल बन गया है। इस छोटी-सी पहल ने न केवल किताबों को घरों की अलमारियों से बाहर निकाला है, बल्कि लोगों की पढ़ने और साझा करने की आदत को भी पुनर्जन्म दिया है। इस अनूठी पहल से उम्मीद की जा रही है कि भविष्य में ऐसी और भी पहलें देखने को मिलेंगी, जो समाज में ज्ञान के प्रकाश को फैलाने में सहायक होंगी।
श्री श्रीवास्तव के घर की बाउंड्री वाल पर लगे इस बुक सेल्फ (डिब्बा लाइब्रेरी) में कोई ताला नहीं है । कभी भी,किसी भी समय, कोई भी व्यक्ति किताब ले सकता है ,यही इसकी विशेषता है। इसके लिए न तो किसी परिचय पत्र की आवश्यकता है और न ही किसी कार्ड की।”एक किताब रखो , एक ले जाओ”, पढ़ो-पढ़ाओ के सुविचार के साथ यह अभियान सफलता पूर्वक चल रहा है।
हम सबके यहां अनेक पत्रिकाएं,किताबें होती हैं जो पढ़ने के बाद यहां वहां कर दी जाती हैं। ऐसी पुस्तकों और पत्रिकाओं को एक जगह एकत्रित करके लोगों को पढ़ने के लिए निशुल्क उपलब्ध कराने के प्रयास की, पठनीयता के अभाव वाले इस समय में,भूरि भूरि प्रशंसा हो रही है। आसपास के लोग ही नहीं बल्कि दूरदराज के लोग भी यहां उत्सुकता और उत्साह से किताबें अदल बदल कर पढ़ रहे हैं। वैसे भी आज के समय में जब किताबें इतनी मंहगी हो गयी हैं तब खरीदकर पढ़ना हर किसी के लिए संभव भी नहीं है तब ऐसे प्रयास निश्चित ही प्रशंसनीय है। यदि आपके पास भी नया पुराना साहित्य है जिसे आप कबाड़ या रद्दी मानकर फेंकने का सोच रहे हैं तो रुकिए, ठहरिए। साहित्य की इस अमूल्य संपदा को नष्ट मत होने दीजिए। या तो आसपास किसी लाइब्रेरी में दे दीजिए या स्वयं ही अपने घर के बाहर एक डिब्बा लाइब्रेरी बना दें। यह भी संभव न हो तो विवेक रंजन श्रीवास्तव जी से संपर्क कीजिए। वे अपनी डिब्बा लाइब्रेरी के माध्यम से इन पुस्तकों को हर खास और आम सबके लिए उपलब्ध करा देगें।