
नीले आसमान में भगवा रंगों की लहराती ध्वज पताकाएँ। लगातार बजते घड़ी-घंटाल और संत ओर महात्माओं द्वारा गूंजते मंत्रोच्चार। चौबीस घंटे पवित्र गंगा-यमुना-सरस्वती के संगम में स्नान करते असंख्य लोग। यज्ञशालाओं से निकलती हवन कुंड की अग्नि। भजन-कीर्तन के साथ प्रवचनों और हेलीकॉप्टरों द्वारा की जा रही पुष्प वर्षा। गंगा,यमुना और सरस्वती के संगम क्षेत्र में दूर-दूर तक उमड़ा आस्था का समंदर। और मन में सिर्फ मोक्ष पाने की लालसा। प्रयागराज में लगे देश और दुनिया के सबसे बड़े जन समागम में यही नज़ारा आम है। वजह यह है कि करोड़ों श्रद्धालुओं की आस्था का प्रतीक महाकुंभ सिर्फ एक मेला नहीं है। बल्कि यह आस्था, परंपरा और हिंदू संस्कृति का संगम है। मकर संक्रांति से ठीक एक दिन पूर्व इस साल 13 जनवरी से शुरू हुआ महाकुंभ का मेला कई मायनों में बेहद खास है। क्योंकि इस बार 144 साल बाद पूर्ण महाकुंभ लग रहा है। यानि 12 साल लगातार 12 वर्षों के तक लगने के बाद पूर्ण महाकुंभ लगता है, जो 144 साल बाद आया है। देश और विदेश की धरती से महाकुंभ में पर्व स्नान के लिए आए विभिन्न जाति, धर्म, मजहब एवं संप्रदाय के लोगों की मौजूदगी से आस्था के साथ-साथ महाकुंभ से सामाजिक एकता और समरसता की संजीवनी भी मिलती दिखाई पड़ रही है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा कुंभ के शुभारंभ के अवसर पर दिया गया नारा “कहती है गंगा की अविरल धारा,एक रहेगा देश हमारा”,”एक रहेंगे, नेक रहेंगे”,” एक रहेंगे, सेफ रहेंगे” तथा “बाटेंगे, तो काटेंगे” जैसे इन नारों की पृष्ठभूमि में महाकुंभ के मेले में कई नए आयाम स्थापित हुए हैं। प्रयागराज के त्रिवेणी संगम पर आयोजित महाकुंभ से जहां योगी का राजनीतिक कद बढ़ा है, वहीं पूरे देश में हिंदुत्व की भावना का भी संचार हुआ है। महाकुंभ के आयोजन को राजनीति के लिए आज से देखें तो त्रिवेणी संगम पर उमडा जन समागम जाति और पंथ की दीवारों को तोड़ता हुआ हिंदू एकता की तरफ अग्रसर होता दिखाई पड़ता है। महाकुंभ जैसे आयोजन में बगैर कुछ बोले संपूर्ण विश्व में यह संदेश जा रहा है कि कैसे एक साथ इतनी बड़ी संख्या में अलग-अलग पंथों, संप्रदायों, जिनके बीच घोर मतभेद और कुछ के मध्य संघर्ष रहे हैं, सब एकत्र होकर आत्मोद्धार, समाज और विश्व कल्याण के भाव से संगम में स्नान-यज्ञ आदि कर रहे हैं।
कुंभ मेला दो शब्दों कुंभ और मेला से बना है। कुंभ नाम अमृत के अमर पात्र या कलश से लिया गया है। जिसे देवता और राक्षसों ने प्राचीन वैदिक शास्त्रों में वर्णित पुराणों के रूप में वर्णित किया था। मेला, जैसा कि हम सभी परिचित हैं, एक संस्कृत शब्द है जिसका अर्थ है ‘सभा’ या ‘मिलना’। महा कुंभ का इतिहास वर्षों पुराना है। महाकुंभ से जुड़े कई रहस्य हमारे ग्रंथों में छिपे हुए हैं।कुछ ग्रंथों में उल्लेख है कि सतयुग से ही इस मेले का आयोजन किया जा रहा है। समुद्र मंथन के बारे में शिव पुराण, मत्स्य पुराण, पद्म पुराण, भविष्य पुराण समेत लगभग सभी पुराणों में जिक्र किया गया है। हिंदू पौराणिक कथाओं के अनुसार कुंभ मेला 12 वर्षों के दौरान चार बार मनाया जाता है। कुंभ मेले का आयोजन 4 तीर्थ स्थलों में होता है। उत्तराखंड में गंगा नदी पर हरिद्वार, मध्य प्रदेश में शिप्रा नदी पर उज्जैन, महाराष्ट्र में गोदावरी नदी पर नासिक और उत्तर प्रदेश में गंगा, यमुना और सरस्वती तीन नदियों के संगम पर प्रयागराज में।
