
भारत आज भी विश्व का एक बड़ा कृषि प्रधान देश है। कृषि ही यहां की मुख्य आजीविका का केंद्र बिंदु रहा है और आज भी है। कहना चाहूंगा कि आज हमारे देश की खेती लगातार रासायनिक खादों/उर्वरकों पर निर्भर होती चली जा रही है। यह ठीक है आज अनेक स्थानों पर आर्गेनिक खेती प्रचलन में है लेकिन यह भी एक कटु सत्य है कि खेती में अंधाधुंध उर्वरकों/कीटनाशकों का प्रयोग आज किया जाने लगा है।वास्तव में आज तेजी से बढ़ती आबादी की खाद्य जरूरतों को पूरा करने के लिए खेती में रासायनिक खाद के बढ़ते इस्तेमाल का आम लोगों के स्वास्थ्य पर प्रतिकूल असर पड़ रहा है। खाद्य विशेषज्ञ रासायनिक की जगह जैविक खाद के इस्तेमाल को बढ़ावा देने पर जोर दे रहे हैं लेकिन जैविक खादों का उपयोग आज बहुत ही कम है। गौरतलब है कि सिक्किम भारत का पहला पूर्ण जैविक राज्य है, जिसने लगभग 75,000 हेक्टेयर कृषि भूमि पर जैविक पद्धतियों को लागू किया है।
यहां यह भी एक तथ्य है कि जैविक खेती करने वाले किसानों की संख्या के मामले में भारत विश्व स्तर पर प्रथम स्थान पर है, तथा मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, राजस्थान, गुजरात और कर्नाटक भारत में क्षेत्रफल की दृष्टि से जैविक खेती में अग्रणी हैं, लेकिन बावजूद इसके भारतीय खेती में रासायनिक खादों का उपयोग कहीं अधिक है। आज हमारे देश के अनेक राज्यों में किसान रासायनिक खादों की मांग के लिए कतारों में खड़े नजर आते हैं, कहीं कहीं तो रासायनिक खादों के लिए धरने-प्रदर्शन तक देखते को मिलते हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो किसानों को अपने खेती के कार्य छोड़कर डीएपी खाद खरीदने के लिए लाइन में लगने को मजबूर होना पड़ता है। कहना ग़लत नहीं होगा कि खाद पर सियासी विवाद तक देखने को मिलते हैं। वास्तव में देश के कई राज्यों में रासायनिक खादों की मांग में अप्रत्याशित वृद्धि ने नीति-नियंताओं को चौंकाया है। गौरतलब है कि गेहूं की बुआई समेत रबी फसलों का सीजन शुरू होते ही देशभर में डीएपी खाद की कमी की गूंज सुनाई देने लग जाती है।
कृषि रसायनों का इस्तेमाल फसल उत्पादन में सुधार के लिए शुरू हुआ था लेकिन वर्तमान में इन रसायनों का खेती में अधिक एवं असंतुलित मात्रा में प्रयोग हो रहा है। ये रसायन आसपास मृदा और जल निकायों में रिसते हैं और पर्यावरण को प्रभावित करते हैं। कृषि रसायनों के प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष रूप से संपर्क में आने वाले किसानों तथा उनके परिवार के सदस्यों का स्वास्थ्य भी गंभीरता से प्रभावित होता है। गौरतलब है कि कृषि रसायनों में रासायनिक उर्वरक, मृदा का पी-एच बदलने के लिए उपयोग में आने वाले रसायन (लिमिडिंग और एसिडिंग एजेंट), मृदा कंडिशनर, कीटनाशक, खरपतवारनाशी, जीवाणुनाशक, फफूंदनाशी, कृन्तकनाशी (चूहामार) और पशुधन के उपयोग में आने वाले रसायन (एंटीबायोटिक्स और हार्मोन) आदि रसायन शामिल हैं।
