आंदोलनकारी केजरीवाल, राजनेता केजरीवाल और कूटनीतिज्ञ केजरीवाल!
Focus News 13 February 2025 0![Untitled-1](https://focusnews.co.in/wp-content/uploads/2025/02/Untitled-1-10.jpg)
यदि आपने जंतर-मंतर के ‘आंदोलनकारी अरविंद केजरीवाल’ को देखा है, आम आदमी पार्टी के राष्ट्रीय संयोजक और दिल्ली के मुख्यमंत्री के रूप में ‘राजनेता अरविंद केजरीवाल’ को परखा है, तो आपको यह अवश्य समझ में आया होगा कि यह जुनूनी व्यक्तित्व किसी ‘कुटनीतिज्ञ केजरीवाल’ का नहीं हो सकता है, जो कि राजनैतिक सफलता को स्थायित्व देने की पहली शर्त समझी जाती है।
ऐसा मैं इसलिए कह रहा हूँ कि जनसमस्याओं की शिनाख्त करने और उसके समाधान हेतु यानी लोकपाल बिल लाने के लिए उनका मिजाज अख्खड़ था और किसी से भी टकराव मोल लेने में वो कभी पीछे नहीं हटे। कुछ यही वजह है कि उनके डिप्लोमैटिक सहयोगी बदलते समय के साथ केजरीवाल के बढ़ते सियासी कद से जलते-भुनते हुए उनका साथ/हाथ दोनों छोड़ते चले गए।
वहीं, कुछ विघ्न-संतोषियों को उन्हें खुद दूर करना पड़ा या अपने भरोसेमंद सहयोगियों के मार्फ़त करवाना पड़ा किंतु केजरीवाल ने कभी भी गहराई पूर्वक इसकी परवाह नहीं की कि आखिर यह सब क्यों और कैसे हो रहा है? वह तो सिर्फ अपने मातहत चलने वाले लोगों को जोड़ते चले गए और भारत की राजनीति में व्यक्तिगत सफलता का न केवल लोहा मनवाया बल्कि एक कीर्तिमान स्थापित कर दिया।
ऐसे में वह यदि कूटनीतिज्ञ मिजाज के होते तो अपने धुर विरोधियों की लंबी लिस्ट तैयार नहीं होने देते। समाजसेवी अन्ना हजारे, प्रशांत भूषण, किरण बेदी, योगेंद्र यादव, कुमार विश्वास, जनरल वी के सिंह, स्वाति मालीवाल, साजिया इल्मी जैसे लोगों की एक लंबी फेहरिस्त है, जो उनसे खफा होते चले गए, पर एक घाघ राजनेता की तरह केजरीवाल ने उन्हें मनाने की कोई जरूरत नहीं समझी। यह उनकी व उनके सहयोगियों की कूटनीतिक विफलता आंकी जाती है क्योंकि राजनीति तो एक एक व्यक्ति को जोड़ने का पेशा है, असहमतियों को भी सम्मान देने का धंधा है, लेकिन अपने अख्खड़ स्वभाव के चलते वह ऐसा नहीं कर पाए। कुछ इसी वजह है वो इंडिया गठबंधन में भी फिट नहीं बैठे।
हालांकि, अब आप समर्थकों का दृढ़ विश्वास है कि दिल्ली विधानसभा चुनाव 2025 में उन्हें यानी अरविंद केजरीवाल को, उनके खास सहयोगियों यानी मनीष सिसोदिया, सत्येंद्र जैन आदि को और उनकी आम आदमी पार्टी यानी आप को मिला चुनावी झटका और इसके बाद उतपन्न होने वाली नानाविध राजनीतिक, सामाजिक व प्रशासनिक परिस्थितियां निश्चय ही उनमें कूटनीतिक मिजाज पैदा कर देगी और फिर जब ‘कुटनीतिज्ञ केजरीवाल’ का रूपांतरण हो जाएगा, तब वह भारतीय जनहितैषी राजनीति के क्षेत्र में इससे भी जोरदार धमाका करेंगे। क्योंकि ऐसा करते रहना उनका मूल स्वभाव है।