महाकुंभ के संबंध में एक पौराणिक मान्यता यह भी है कि महर्षि दुर्वासा के श्राप के कारण जब इंद्र और देवता कमजोर पड़ गए, तब राक्षस ने देवताओं पर आक्रमण करके उन्हें परास्त कर दिया था। ऐसे में सब देवता मिलकर विष्णु भगवान के पास गए और सारा व्रतांत सुनाया। तब भगवान ने देवताओं को दैत्यों के साथ मिलकर समुद्र यानी क्षीर सागर में मंथन करके अमृत निकालने को कहा। सारे देवता भगवान विष्णु जी के कहने पर दैत्यों से संधि करके अमृत निकालने के प्रयास में लग गए। जैसे ही समुद्र मंथन से अमृत निकला देवताओं के इशारे पर इंद्र का पुत्र जयंत अमृत कलश लेकर उड़ गया। इस पर गुरु शंकराचार्य के कहने पर दैत्यों ने जयंत का पीछा किया और काफी परिश्रम करने के बाद दैत्यों ने जयंत को पकड़ लिया और अमृत कलश पर अधिकार जमाने के लिए देव और राक्षसों में 12 दिन तक भयानक युद्ध चला रहा। ऐसा कहा जाता है कि देवताओं के 12 दिन पृथ्वी पर 12 साल के बराबर होते हैं। इसलिए हर 12 साल में महाकुंभ का आयोजन किया जाता है।
मान्यताओं के अनुसार समुद्र मंथन के दौरान जब अमृत कलश बाहर आया था तब देवताओं और राक्षसों के बीच तनातनी और संघर्ष को कम करने के लिए भगवान विष्णु ने मोहिनी अवतार लिया था। इसके बाद जब देवताओं और राक्षसों के बीच संघर्ष काफी ज्यादा बढ़ गया तो उन्होंने इंद्र देव के पुत्र जयंत को यह अमृत कलश सौंप दिया गया। जयंत कौवे का रूप धारण कर राक्षसों से अमृत कलश को छिनकर उड़ चले थे। जब वह घट को लेकर भाग रहे थे तो अमृत कलश से कुछ बूंदे प्रयागराज, उज्जैन , हरिद्वार और नासिक में गिर गई थी। जहां जहां अमृत कलश की बूंदे गिरी वहां-वहां कुंभ मेला का आयोजन किया जाता है। हिन्दू शास्त्र में प्रयागराज में लगने वाले महा कुंभ का महत्व अधिक माना गया है। दरअसल, यहां तीन पवित्र नदियों गंगा, यमुना और सरस्वती का संगम है। जिस वजह से यह स्थान अन्य जगहों की तुलना में अधिक महत्वपूर्ण है।
बता दें सरस्वती नदी लुप्त हो चुकी हैं लेकिन, वह धरती का धरातल में आज भी बहती हैं। ऐसी मान्यता है कि जो व्यक्ति इन तीन नदियों के संगम में शाही स्नान करता है, उसे मोक्ष की प्राप्ति होती है। इसलिए प्रयागराज में इसका महत्व अधिक माना जाता है। किस स्थान पर कुंभ मेले का आयोजन किया जाएगा यह राशियों पर निर्भर करता है। कुंभ मेले में सूर्य और ब्रहस्पति का खास योगदान माना जाता है। जब सूर्य एवं ब्रहस्पति एक राशि से दूसरी राशि में प्रवेश करते हैं तभी कुंभ मेले को मनाया जाता है और इसी आधार पर स्थान ओत तिथि निर्धारित की जाती है। ज्योतिषचार्य पंडित श्यामसुंदर शर्मा बताते हैं कि जब ब्रहस्पति वर्षभ राशि में प्रवेश करते हैं और सूर्य मकर राशि में तब कुंभ मेले का आयोजन प्रयागराज में किया जाता है। जब सूर्य मेष राशि और ब्रहस्पति कुंभ राशि में प्रवेश करते हैं तब कुंभ मेले का आयोजन हरिद्वार में किया जाता है।
