कौन हैं राहू और केतु

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कई सदियों से पूर्णिमा के दिन राहु द्वारा चंद्र ग्रहण और अमावस्या के दिन केतु द्वारा सूर्य ग्रहण होता चला आ रहा है। पौराणिक कथा के अनुसार जब देव और दानवों ने समुद्र मंथन किया, तो अन्य रत्नों के साथ अमृत कलश भी मिला। इसे ले कर देवों-दानवों में विवाद छिड़ गया कि पहले कौन अमृतपान करे। विवाद बढ़ता देख भगवान विष्णु ने विश्वमोहिनी रूप धारण कर अमृतपान कराने की जिम्मेदारी संभाली।
रूपसी कन्या को देख असुरों ने यह बात मान ली। देव तथा दानव पंक्ति बना कर बैठ गए। इतने में राहु नामक राक्षस देवताओं की पंक्ति में आ बैठा और उसने धोखे से अमृतपान कर लिया। सूर्य और चंद्र की उस पर नजर पड़ गई और विश्वमोहिनी ने सुदर्शन चक्र से उसका सिर धड़ से अलग कर दिया।
कहा जाता है कि यही राहु और केतु छाया बन कर चंद्र और सूर्य को ग्रसते हैं जिन्हें चंद्र ग्रहण और सूर्य ग्रहण नाम से जाना गया। इस बारे में वैज्ञानिकों की मान्यता है कि जब पृथ्वी सूर्य तथा चंद्रमा के बीच आती है तो सूर्य ग्रहण होता है और जब पृथ्वी तथा सूर्य के बीच चंद्रमा आ जाता है तो चंद्र ग्रहण होता है। इसलिए दूसरे रूप में सूर्य तथा चंद्र छाया ग्रह माने जाते हैं।
पृथ्वी राहु का प्रतीक है और चंद्रमा केतु का। विश्वमोहिनी प्रकृति है और पृथ्वी को धड़ और चंद्रमा को सिर माना गया है। प्रकृति का धड़ पृथ्वी है और आकाश सिर है। यहां केतु का अर्थ ध्वजा है। ध्वजा आकाश को प्रतिबिंबित करता है। ‘चंद्रमा मनसो जातः‘ इस प्रामाणिक वेदवाक्य से मन से चंद्रमा की उत्पत्ति मानी जाती है। मन मस्तिष्क में रहता है। वही जीवन की पताका है। वही छाया ग्रह आच्छादित करने वाला ग्रह है।
ग्रहण का अर्थ है पकड़ना। मन ही सबको वशीभूत रखता है। उसकी पकड़ बड़ी तीव्र होती है। केतु का अर्थ है किसी संज्ञा में, किसी का संज्ञान यानी प्रतिबिंब। सूर्य संज्ञान का प्रतिबिंब है। अतः यहां केतु का अर्थ चंद्र है। इस तरह बड़ी चतुरता से राहु-केतु का अर्थ शास्त्रों ने पृथ्वी और चंद्रमा के रूप में किया है। राहु का अर्थ है रह निवासे, जिसे संस्कृत में राहु कहा जाता है। निवास का स्थान पृथ्वी है, अतः पृथ्वी ही राहु है।