लहंगा, चोली और चुनरी ही मात्रा एक ऐसा परिधान है जिसे पहनकर सुंदरियों की सुंदरता में चार चांद लग जाते हैं। यह एक ऐसा परिधान है जिसे नृत्य के दौरान या किसी उत्सव, समारोह के मौके पर पहनकर लोगों के आकर्षण का केंद्र बना जा सकता है। इस परिधान को पहनकर महफिलों में छा जाना तो आम बात है।
आज के समय में बंजारों के बीच प्रचलित घुटने तक के बहुतेरे लहंगे बाजार में देखने को मिलते हैं। सुनहरे पीले रंग का ढेर सारी चुन्नटों वाला लहंगा, काली पृष्ठविहीन (बैकलेस) चोली के साथ सुनहरे तारों से सजी दो रंगों से युक्त भारी चुनरी पहनकर तो व्यक्तित्व और भी निखर उठता है। इसकी खूबसूरती ऐसी होती है कि कोई भी महिला इसे पहनकर अपने स्त्राीत्व पर गर्व करने से चूकती नहीं है।
लहंगा-चोली एकमात्रा ऐसा परिधान है जो कल भी फैशन में था और आज भी है। पूरब से पश्चिम तक फैशन शो के रैम्प से लेकर जनजातीय बंजारों तक यह एक समान लोकप्रिय है। उत्तर भारत के लगभग सभी प्रदेशों में शादी-ब्याह के मौके पर यह राजसी पोशाक अपने विभिन्न रूप रंगों में छटा बिखेरती नजर आती है।
साटिन, सिल्क, शिफॉन, जार्जेट जैसे कपड़ों में सुनहरे तारों, गोटों, सितारों एवं रेशम आदि की कढ़ाई से सजा लहंगा किसी गहने से कम नहीं लगता। उत्तरी राज्यों में शादी के मौके पर भारी लहंगे अवश्य ही पहने जाते हैं। सिर्फ रेशमी या चमकीले कपड़ों में ही नहीं, बल्कि सूती कपड़ों के लहंगे भी सौंदर्य, सादगी और विशिष्टता का अद्भुत संगम हैं।
राजस्थानी बांधनी के लाल, पीले, हरे जैसे चटक रंगों से सजे लहंगे होते हैं या गुजराती चनिया-चोली, लहंगे हर परिधान पर भारी पड़ते हैं। यही कारण है कि फैशन-विशेषज्ञों को भी लहंगों पर किये जाने वाले विभिन्न्न प्रयोग बहुत भाते हैं।
यूं भी लहंगों के पारंपरिक डिजाइनों में इतनी विविधता मौजूद है कि इसमें कुछ नई खोजों की बहुत ज्यादा गुंजाइश नहीं बचती लेकिन फिर भी डिजाइनरों ने पाश्चात्य परिधानों के स्टाइल को लहंगों के साथ संयोजित कर कुछ नये डिजाइन विकसित किये हैं। इन मिले-जुले स्टाइल (फ्यूजन) के लहंगों में इंडोवेस्टर्न प्रयोग किये गये हैं।
अमूमन पारम्परिक उत्तर भारतीय लहंगे साटिन, शिफॉन, सिल्क टिश्यू, जार्जेट आदि कपड़ों से बनाये जाते हैं तथा गोटे, जरी, शीशे, रेशम की कढ़ाई आदि से इन्हें सजीला बनाया जाता है लेकिन जामदानी, जरदोजी, नाकाटीकी वर्क के सजे लहंगे अधिक लोकप्रिय हुए हैं। इटालियन क्रेप, नेट जैसे कपड़ों के लहंगों की प्रसिद्धि बढ़ी है।
परंपरागत रूप से दुल्हन के लिए तैयार किये जाने वाले भारी लहंगों में सुनहरे तारों के अलावा घुंघरू भी लगाये जाते हैं। कुछ वर्गों में दुल्हन को शादी में लहंगा ही पहनाया जाता है और यह लहंगा उसके ससुराल से तैयार होकर आता है और इन लहंगों के साथ भारी गहने और सुनहरी जूतियों, सैंडिलों का प्रयोग किया जाता है।
भिन्न-भिन्न प्रदेशों में लहंगों की प्रकृति थोड़ी बदल जाती है। कहीं छोटे लहंगे तो कहीं लम्बे कुर्ते, तो कहीं छोटी चोली। फिल्म बाम्बे में मनीषा कोईराला द्वारा पहने गये लाचा का प्रचलन भी पिछले वर्षों मंे खूब रहा है। अब फिर से यह प्रचलन में हैं। लाचा में कुर्ते की लंबाई थोड़ी अधिक होती है, साथ लहंगे का घेरा भी पारंपरिक लहंगों की तुलना में थोड़ा कम रहता है।
बंजारों के लहंगे घुटने के पास तक की लंबाई के होते हैं। इनमें प्राकृतिक रंगों का इस्तेमाल होता है। गहरे रंग का संयोजन इनमें होता है। कौडि़यों, सुनहरे तारों व गोटों आदि से इन्हें सजाया जाता है। इस पर की गयी कसीदाकारी बदला वर्क कहलाती है। इसके साथ चुनरी रंग-बिरंगी और काफी खूबसूरत होती है।
राजस्थानी लहंगों में बांधनी के लहंगों ने अपनी खास पहचान बनायी है। युवा वर्ग में बांधनी प्रिंट लहंगे खास लोकप्रिय हैं। इसकी वजह इनका सूती कपड़ों से बनाना एवं चटक रंगों का इस्तेमाल है। साथ ही ये आरामदेह भी होते हैं। इन दिनों शिफॉन, सिल्क, जार्जेट टिश्यू के अलावा इटालियन क्रेप और नेट के लहंगे मिल रहे हैं। परंपरागत लाल, गुलाबी, मैरून, मैजंेटा रंगों से हटकर ग्रीन, हल्का आसमानी, क्रीम, हल्का बैंगनी रंगों के लहंगों की खरीदारी बढ़ रही है।
लहंगा-चोली-चुनरी पहनकर दुल्हन बनना एक रोमांच उत्पन्न करता है।