इसी प्रकार जब सूर्य और ब्रहस्पति का सिंह राशि में प्रवेश होता है तब यह महाकुंभ मेला नासिक में मनाया जाता है। जब ब्रहस्पति सिंह राशि में और सूर्य देव मेष राशि में प्रवेश करते हैं तब कुंभ मेले का आयोजन उज्जैन में किया जाता है। वहीं, जब सूर्य देव सिंह राशि में प्रवेश करते हैं, तो इस कारण उजैन, मध्यप्रदेश में जो कुंभ मनाया जाता है उसे सिंहस्थ कुंभ कहते हैं। सारे नवग्रहों में से सूर्य, चंद्र, गुरु और शनि की भूमिका कुंभ में महत्वपूर्ण मानी जाती है। जब अमृत कलश को लेकर देवताओं और राक्षसों के बीच युद्ध चल रहा था तब कलश की खींचा तानी में चंद्रमा ने अमृत को बहने से बचाया, गुरु ने कलश को छुपाया था, सूर्य देव ने कलश को फूटने से बचाया और शनि ने इंद्र के कोप से रक्षा की। इसीलिए ही तो जब इन ग्रहों का योग संयोग एक राशि में होता है तब कुंभ मेले का आयोजन होता है। हर तीसरे वर्ष कुंभ का आयोजन होता है।
गुरु ग्रह एक राशि में एक साल तक रहता है और हर राशि में जाने में लगभग 12 वर्षों का समय लग जाता है। इसीलिए हर 12 साल बाद उसी स्थान पर कुंभ का आयोजन किया जाता है। निर्धारित चार स्थानों में अलग-अलग स्थान पर हर तीन साल में कुंभ लगता है। प्रयागराज का कुंभ के लिए आशिक महत्व है,क्योंकि 144 वर्ष बाद यहां पर महाकुंभ का आयोजन हो रहा है। कुंभ मेलों के प्रकार पर गौर करें, तो सबसे बड़ा महाकुंभ मेला है,जो केवल प्रयागराज में ही आयोजित किया जाता है। यह प्रत्येक 144 वर्षों में या 12 पूर्ण कुंभ मेले के बाद आता है। पूर्ण कुंभ मेला हर 12 साल में आता है। मुख्य रूप से भारत में 4 कुंभ मेला स्थान यानि प्रयागराज, हरिद्वार, नासिक और उज्जैन में आयोजित किए जाते हैं। यह हर 12 साल में इन 4 स्थानों पर बारी-बारी आते है। जबकि,अर्ध कुंभ मेला भारत में हर 6 साल में केवल दो स्थानों पर होता है यानी हरिद्वार और प्रयागराज में। इसी प्रकार कुंभ मेला चार अलग-अलग स्थानों पर राज्य सरकारों द्वारा हर तीन साल में आयोजित किया जाता है। लाखों लोग आध्यात्मिक उत्साह के साथ भाग लेते हैं।
इसके अलावा माघ कुंभ मेले को मिनी कुंभ मेले के रूप में भी जाना जाता है, जो प्रतिवर्ष और केवल प्रयागराज में आयोजित किया जाता है। यह हिंदू कैलेंडर के अनुसार माघ के महीने में आयोजित किया जाता है। संसदीय लोकतंत्र में राजनीतिक नेतृत्व की सर्वाधिक महत्वपूर्ण भूमिका हो गयी है। ऐसा नहीं है कि राजनीतिक सत्ता हमारे धर्म व कर्मकांड आदि के रास्ते निर्धारित करते हैं। लेकिन महाकुंभ के शानदार आयोजन के चलते केंद्र की प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सरकार और प्रदेश की योगी आदित्यनाथ सरकार पूर्व की सरकारों से गुणात्मक रूप से भिन्न प्रमाणित हो रही है। इतने विशाल और व्यापक जनसमूह वाले लंबे आयोजन की दृष्टि से कोई भी व्यवस्था संपूर्ण या आदर्श नहीं हो सकती। बावजूद आप संघ, भाजपा, मोदी, योगी या उनकी सरकारों के विरोधी हों या समर्थक, निष्पक्षता से विचार कीजिए और निष्कर्ष निकालिए कि क्या पूर्व की सरकारें ऐसे धार्मिक-आध्यात्मिक महत्व के आयोजनों को इनकी मौलिकता के अनुरूप स्वरूप देने के लिए इतनी सूक्ष्मता से विचार एवं व्यवस्थाएं करती रहीं हैं?