सच कहूं तो भारतीय राजनीति में पूंजीवाद समर्थक भाजपा और कांग्रेस जैसे राष्ट्रीय दलों, उनके पिछलग्गू क्षेत्रीय दलों, लगातार अप्रासंगिक होते जा रहे समाजवादियों-वामपंथियों और निरंतर सक्रिय होते जा रहे साम्प्रदायिक-जातिवादी तत्वों को संतुलित करने के लिए आम आदमी पार्टी और अरविंद केजरीवाल की जरूरत पड़ेगी। क्योंकि यदि उनका सियासी आविष्कार दिल्ली वासियों ने नहीं किया होता तो शिक्षा, स्वास्थ्य, बिजली, पानी और विभिन्न तरह की फ्रीबीज की ओर कांग्रेस-भाजपा कभी नहीं लौटती।
कहते हैं कि सफलता के सौ मां-बाप होते हैं लेकिन असफलता अनाथ होती है। लिहाजा अरविंद केजरीवाल के समक्ष अभी यही स्थिति है। वर्ष 2010-12, 2013, 2015, 2020, 2022 तक उनके राजनैतिक उत्थान का काल रहा। दिल्ली में तीसरी सियासी सफलता के बाद पंजाब और दिल्ली एमसीडी पर उन्होंने कब्जा जमाया। फिर गुजरात, गोवा के विधानसभा चुनावों में अपनी मजबूत स्थिति दर्ज करवाकर वहां भी कांग्रेस को कमजोर किया। हिमाचल प्रदेश, महाराष्ट्र, हरियाणा, उत्तरप्रदेश के विधानसभा चुनावों में भी अपना दखल बढ़ाया लेकिन उम्मीद के मुताबिक सफलता नहीं मिली जबकि जम्मू-कश्मीर विधानसभा चुनाव में अपना खाता खोल लिए।
इधर, दिल्ली विधानसभा की निर्वाचित सरकार बनाम केंद्र सरकार के प्रतिनिधि के तौर पर उपराज्यपाल के प्रशासनिक हस्तक्षेप के मुद्दे पर केंद्र की भाजपा सरकार पर लगातार हावी रहे और सर्वोच्च न्यायालय के हस्तक्षेप से कई मनोनुकूल फैसले करवाए हालांकि, वर्ष 2023-2024 में भ्रष्टाचार के आरोप न केवल उनकी पार्टी के मंत्रियों बल्कि खुद उनपर भी भारी पड़ने लगे। भारतीय ज्योतिष में मान्यता है कि दस साल में किसी भी व्यक्ति या संस्था की दशा बदलती है। कुछ यही उनके साथ भी हुआ। 2025 में दिल्ली विधानसभा चुनाव हारते ही आप और अरविंद केजरीवाल पर सियासी तंज कसे जाने लगे।
यदि आपको राजनीति की समझ है तो अवश्य पता होगा कि राजनीति में कभी भी दो जोड़ दो चार नहीं होता है बल्कि इससे ज्यादा या कम होता है। इसी गणित को अरविंद केजरीवाल समझ नहीं पाए, चाहे मुख्यमंत्री की अनुपस्थिति में 15 अगस्त को झंडा फहराने के लिए किया गया चयन हो या फिर मुख्यमंत्री के उत्तराधिकारी के रूप में आतिशी को मुख्यमंत्री पद का दिया हुआ जिम्मा हो, या फिर अपने विधायकों का टिकट काटने का फैसला, यह सबकुछ आप के कोर ग्रुप में भी शह-मात की ऐसी
गुप्त पटकथा तैयार कर दी कि आप की दुर्गति हो गई।
हालांकि, जाते-जाते भी अरविंद केजरीवाल मध्यम वर्ग के मुद्दे उठा कर गए और भाजपा भी उसे लोकने को विवश हो गई। चाहे आठवें वेतन आयोग के गठन की बात हो या आयकर में 12.75 लाख तक की छूट देना हो, या फिर बजट 2025-26 की कुछ अन्य सौगात, भाजपा ने आप से कड़ी प्रतिस्पर्धा में ही यह सब किया अन्यथा 2014 से 2023 तक मध्यम वर्ग का रक्त चूसने में उसने कोई कभी नहीं छोड़ी। 2024 में आयकर दायरा बढ़ाकर थोड़ी मोहलत दी और 2025 में तो मध्यम वर्ग को निहाल ही कर दिया। फिर दिल्ली के मध्यम वर्गीय मतदाताओं ने भी भाजपा को निहाल करते हुए उसे ‘सियासी सत्तइसा’ से 27वें वर्ष में मुक्त कर दिया।
