
भारत में त्यौहारों का स्वरूप धार्मिक ही है। यहां प्रत्येक त्यौहार मानव मन की आस्था और अटूट विश्वास से जुड़ा हुआ है। भारतीय नारियों के भी अपने कुछ व्रत हैं जो आस्था और विश्वास से गहरे जुड़े हुए हैं। भारतीय समाज में स्त्री का पतिव्रता और सौभाग्यवती होना सम्मान सूचक माना जाता है। इसी पतिव्रत धर्म और सौभाग्य की रक्षा के लिए भारतीय नारियां अनेक वत भी करती हैं। करवा चौथ, हरतालिका तीज, वट सावित्री अमावस्था और गणगौर ऐसे ही प्रमुख व्रत हैं जिनके द्वारा भारतीय नारी अच्छे पति और सौभाग्य की कामना करती है।
गणगौर का व्रत चैत्र माह के शुक्ल पक्ष की तृतीया को किया जाता है। इस दिन भगवान शिव ने देवी पार्वती को और देवी पार्वती ने अनेक स्त्रियों को पतिव्रता और सौभाग्यवती रहने का आशीर्वाद दिया था। मान्यता है कि गणगौर के दिन देवी पार्वती ने पहले पूजा करने वाली निर्धन स्त्रियों को वस्त्र आभूषण सहित सौभाग्यवती होने का वरदान दिया था तथा बाद मे आने वाली सम्पन्न स्त्रियों को रक्त सुहाग देते हुए पतिव्रता एवं सौभाग्यशाली होने का आशीर्वाद दिया। इसी दिन देवी पार्वती की पूजा से प्रसन्न होकर महादेव ने पार्वती को वरदान दिया कि आज के दिन जो स्त्री मेरा पूजन तथा तुम्हारा व्रत करेगी उसके पति चिरंजीव रहेंगे तथा अन्त में उन्हें मोक्ष मिलेगा। पार्वती ने शिव की यह पूजा एवं व्रत छिपाकर किया था इसलिए आज भी इस व्रत में पूजन पुरुषों के सामने नहीं किया जाता है।गणगौर मुख्य रूप से राजस्थानी महिलाओं का पर्व है, जिसमें वे भगवान शिव एवं पार्वती की पूजा-अर्चना करती हैं। इस तरह गणगौर शिव-पार्वती की पूजा का पर्व है। गण यानी शिव और गौर यानी पार्वती। कुल मिलाकर गणगौर भगवान शंकर और पार्वती का ही दूसरा नाम है। देवी पार्वती ने भगवान शंकर को काफी तपस्या के बाद सदैव पति के रूप में पाया था, इसलिए महिलाएं पार्वती के समान सदा सौभाग्यवती रहने के लिए अमर सुहाग की कामना से यह व्रत करती हैं।
गणगौर का पर्व राजस्थान में बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है। यहां गणगौर के सोलह दिन पहले यानी होलिका दहन के दूसरे दिन होली की राख से गौर मूर्ति बनाकर स्थापित की जाती है। कई जगह गौर प्रतिमा लकड़ी की भी बनायी जाती है। इस प्रतिमा की सोलह दिन तक लगातार पूजा-अर्चना की जाती है। सुबह- सबेरे गौर को झूला झुलाया जाता है। इसे मालवा अंचल में गौर झुलाना भी कहते हैं।
राजस्थानी युवतियां गणगौर पूजा के लिए सोलह दिन तक प्रातःकाल सात कलश सिर पर रखकर ले जाती हैं और उन्हें नजदीक के नदी, तालाब या कुएं से भरकर लाती हैं। इसी जल एवं दूब के साथ गणगौर की पूजा की जाती है। सोलहवां दिन (चैत्र माह के शुक्ल पक्ष की तृतीया) गौर की विदा का दिन होता है। माना जाता है कि इस दिन भगवान शंकर गौर को लेने आते हैं और गौर अपनी सखियों से बिछुड़कर महादेव के साथ चली जाती हैं। गणगौर की विदा शोभायात्रा के रूप में होती है।