यदि आधुनिक संदर्भ में कहें, तो यह भारत की देश में और बाहर जबरदस्त ब्रांडिंग है। इन सबसे न केवल यह धारणा खंडित हो रही है कि भारत को पश्चिम द्वारा एक राष्ट्र राज्य का स्वरूप दिया गया, इसकी कोई प्राचीन सभ्यता और ज्ञात इतिहास नहीं, बल्कि यह भी स्थापित हो रहा है कि यह प्राचीन सभ्यता व महान विरासत के ठोस आधारों पर खड़ा आधुनिकतम सोच व व्यवस्थाओं से सामंजस्य बिठाने वाला परिपूर्ण देश है। ऐसे ही समग्र चरित्र वाले देश की महत्ता और नेतृत्व क्षमता स्वीकृत हो सकती है। राजनीतिक नेतृत्व की यही भूमिका होनी चाहिए थी जो आज केंद्र से राज्य तक दिख रही है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा कुंभ के शुभारंभ के अवसर पर दिया गया नारा “कहती है गंगा की अविरल धारा,एक रहेगा देश हमारा”,”एक रहेंगे, नेक रहेंगे”,” एक रहेंगे, सेफ रहेंगे” तथा “बाटेंगे, तो काटेंगे” जैसे इन नारों की पृष्ठभूमि में महाकुंभ के मेले में कई नए आयाम स्थापित हुए हैं। प्रयागराज के त्रिवेणी संगम पर आयोजित महाकुंभ से जहां योगी का राजनीतिक कद बढ़ा है, वहीं पूरे देश में हिंदुत्व की भावना का भी संचार हुआ है। महाकुंभ के आयोजन को राजनीति के लिए आज से देखें तो त्रिवेणी संगम पर उमडा जन समागम जाति और पंथ की दीवारों को तोड़ता हुआ हिंदू एकता की तरफ अग्रसर होता दिखाई पड़ता है। महाकुंभ जैसे आयोजन में बगैर कुछ बोले संपूर्ण विश्व में यह संदेश जा रहा है कि कैसे एक साथ इतनी बड़ी संख्या में अलग-अलग पंथों, संप्रदायों, जिनके बीच घोर मतभेद और कुछ के मध्य संघर्ष रहे हैं, सब एकत्र होकर आत्मोद्धार, समाज और विश्व कल्याण के भाव से संगम में स्नान-यज्ञ आदि कर रहे हैं।
कुंभ मेला दो शब्दों कुंभ और मेला से बना है। कुंभ नाम अमृत के अमर पात्र या कलश से लिया गया है। जिसे देवता और राक्षसों ने प्राचीन वैदिक शास्त्रों में वर्णित पुराणों के रूप में वर्णित किया था। मेला, जैसा कि हम सभी परिचित हैं, एक संस्कृत शब्द है जिसका अर्थ है ‘सभा’ या ‘मिलना’। महा कुंभ का इतिहास वर्षों पुराना है। महाकुंभ से जुड़े कई रहस्य हमारे ग्रंथों में छिपे हुए हैं।कुछ ग्रंथों में उल्लेख है कि सतयुग से ही इस मेले का आयोजन किया जा रहा है। समुद्र मंथन के बारे में शिव पुराण, मत्स्य पुराण, पद्म पुराण, भविष्य पुराण समेत लगभग सभी पुराणों में जिक्र किया गया है। हिंदू पौराणिक कथाओं के अनुसार कुंभ मेला 12 वर्षों के दौरान चार बार मनाया जाता है। कुंभ मेले का आयोजन 4 तीर्थ स्थलों में होता है। उत्तराखंड में गंगा नदी पर हरिद्वार, मध्य प्रदेश में शिप्रा नदी पर उज्जैन, महाराष्ट्र में गोदावरी नदी पर नासिक और उत्तर प्रदेश में गंगा, यमुना और सरस्वती तीन नदियों के संगम पर प्रयागराज में।