बहरहाल, आज हरियाणा में यूरिया और डाई-अमोनियम फॉस्फेट(डीएपी) की खपत में तीव्र वृद्धि ने उर्वरक मंत्रालय की चिंताएं बढ़ा दी हैं। गौरतलब है कि डीएपी (डाइ-अमोनियम फॉस्फेट) भारतीय किसानों के बीच बहुत ही लोकप्रिय और पसंदीदा खाद है जिसमें 18 प्रतिशत नाइट्रोजन और 46 प्रतिशत फॉस्फोरस (पी2ओ5) जैसे प्राथमिक मैक्रो-पोषक तत्व होते हैं जो जड़ों के विकास, टिलर (कल्ले) को बढ़ाने और पौधे के तने को मजबूत करने के लिए आवश्यक होते हैं और पैदावार को भी बढाते हैं। यहां यह भी उल्लेखनीय है कि डीएपी खाद का प्रयोग केवल बुआई के समय पर ही किया जाता है। क्या यह आश्चर्यजनक बात नहीं है कि इस रबी के सीजन में हरियाणा में यूरिया खाद का उपयोग अट्ठारह फीसदी तक बढ़ गया है जबकि कुछ जिलों में डीएपी की खपत में 184 फीसदी तक का उछाल भी देखा गया है। कहना ग़लत नहीं होगा कि आज सब्सिडी वाले उर्वरकों की खपत सामान्य से ज्यादा हो रही है। एक उपलब्ध जानकारी के अनुसार आज औद्योगिक उपयोग के लिए सब्सिडी वाले यूरिया का अवैध तरीके से उपयोग किया जाता है। जानकारी मिलती है कि सालाना लगभग 10-12 लाख टन सब्सिडी वाले रासायनिक उर्वरकों को प्लाइवुड, राल, क्रॉकरी, मोल्डिंग पाउडर, पशु चारा, डेयरी और औद्योगिक खनन विस्फोटक जैसे विभिन्न उद्योगों में भेज दिया जाता है।
यहां पाठकों को जानकारी देना चाहूंगा कि यूरिया का प्रयोग वाहनों के प्रदूषण नियंत्रक के रूप में भी किया जाता है। यूरिया-फार्मल्डिहाइड, रेंजिन, प्लास्टिक एवं हाइड्राजिन बनाने में इसका उपयोग किया जाता है। इससे यूरिया-स्टीबामिन नामक काला-जार की दवा बनती है। वेरोनल नामक नींद की दवा बनाने में उसका उपयोग किया जाता है। सेडेटिव के रूप में उपयोग होने वाली दवाओं के बनाने में भी इसका उपयोग किया जाता है। बहरहाल, पीआईबी पर उपलब्ध एक जानकारी के अनुसार उर्वरक विभाग, भारत सरकार द्वारा किसी भी तरह की गड़बड़ी को रोकने और किसानों के लिए गुणवत्तापूर्ण उर्वरक सुनिश्चित करने के लिए बहुआयामी उपाय किए जा रहे हैं। इन उपायों के परिणामस्वरूप देश में उर्वरकों के डायवर्जन और कालाबाजारी को रोकने के प्रयास किए जा रहे हैं और इस संबंध में सफलता भी हासिल हुई है। वास्तव में,औचक निरीक्षण, कड़ी निगरानी, उर्वरक उड़न दस्तों के कारण यह सब संभव हो सका है। पीआईबी पर ही उपलब्ध जानकारी के अनुसार यूरिया के डायवर्जन के लिए 30 एफआईआर दर्ज की गई हैं और संदिग्ध यूरिया के गुजरात, केरल, हरियाणा, राजस्थान, कर्नाटक से (जीएसटीएन जब्ती को छोड़कर),70,000 बैग जब्त किए गए हैं जिनमें से 26199 बैगों का एफसीओ दिशा-निर्देशों के अनुसार निपटान किया गया है। इतना ही नहीं, एफएफएस ने बिहार के तीन सीमावर्ती जिलों क्रमशः अररिया, पूर्णिया, पश्चिम चंपारण का भी निरीक्षण किया है और यूरिया डायवर्टिंग इकाइयों के खिलाफ 3 एफआईआर दर्ज की गई हैं; सीमावर्ती जिलों में 3 मिश्रण निर्माण इकाइयों सहित 10 को अधिकृत किया गया है।