वहीं, आप और अरविंद केजरीवाल के सियासी विरोधियों को यह मानना पड़ेगा कि राजनीति में कोई एक चुनाव हार जाने से किसी भी राजनेता या उसके दल की राजनीतिक मौत नहीं हो जाती है, बल्कि यह वह चिंतन की परिस्थिति होती है जिसके बाद से कोई राजनेता और उसका दल पुनः मजबूत होकर उभरता है। चाहे इंदिरा गांधी रही हों या सोनिया गांधी, अटल बिहारी बाजपेयी रहे हों या लालकृष्ण आडवाणी, लालू प्रसाद, मुलायम सिंह यादव, मायावती, रामविलास पासवान जैसे राजनेताओं की एक लंबी फेहरिस्त रही है अथवा है, जो एक चुनावी हार के बाद पुनः चुनावी जीत हासिल किए और पहले से ज्यादा परिपक्व राजनीति की। उत्तर से लेकर दक्षिण और पूरब से लेकर पश्चिम भारत में कई ऐसे दल या राजनीतिक परिवार मिल जाएंगे, जो चुनावी हार के बाद ज्यादा परिपक्व हुए।
अभी भी अरविंद केजरीवाल और आप के पास पंजाब सरकार है, दिल्ली में ही एमसीडी सरकार है जिसके महापौर की हैसियत कई मामलों में मुख्यमंत्री के समतुल्य या कुछ कम ही समझी जाती है। इसलिए अरविंद केजरीवाल को सूझबूझ से, सलाह-मशविरा से आप को राष्ट्रीय फलक पर मजबूत करने के बेतहर अवसर मिलेंगे क्योंकि समकालीन विपक्ष निष्तेज और बुद्धिहीन है। इस प्रकार वह पहले भारत की मुख्य विपक्षी पार्टी बनने का एजेंडा अपनाएं, उसमें यदि सफल हो गए तो दिल्ली की सूबाई सत्ता गई है, नई दिल्ली की केंद्रीय सता में 2029 में पुनर्वापसी की संभावनाएं नहीं। वहीं, 2030 के दिल्ली विधानसभा चुनाव की तैयारियों में अभी से जुट जाएं। कुछ ऐसा ही संकेत उन्होंने दिया भी है।
आज भी इंडिया अगेंस्ट करप्शन के बहुचर्चित जनलोकपाल आंदोलन के मुख्य सूत्रधार रहे आंदोलनकारी केजरीवाल यदि चाहे तो एक राजनेता केजरीवाल के रूप में अपना पुराना जलवा कायम कर सकते हैं, बस इसके लिए ‘आ बैल मुझे मार’ वाली राजनीति को तिलांजलि देकर उन्हें कूटनीतिज्ञ केजरीवाल जैसी राजनीति करनी होगी क्योंकि दिल्ली छोटा हिंदुस्तान समझा जाता है। मैंने महसूस किया है कि 2010 के बाद समाजसेवी आंदोलनों और राजनीति में कार्यकर्ताओं या जनहितैषी सहूलियतों की जो शुरुआत उन्होंने की या कराई, देर सबेर भारतीय राजनीति भी उसी पैटर्न पर लौटी। इसलिए बरास्ता दिल्ली, पूरे देश में पनपने की जो उन्होंने सकारात्मक शुरुआत की थी, उसकी लौ फिलवक्त भले ही मध्यम पड़ गई हो, लेकिन उसे सियासी हताशा व निराशा में बुझने नहीं देना है।
वैसे भी दिल्ली ही नहीं बल्कि देश के मतदाता भी समय के साथ यह समझ जाएंगे कि आप जैसे क्षेत्रीय दल भाजपा जैसे विशाल संसाधनों वाले दल का मुकाबला सिर्फ इसलिए नहीं कर पाए कि उसकी नीति जनहितकारी अवश्य रही, लेकिन धन्नासेठों की खुशामदी वाली नहीं, इसलिए मात खा गई। जहां तक भ्रष्टाचार के आरोपों का सवाल है तो इस मामले में सियासी हमाम में सभी नंगे हैं, कोई कम-कोई ज्यादा। चाहे मुद्दों से आंखमिचौली हो या फिर सत्ताविरोधी रुझान से दो-दो हाथ करना, अभी दलों को इससे जूझना पड़ता है, क्योंकि भारतीय प्रशासन अपना स्वार्थ पहले देखता है, राजनीतिक स्वार्थ बाद में, वो भी लाभगत मामलों में तो बिल्कुल नहीं!