महाकुंभ के संबंध में एक पौराणिक मान्यता यह भी है कि महर्षि दुर्वासा के श्राप के कारण जब इंद्र और देवता कमजोर पड़ गए, तब राक्षस ने देवताओं पर आक्रमण करके उन्हें परास्त कर दिया था। ऐसे में सब देवता मिलकर विष्णु भगवान के पास गए और सारा व्रतांत सुनाया। तब भगवान ने देवताओं को दैत्यों के साथ मिलकर समुद्र यानी क्षीर सागर में मंथन करके अमृत निकालने को कहा। सारे देवता भगवान विष्णु जी के कहने पर दैत्यों से संधि करके अमृत निकालने के प्रयास में लग गए। जैसे ही समुद्र मंथन से अमृत निकला देवताओं के इशारे पर इंद्र का पुत्र जयंत अमृत कलश लेकर उड़ गया। इस पर गुरु शंकराचार्य के कहने पर दैत्यों ने जयंत का पीछा किया और काफी परिश्रम करने के बाद दैत्यों ने जयंत को पकड़ लिया और अमृत कलश पर अधिकार जमाने के लिए देव और राक्षसों में 12 दिन तक भयानक युद्ध चला रहा। ऐसा कहा जाता है कि देवताओं के 12 दिन पृथ्वी पर 12 साल के बराबर होते हैं। इसलिए हर 12 साल में महाकुंभ का आयोजन किया जाता है।
मान्यताओं के अनुसार समुद्र मंथन के दौरान जब अमृत कलश बाहर आया था तब देवताओं और राक्षसों के बीच तनातनी और संघर्ष को कम करने के लिए भगवान विष्णु ने मोहिनी अवतार लिया था। इसके बाद जब देवताओं और राक्षसों के बीच संघर्ष काफी ज्यादा बढ़ गया तो उन्होंने इंद्र देव के पुत्र जयंत को यह अमृत कलश सौंप दिया गया। जयंत कौवे का रूप धारण कर राक्षसों से अमृत कलश को छिनकर उड़ चले थे। जब वह घट को लेकर भाग रहे थे तो अमृत कलश से कुछ बूंदे प्रयागराज, उज्जैन , हरिद्वार और नासिक में गिर गई थी। जहां जहां अमृत कलश की बूंदे गिरी वहां-वहां कुंभ मेला का आयोजन किया जाता है। हिन्दू शास्त्र में प्रयागराज में लगने वाले महा कुंभ का महत्व अधिक माना गया है। दरअसल, यहां तीन पवित्र नदियों गंगा, यमुना और सरस्वती का संगम है। जिस वजह से यह स्थान अन्य जगहों की तुलना में अधिक महत्वपूर्ण है।
बता दें सरस्वती नदी लुप्त हो चुकी हैं लेकिन, वह धरती का धरातल में आज भी बहती हैं। ऐसी मान्यता है कि जो व्यक्ति इन तीन नदियों के संगम में शाही स्नान करता है, उसे मोक्ष की प्राप्ति होती है। इसलिए प्रयागराज में इसका महत्व अधिक माना जाता है। किस स्थान पर कुंभ मेले का आयोजन किया जाएगा यह राशियों पर निर्भर करता है। कुंभ मेले में सूर्य और ब्रहस्पति का खास योगदान माना जाता है। जब सूर्य एवं ब्रहस्पति एक राशि से दूसरी राशि में प्रवेश करते हैं तभी कुंभ मेले को मनाया जाता है और इसी आधार पर स्थान ओत तिथि निर्धारित की जाती है। ज्योतिषचार्य पंडित श्यामसुंदर शर्मा बताते हैं कि जब ब्रहस्पति वर्षभ राशि में प्रवेश करते हैं और सूर्य मकर राशि में तब कुंभ मेले का आयोजन प्रयागराज में किया जाता है। जब सूर्य मेष राशि और ब्रहस्पति कुंभ राशि में प्रवेश करते हैं तब कुंभ मेले का आयोजन हरिद्वार में किया जाता है।
इसी प्रकार जब सूर्य और ब्रहस्पति का सिंह राशि में प्रवेश होता है तब यह महाकुंभ मेला नासिक में मनाया जाता है। जब ब्रहस्पति सिंह राशि में और सूर्य देव मेष राशि में प्रवेश करते हैं तब कुंभ मेले का आयोजन उज्जैन में किया जाता है। वहीं, जब सूर्य देव सिंह राशि में प्रवेश करते हैं, तो इस कारण उजैन, मध्यप्रदेश में जो कुंभ मनाया जाता है उसे सिंहस्थ कुंभ कहते हैं। सारे नवग्रहों में से सूर्य, चंद्र, गुरु और शनि की भूमिका कुंभ में महत्वपूर्ण मानी जाती है। जब अमृत कलश को लेकर देवताओं और राक्षसों के बीच युद्ध चल रहा था तब कलश की खींचा तानी में चंद्रमा ने अमृत को बहने से बचाया, गुरु ने कलश को छुपाया था, सूर्य देव ने कलश को फूटने से बचाया और शनि ने इंद्र के कोप से रक्षा की। इसीलिए ही तो जब इन ग्रहों का योग संयोग एक राशि में होता है तब कुंभ मेले का आयोजन होता है। हर तीसरे वर्ष कुंभ का आयोजन होता है।
