नयी दिल्ली, उच्चतम न्यायालय के पांच न्यायाधीशों की पीठ ने बृहस्पतिवार को एक अहम कानूनी मुद्दे पर सुनवाई शुरू की कि क्या अदालतें मध्यस्थता और सुलह से संबंधित वर्ष 1996 के कानून के प्रावधानों के तहत मध्यस्थता से जुड़े फैसलों को संशोधित कर सकती हैं?
प्रधान न्यायाधीश संजीव खन्ना और न्यायमूर्ति बी आर गवई, न्यायमूर्ति संजय कुमार, न्यायमूर्ति केवी विश्वनाथन और न्यायमूर्ति ऑगस्टीन जॉर्ज मसीह की एक संविधान पीठ वर्तमान में केंद्र की ओर से सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता को सुन रही है।
मध्यस्थता और सुलह अधिनियम, 1996 के तहत विवाद के निपटारे का एक वैकल्पिक तरीका मध्यस्थता है और यह न्यायाधिकरणों द्वारा दिये गए फैसलों में अदालतों के हस्तक्षेप करने की भूमिका को कम करता है।
अधिनियम की धारा 34 प्रक्रियात्मक अनियमितताओं, सार्वजनिक नीति के उल्लंघन या अधिकार क्षेत्र की कमी जैसे सीमित आधार पर मध्यस्थता से जुड़े फैसलों को रद्द करने का प्रावधान करती है।
धारा 37 मध्यस्थता से संबंधित आदेशों के खिलाफ अपील को नियंत्रित करती है, जिसमें फैसले को रद्द करने से इनकार करने वाले आदेश भी शामिल हैं।
प्रधान न्यायाधीश की अध्यक्षता वाली तीन न्यायाधीशों की पीठ ने 23 जनवरी को इस विवादास्पद मुद्दे को एक बड़ी पीठ को सौंप दिया था।
पीठ ने कहा कि यह अदालत सबसे पहले भारतीय राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण (एनएचएआई) के परियोजना निदेशक बनाम एम हकीम मामले में दिये गए उस कारण पर पुनर्विचार की मांग करने वाले वकील की दलीलें सुनेगी, जिसमें यह निहित है कि अदालत के पास मध्यस्थता और सुलह अधिनियम, 1996 की धारा 34 और 37 के तहत एक फैसले को संशोधित करने की शक्ति है।
पीठ के मुताबिक, इसके बाद न्यायालय उस वकील की दलीलें सुनेगी जिसका मत है कि धारा 34 और 37 के तहत दिये गए फैसलों में संशोधन करने की शक्ति अदालत में नहीं है।