यहां यह भी उल्लेखनीय है कि दस्तावेज़ीकरण और प्रक्रियाओं में पाई गई कई विसंगतियों और खामियों के कारण 112 मिश्रण निर्माताओं को अनधिकृत रूप से अधिकृत किया गया है। अब तक 268 नमूनों की जांच के साथ नमूना परीक्षण भी बढ़ा दिया गया है, जिनमें से 89 (33%) को घटिया घोषित किया गया है और 120 (45%) में नीम तेल की मात्रा पाई गई है। पहली बार, पिछले एक साल में यूरिया के डायवर्जन और कालाबाजारी के लिए 11 लोगों को ब्लैकमार्केटिंग रोकथाम और आपूर्ति रखरखाव (पीबीएम) अधिनियम के तहत जेल भेजा गया है। आवश्यक वस्तु (ईसी) अधिनियम और उर्वरक नियंत्रण आदेश (एफसीओ) के माध्यम से राज्यों द्वारा कई अन्य कानूनी और प्रशासनिक कार्यवाही भी की गई है। कहना ग़लत नहीं होगा कि इन कदमों के परिणामस्वरूप किसानों को मिलने वाले यूरिया के कृषि उद्देश्यों के लिए उपयोग पर रोक लगी है। यहां उल्लेखनीय है कि किसानों और कृषि के लिए इस अत्यधिक सब्सिडी वाले यूरिया का कई निजी संस्थाओं द्वारा गैर-कृषि/औद्योगिक उद्देश्यों के लिए अवैध रूप से उपयोग करने से किसानों के लिए यूरिया की कमी हो जाती है।
निजी संस्थान गैर-कृषि/औद्योगिक उद्देश्यों के लिए अवैध रूप से सब्सिडी वाले यूरिया का उपयोग करते हैं क्योंकि उन्हें तकनीकी-ग्रेड वाला यूरिया काफी महंगा पड़ता है। वास्तव में सब्सिडी वाले यूरिया और तकनीकी ग्रेड वाले यूरिया के मूल्यों में काफी अंतर है और इन व्यवसायों में लगे कुछ लोग सब्सिडी वाले यूरिया से लाभ कमा रहे हैं और हेराफेरी को अंजाम दे रहे हैं। एक उपलब्ध जानकारी के अनुसार इन व्यवसायों में लगे लोग करीब दस-बारह लाख टन यूरिया का दुरुपयोग कर रहे हैं, जिसकी कीमत छह हजार करोड़ रुपये से भी अधिक है। ऊपर जानकारी दे चुका हूं कि सरकार ऐसे लोगों के खिलाफ अभियान शुरू करके सख्त से सख्त कानूनी कार्रवाई कर रही है। केन्द्रीय उर्वरक विभाग भी इस पर लगातार सतर्कता से काम कर रहा है। यह कोशिश की जा रही है कि किसानों को सब्सिडी पर मिलने वाली खाद के दुरुपयोग पर समय रहते अंकुश लगाया जा सके ताकि किसानों को खाद प्राप्त करने में किसी प्रकार की कोई दिक्कतें और परेशानियां न होने पाए।
बहरहाल, कहना ग़लत नहीं होगा कि आज हमारे देश में खेती में अत्यधिक उर्वरकों का उपयोग एक जटिल समस्या बनता जा रहा है। यह ठीक है कि आज बढ़ती जनसंख्या के बीच और खेती में अधिक लाभ लेने, फसलों को बचाने, कीट-पतंगों से फसलों की रक्षा करने के उद्देश्य से देश का हर किसान उर्वरकों के प्रयोग को बढ़ावा दे रहा है लेकिन यह भी एक तथ्य है कि आज भी हमारे देश में ऐसे बहुत से किसान हैं जिनको खेती में उर्वरकों के प्रयोग के बारे में सटीक,सही व ठोस जानकारी का अभाव है। दूसरे शब्दों में कहें तो आज हमारे देश के आम किसानों को इस बारे में ठोस जानकारी नहीं मिल पाती है कि इन उर्वरकों का कितना उपयोग और कैसे अधिक से अधिक फसल लेने व भूमि की उर्वरा शक्ति बढ़ाने के लिये काफी व पर्याप्त है। आमतौर पर कोई भी किसान पैदावार बढ़ाने के लिये ही बड़ी मात्रा में यूरिया का उपयोग करते हैं। पाठकों को बताता चलूं कि कृषि उद्योग में यूरिया का व्यापक रूप से उपयोग किया जाता है, जो एक सफ़ेद क्रिस्टलीय ठोस पदार्थ है जिसमें 46 प्रतिशत नाइट्रोजन होता है।