सच कहूं तो जिस प्रकार से भाजपा और कांग्रेस ने मिलकर यानी आपसी अंतर सहमति से दिल्ली में आप जैसे मजबूत क्षेत्रीय दल का शिकार किया है, वह उनकी पुरानी आदतों में शामिल है लेकिन आप और केजरीवाल को यह साबित करना है कि उनकी राजनीतिक फौज में एक नहीं बल्कि अनेक अर्जुन और अभिमन्यु हैं! आखिर कितने की सियासी बलि वो चाहेंगे! एक न एक दिन राजनीतिक कौरव थक ही जाएंगे, कालचक्र वश थम ही जाएंगे।
ऐसा मैं इसलिए कह रहा हूँ कि जनसमस्याओं की शिनाख्त करने और उसके समाधान हेतु यानी लोकपाल बिल लाने के लिए उनका मिजाज अख्खड़ था और किसी से भी टकराव मोल लेने में वो कभी पीछे नहीं हटे। कुछ यही वजह है कि उनके डिप्लोमैटिक सहयोगी बदलते समय के साथ केजरीवाल के बढ़ते सियासी कद से जलते-भुनते हुए उनका साथ/हाथ दोनों छोड़ते चले गए।
वहीं, कुछ विघ्न-संतोषियों को उन्हें खुद दूर करना पड़ा या अपने भरोसेमंद सहयोगियों के मार्फ़त करवाना पड़ा किंतु केजरीवाल ने कभी भी गहराई पूर्वक इसकी परवाह नहीं की कि आखिर यह सब क्यों और कैसे हो रहा है? वह तो सिर्फ अपने मातहत चलने वाले लोगों को जोड़ते चले गए और भारत की राजनीति में व्यक्तिगत सफलता का न केवल लोहा मनवाया बल्कि एक कीर्तिमान स्थापित कर दिया।
ऐसे में वह यदि कूटनीतिज्ञ मिजाज के होते तो अपने धुर विरोधियों की लंबी लिस्ट तैयार नहीं होने देते। समाजसेवी अन्ना हजारे, प्रशांत भूषण, किरण बेदी, योगेंद्र यादव, कुमार विश्वास, जनरल वी के सिंह, स्वाति मालीवाल, साजिया इल्मी जैसे लोगों की एक लंबी फेहरिस्त है, जो उनसे खफा होते चले गए, पर एक घाघ राजनेता की तरह केजरीवाल ने उन्हें मनाने की कोई जरूरत नहीं समझी। यह उनकी व उनके सहयोगियों की कूटनीतिक विफलता आंकी जाती है क्योंकि राजनीति तो एक एक व्यक्ति को जोड़ने का पेशा है, असहमतियों को भी सम्मान देने का धंधा है, लेकिन अपने अख्खड़ स्वभाव के चलते वह ऐसा नहीं कर पाए। कुछ इसी वजह है वो इंडिया गठबंधन में भी फिट नहीं बैठे।
हालांकि, अब आप समर्थकों का दृढ़ विश्वास है कि दिल्ली विधानसभा चुनाव 2025 में उन्हें यानी अरविंद केजरीवाल को, उनके खास सहयोगियों यानी मनीष सिसोदिया, सत्येंद्र जैन आदि को और उनकी आम आदमी पार्टी यानी आप को मिला चुनावी झटका और इसके बाद उतपन्न होने वाली नानाविध राजनीतिक, सामाजिक व प्रशासनिक परिस्थितियां निश्चय ही उनमें कूटनीतिक मिजाज पैदा कर देगी और फिर जब ‘कुटनीतिज्ञ केजरीवाल’ का रूपांतरण हो जाएगा, तब वह भारतीय जनहितैषी राजनीति के क्षेत्र में इससे भी जोरदार धमाका करेंगे। क्योंकि ऐसा करते रहना उनका मूल स्वभाव है।
सच कहूं तो भारतीय राजनीति में पूंजीवाद समर्थक भाजपा और कांग्रेस जैसे राष्ट्रीय दलों, उनके पिछलग्गू क्षेत्रीय दलों, लगातार अप्रासंगिक होते जा रहे समाजवादियों-वामपंथियों और निरंतर सक्रिय होते जा रहे साम्प्रदायिक-जातिवादी तत्वों को संतुलित करने के लिए आम आदमी पार्टी और अरविंद केजरीवाल की जरूरत पड़ेगी। क्योंकि यदि उनका सियासी आविष्कार दिल्ली वासियों ने नहीं किया होता तो शिक्षा, स्वास्थ्य, बिजली, पानी और विभिन्न तरह की फ्रीबीज की ओर कांग्रेस-भाजपा कभी नहीं लौटती।