गुरु ग्रह एक राशि में एक साल तक रहता है और हर राशि में जाने में लगभग 12 वर्षों का समय लग जाता है। इसीलिए हर 12 साल बाद उसी स्थान पर कुंभ का आयोजन किया जाता है। निर्धारित चार स्थानों में अलग-अलग स्थान पर हर तीन साल में कुंभ लगता है। प्रयागराज का कुंभ के लिए आशिक महत्व है,क्योंकि 144 वर्ष बाद यहां पर महाकुंभ का आयोजन हो रहा है। कुंभ मेलों के प्रकार पर गौर करें, तो सबसे बड़ा महाकुंभ मेला है,जो केवल प्रयागराज में ही आयोजित किया जाता है। यह प्रत्येक 144 वर्षों में या 12 पूर्ण कुंभ मेले के बाद आता है। पूर्ण कुंभ मेला हर 12 साल में आता है। मुख्य रूप से भारत में 4 कुंभ मेला स्थान यानि प्रयागराज, हरिद्वार, नासिक और उज्जैन में आयोजित किए जाते हैं। यह हर 12 साल में इन 4 स्थानों पर बारी-बारी आते है। जबकि,अर्ध कुंभ मेला भारत में हर 6 साल में केवल दो स्थानों पर होता है यानी हरिद्वार और प्रयागराज में। इसी प्रकार कुंभ मेला चार अलग-अलग स्थानों पर राज्य सरकारों द्वारा हर तीन साल में आयोजित किया जाता है। लाखों लोग आध्यात्मिक उत्साह के साथ भाग लेते हैं।
इसके अलावा माघ कुंभ मेले को मिनी कुंभ मेले के रूप में भी जाना जाता है, जो प्रतिवर्ष और केवल प्रयागराज में आयोजित किया जाता है। यह हिंदू कैलेंडर के अनुसार माघ के महीने में आयोजित किया जाता है। संसदीय लोकतंत्र में राजनीतिक नेतृत्व की सर्वाधिक महत्वपूर्ण भूमिका हो गयी है। ऐसा नहीं है कि राजनीतिक सत्ता हमारे धर्म व कर्मकांड आदि के रास्ते निर्धारित करते हैं। लेकिन महाकुंभ के शानदार आयोजन के चलते केंद्र की प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सरकार और प्रदेश की योगी आदित्यनाथ सरकार पूर्व की सरकारों से गुणात्मक रूप से भिन्न प्रमाणित हो रही है। इतने विशाल और व्यापक जनसमूह वाले लंबे आयोजन की दृष्टि से कोई भी व्यवस्था संपूर्ण या आदर्श नहीं हो सकती। बावजूद आप संघ, भाजपा, मोदी, योगी या उनकी सरकारों के विरोधी हों या समर्थक, निष्पक्षता से विचार कीजिए और निष्कर्ष निकालिए कि क्या पूर्व की सरकारें ऐसे धार्मिक-आध्यात्मिक महत्व के आयोजनों को इनकी मौलिकता के अनुरूप स्वरूप देने के लिए इतनी सूक्ष्मता से विचार एवं व्यवस्थाएं करती रहीं हैं?
यदि आधुनिक संदर्भ में कहें, तो यह भारत की देश में और बाहर जबरदस्त ब्रांडिंग है। इन सबसे न केवल यह धारणा खंडित हो रही है कि भारत को पश्चिम द्वारा एक राष्ट्र राज्य का स्वरूप दिया गया, इसकी कोई प्राचीन सभ्यता और ज्ञात इतिहास नहीं, बल्कि यह भी स्थापित हो रहा है कि यह प्राचीन सभ्यता व महान विरासत के ठोस आधारों पर खड़ा आधुनिकतम सोच व व्यवस्थाओं से सामंजस्य बिठाने वाला परिपूर्ण देश है। ऐसे ही समग्र चरित्र वाले देश की महत्ता और नेतृत्व क्षमता स्वीकृत हो सकती है। राजनीतिक नेतृत्व की यही भूमिका होनी चाहिए थी जो आज केंद्र से राज्य तक दिख रही है।