राजस्थान के जयपुर की गणगौर यात्रा तो इतनी प्रसिद्ध है कि उसे देखने के लिए देश के कोने-कोने से लोग एकत्रित होते हैं। बैंडबाजों से सजी गणगौर यात्रा में हाथी, घोड़े और ऊंट के साथ- साथ बाराती भी होते हैं और पालकी में होती है गणगौर।
राजस्थानी और मालवी स्त्रियां गणगौर का पूजन अलग-अलग रूपों में करती हैं। विवाहित महिलाएं आशीर्वाद स्वरूप अमर सुहाग की कामना करती हैं तो कन्याएं गौर से अपने लिए अच्छे पति की कामना करती हैं। युवतियां गौर की पूजा सखी रूप में करती हैं। गौर का यही रूप गणगौर पूजन में मुख्य माना गया है।
सोलह दिनों तक गौर को सखी मानकर पूजा की जाती है, इसलिए गौर के समक्ष हंसी-ठिठोली भी पूजा में शामिल रहती है। गौर पूजा में लोकगीतों का भी भरपूर उपयोग किया जाता है। इन लोक गीतों में जहां भक्ति का पुट होता है वहीं शिकायतें और हंसी मजाक भी।
गणगौर की पूजा में गौर को सखी माना गया है। जब पूजा सखी भाव से की जा रही है तो उन्हें भोजन कराना भी आवश्यक है। जब गौर को भोजन करा दिया तो पानी भी पिलाना पड़ेगा। गौर को पानी पिलाना आसान नहीं है। जब तक गौर को पानी पिलाने वाली सखी अपने पति का नाम नहीं बता दे वह पानी नहीं पिला सकती। पुराने समय में युवतियां शर्म और संकोच के कारण अपने पति का नाम लेने में झिझकती थीं इसलिए वे अपने पति का नाम दोहों में पिरे कर लेती थीं और गौर को पानी पिलाती थीं। अब यह परम्परा सी ही बन गयी है।
घर की बड़ी-बूढ़ी महिलाएं गणगौर को घर की बेटी की तरह विदा करती हैं। गौर को पूरे जेवर पहनाये जाते हैं और राह के लिए नाश्ता भी साथ रखा जाता है। अब प्रतीक रूप में घर में बेसन के आभूषण बनाकर गौर को पहनाए जाते हैं। जो अन्त में गौर के साथ विसर्जित कर दिए जाते हैं।
गौर के विसर्जन के पूर्व एक शोभायात्रा निकाली जाती है फिर नजदीकी नदी, तालाब या कुएं में गौर विसर्जन किया जाता है। विसर्जन करते समय महिलाएं भाव विह्वल हो उठती हैं और गौर की निशानी के रूप में उसकी चुनरी का एक छोर फाड़कर अपने पास रख लेती हैं।
आधुनिक समाज में समय की तेज रफ्तार के आगे गणगौर की पूजा भी सिमट चली है। पहले सोलह दिनों तक चलने वाला यह उत्सव कई स्थानों पर एक या दो दिन में सिमटकर रह गया है। अब तो गणगौर की मुख्य पूजा वाले दिन ही बाजार से मिट्टी की बनी गणगौर प्रतिमा मंगा ली जाती है, और उसे पूजन के उपरांत विसर्जित कर दिया जाता है। प्रतीक रूप में आज भी गणगौर की पूजा बरकरार है और आज भी अनेक युवतियां और महिलाएं बड़े ही श्रद्धा और विश्वास के साथ गौर की मित्रवत न केवल गौर की पूजा-अर्चना करती हैं बल्कि गणगौर को विसर्जित करते समय इस तरह भावुक हो उठती हैं जैसे उनका कोई आत्मीय जन उनसे बिछुड़ रहा हो।