सच तो यह है कि यूरिया नाइट्रोजन का एक स्रोत है, जो फसल की वृद्धि और विकास के लिए एक आवश्यक पोषक तत्व है।
यूरिया हमारे देश में सबसे महत्वपूर्ण नाइट्रोजन युक्त उर्वरक है, क्योंकि इसमें नाइट्रोजन की मात्रा अधिक होती है। यह भी उल्लेखनीय है कि नीम कोटेड यूरिया (एन) नीम के तेल में लिपटा यूरिया है जिसे विशेष रूप से केवल कृषि उर्वरक के रूप में उपयोग करने के लिए विकसित किया गया है। गौरतलब है कि नीम की कोटिंग यूरिया के नाइट्रीकरण को धीमा कर देती है जिससे मिट्टी में पोषक तत्वों के अवशोषण में वृद्धि होती है और साथ ही भूजल प्रदूषण भी कम होता है। वास्तव में, इसका उपयोग मिट्टी की उर्वरा शक्ति बढ़ाने में होता है। कार्बनिक रसायन के क्षेत्र में इसे कार्बामाइड भी कहा जाता है। यह एक रंगहीन, गन्धहीन, सफेद, रवेदार जहरीला ठोस पदार्थ है। यह जल में अति विलेय है। बहरहाल,निर्विवाद रूप से रासायनिक उर्वरकों का अंधाधुंध उपयोग न केवल मिट्टी के स्वास्थ्य पर प्रतिकूल असर डाल रहा है बल्कि कृषि भूमि की दीर्घकालीन उपादेयता को भी कहीं न कहीं कम कर रहा है। सच तो यह है कि आज उर्वरकों की खपत में तेजी से वृद्धि देश की आर्थिकी पर भी प्रतिकूल व व्यापक असर डाल रही है। कहना चाहूंगा कि आज उर्वरकों के आयात पर देश की बढ़ती निर्भरता वित्तीय संकट को लगातार बढ़ावा दे रही है। आंकड़े बताते हैं कि देश वार्षिक रूप से करीब 75 लाख टन यूरिया का आयात करता है। एक अन्य उपलब्ध जानकारी के अनुसार वित्त वर्ष 2020-21 के दौरान रिकॉर्ड 98.28 लाख टन यूरिया का आयात किया गया था। वहीं,वर्ष 2019-20 में यह 91.23 लाख टन और वर्ष 2018-19 में यह 74.81 लाख टन था।
गौरतलब है कि घरेलू मांग को पूरा करने के लिए भारत को सालाना करीब 350 लाख टन यूरिया की जरूरत होती है। पाठकों को बताता चलूं कि यूरिया की बढ़ती वैश्विक कीमतों ने उर्वरक सब्सिडी को 1.75 ट्रिलियन रुपये से अधिक कर दिया है। यदि इस स्थिति पर समय रहते नियंत्रण नहीं किया गया तो बढ़ती उर्वरक मांग हमारे देश की अर्थव्यवस्था पर भारी दबाव डालेगी। बहरहाल, आज जरूरत इस बात की है कि सरकार उर्वरक की बिक्री की निगरानी को सशक्त करने के साथ ही सब्सिडी वाली रासायनिक खाद का दुरुपयोग करने वालों के खिलाफ सख्त से सख्त कानूनी कार्रवाई करें और उन्हें दंडित करे। सरकार के साथ ही देश के किसानों को भी यह चाहिए कि वे इस संबंध में जागरूकता बरतें। किसानों को यह चाहिए कि वे अपनी खेती में उर्वरकों का सीमित, संतुलित व वैज्ञानिक उपयोग ही करें और प्राकृतिक खेती की ओर अग्रसर हों।