कहते हैं कि सफलता के सौ मां-बाप होते हैं लेकिन असफलता अनाथ होती है। लिहाजा अरविंद केजरीवाल के समक्ष अभी यही स्थिति है। वर्ष 2010-12, 2013, 2015, 2020, 2022 तक उनके राजनैतिक उत्थान का काल रहा। दिल्ली में तीसरी सियासी सफलता के बाद पंजाब और दिल्ली एमसीडी पर उन्होंने कब्जा जमाया। फिर गुजरात, गोवा के विधानसभा चुनावों में अपनी मजबूत स्थिति दर्ज करवाकर वहां भी कांग्रेस को कमजोर किया। हिमाचल प्रदेश, महाराष्ट्र, हरियाणा, उत्तरप्रदेश के विधानसभा चुनावों में भी अपना दखल बढ़ाया लेकिन उम्मीद के मुताबिक सफलता नहीं मिली जबकि जम्मू-कश्मीर विधानसभा चुनाव में अपना खाता खोल लिए।
इधर, दिल्ली विधानसभा की निर्वाचित सरकार बनाम केंद्र सरकार के प्रतिनिधि के तौर पर उपराज्यपाल के प्रशासनिक हस्तक्षेप के मुद्दे पर केंद्र की भाजपा सरकार पर लगातार हावी रहे और सर्वोच्च न्यायालय के हस्तक्षेप से कई मनोनुकूल फैसले करवाए हालांकि, वर्ष 2023-2024 में भ्रष्टाचार के आरोप न केवल उनकी पार्टी के मंत्रियों बल्कि खुद उनपर भी भारी पड़ने लगे। भारतीय ज्योतिष में मान्यता है कि दस साल में किसी भी व्यक्ति या संस्था की दशा बदलती है। कुछ यही उनके साथ भी हुआ। 2025 में दिल्ली विधानसभा चुनाव हारते ही आप और अरविंद केजरीवाल पर सियासी तंज कसे जाने लगे।
यदि आपको राजनीति की समझ है तो अवश्य पता होगा कि राजनीति में कभी भी दो जोड़ दो चार नहीं होता है बल्कि इससे ज्यादा या कम होता है। इसी गणित को अरविंद केजरीवाल समझ नहीं पाए, चाहे मुख्यमंत्री की अनुपस्थिति में 15 अगस्त को झंडा फहराने के लिए किया गया चयन हो या फिर मुख्यमंत्री के उत्तराधिकारी के रूप में आतिशी को मुख्यमंत्री पद का दिया हुआ जिम्मा हो, या फिर अपने विधायकों का टिकट काटने का फैसला, यह सबकुछ आप के कोर ग्रुप में भी शह-मात की ऐसी
गुप्त पटकथा तैयार कर दी कि आप की दुर्गति हो गई।
हालांकि, जाते-जाते भी अरविंद केजरीवाल मध्यम वर्ग के मुद्दे उठा कर गए और भाजपा भी उसे लोकने को विवश हो गई। चाहे आठवें वेतन आयोग के गठन की बात हो या आयकर में 12.75 लाख तक की छूट देना हो, या फिर बजट 2025-26 की कुछ अन्य सौगात, भाजपा ने आप से कड़ी प्रतिस्पर्धा में ही यह सब किया अन्यथा 2014 से 2023 तक मध्यम वर्ग का रक्त चूसने में उसने कोई कभी नहीं छोड़ी। 2024 में आयकर दायरा बढ़ाकर थोड़ी मोहलत दी और 2025 में तो मध्यम वर्ग को निहाल ही कर दिया। फिर दिल्ली के मध्यम वर्गीय मतदाताओं ने भी भाजपा को निहाल करते हुए उसे ‘सियासी सत्तइसा’ से 27वें वर्ष में मुक्त कर दिया।
वहीं, आप और अरविंद केजरीवाल के सियासी विरोधियों को यह मानना पड़ेगा कि राजनीति में कोई एक चुनाव हार जाने से किसी भी राजनेता या उसके दल की राजनीतिक मौत नहीं हो जाती है, बल्कि यह वह चिंतन की परिस्थिति होती है जिसके बाद से कोई राजनेता और उसका दल पुनः मजबूत होकर उभरता है। चाहे इंदिरा गांधी रही हों या सोनिया गांधी, अटल बिहारी बाजपेयी रहे हों या लालकृष्ण आडवाणी, लालू प्रसाद, मुलायम सिंह यादव, मायावती, रामविलास पासवान जैसे राजनेताओं की एक लंबी फेहरिस्त रही है अथवा है, जो एक चुनावी हार के बाद पुनः चुनावी जीत हासिल किए और पहले से ज्यादा परिपक्व राजनीति की। उत्तर से लेकर दक्षिण और पूरब से लेकर पश्चिम भारत में कई ऐसे दल या राजनीतिक परिवार मिल जाएंगे, जो चुनावी हार के बाद ज्यादा परिपक्व हुए।
अभी भी अरविंद केजरीवाल और आप के पास पंजाब सरकार है, दिल्ली में ही एमसीडी सरकार है जिसके महापौर की हैसियत कई मामलों में मुख्यमंत्री के समतुल्य या कुछ कम ही समझी जाती है। इसलिए अरविंद केजरीवाल को सूझबूझ से, सलाह-मशविरा से आप को राष्ट्रीय फलक पर मजबूत करने के बेतहर अवसर मिलेंगे क्योंकि समकालीन विपक्ष निष्तेज और बुद्धिहीन है। इस प्रकार वह पहले भारत की मुख्य विपक्षी पार्टी बनने का एजेंडा अपनाएं, उसमें यदि सफल हो गए तो दिल्ली की सूबाई सत्ता गई है, नई दिल्ली की केंद्रीय सता में 2029 में पुनर्वापसी की संभावनाएं नहीं। वहीं, 2030 के दिल्ली विधानसभा चुनाव की तैयारियों में अभी से जुट जाएं। कुछ ऐसा ही संकेत उन्होंने दिया भी है।
आज भी इंडिया अगेंस्ट करप्शन के बहुचर्चित जनलोकपाल आंदोलन के मुख्य सूत्रधार रहे आंदोलनकारी केजरीवाल यदि चाहे तो एक राजनेता केजरीवाल के रूप में अपना पुराना जलवा कायम कर सकते हैं, बस इसके लिए ‘आ बैल मुझे मार’ वाली राजनीति को तिलांजलि देकर उन्हें कूटनीतिज्ञ केजरीवाल जैसी राजनीति करनी होगी क्योंकि दिल्ली छोटा हिंदुस्तान समझा जाता है। मैंने महसूस किया है कि 2010 के बाद समाजसेवी आंदोलनों और राजनीति में कार्यकर्ताओं या जनहितैषी सहूलियतों की जो शुरुआत उन्होंने की या कराई, देर सबेर भारतीय राजनीति भी उसी पैटर्न पर लौटी। इसलिए बरास्ता दिल्ली, पूरे देश में पनपने की जो उन्होंने सकारात्मक शुरुआत की थी, उसकी लौ फिलवक्त भले ही मध्यम पड़ गई हो, लेकिन उसे सियासी हताशा व निराशा में बुझने नहीं देना है।
वैसे भी दिल्ली ही नहीं बल्कि देश के मतदाता भी समय के साथ यह समझ जाएंगे कि आप जैसे क्षेत्रीय दल भाजपा जैसे विशाल संसाधनों वाले दल का मुकाबला सिर्फ इसलिए नहीं कर पाए कि उसकी नीति जनहितकारी अवश्य रही, लेकिन धन्नासेठों की खुशामदी वाली नहीं, इसलिए मात खा गई। जहां तक भ्रष्टाचार के आरोपों का सवाल है तो इस मामले में सियासी हमाम में सभी नंगे हैं, कोई कम-कोई ज्यादा। चाहे मुद्दों से आंखमिचौली हो या फिर सत्ताविरोधी रुझान से दो-दो हाथ करना, अभी दलों को इससे जूझना पड़ता है, क्योंकि भारतीय प्रशासन अपना स्वार्थ पहले देखता है, राजनीतिक स्वार्थ बाद में, वो भी लाभगत मामलों में तो बिल्कुल नहीं!
सच कहूं तो जिस प्रकार से भाजपा और कांग्रेस ने मिलकर यानी आपसी अंतर सहमति से दिल्ली में आप जैसे मजबूत क्षेत्रीय दल का शिकार किया है, वह उनकी पुरानी आदतों में शामिल है लेकिन आप और केजरीवाल को यह साबित करना है कि उनकी राजनीतिक फौज में एक नहीं बल्कि अनेक अर्जुन और अभिमन्यु हैं! आखिर कितने की सियासी बलि वो चाहेंगे! एक न एक दिन राजनीतिक कौरव थक ही जाएंगे, कालचक्र वश थम ही जाएंगे।