आज के भौतिक जगत में कई लोग ऐसे हैं जो पत्रा-पत्रिकाओं में स्वास्थ्य ढूंढते रहते हैं। फिर भी उनकी हालत में कोई फर्क नहीं आता। एकाध लेख पढ़कर उनमें स्वास्थ्य के प्रति सजगता जागती है, परन्तु क्षणिक। सुबह जल्दी उठना स्वास्थ्य के लिये लाभप्रद है मगर औसतन उनका यह कार्यक्रम बमुश्किल एक से तीन दिन चल पाता है। सुबह उठे, घूमे, थोड़ा व्यायाम किया, फिर आइने में चेहरा देखा रौनक आई कि नहीं। फलस्वरूप फिर वही आलम, क्या फायदा? वे क्षणिक लाभ चाहते हैं यानी कि दो एक दिन सुबह जल्दी उठने से उनके चेहरे पर ऋषि मुनियों के ब्रह्मचर्य सा तेज दिखते रहना चाहिये जबकि प्रकृति के नियमों के तहत यह संभव नहीं। तुरन्त लाभ की भावना इतनी प्रबल होती है कि एकाध लिटर दूध पीकर वे सोचते हैं कि हम हरक्यूलिस या सैमसन हो गए। यह तो एकदम नामुमकिन है। अच्छा स्वास्थ्य चाहिये तो निरन्तरता बनी रहना बहुत जरूरी है। प्राकृतिक स्वास्थ्य नियमों पर अमल न हो पाना आम समस्या है। मूल वजह है खानपान पर अनियंत्राण। चाट के पत्ते चाटते रहने या छोले भठूरे खाने से जीभ को जो आनंद मिलता है वह सचमुच वर्णन करने योग्य नहीं। लाख कोशिश करने पर भी आप खुद को रोक नहीं पाते। एकाध बार बाजार (सड़ी, गली, बासी) की तली चीज खा लेने में कोई नुकसान नहीं, भले ही इसका दण्ड बेचारे पेट को भुगतना पड़े। यह बार-बार होता है जबकि इतने ही मूल्य के फल या उनका रस आपको बगैर बताये कितना लाभ पहुंचा देते हैं आप महसूस नहीं कर सकते। फल मात्रा बीमारी में ही खाने नहीं हैं बल्कि बीमारी न होने देने में आपकी अप्रत्यक्ष मदद करते हैं। घरेलू नुस्खे आप रूचि से पढ़ते हैं, उन्हें आजमाते भी हैं, परन्तु लाभ नहीं दिखता, इसलिए त्याग देते हैं। प्राकृतिक स्वास्थ्य के लिये प्रतीक्षा करनी होती है, जो आप करना नहीं चाहते। ऐसे में कोई सलाह आपके लिये उपयुक्त नहीं। सार यह कि आप प्रकृति प्रदत्त अमूल्य स्वास्थ्य उपहार नहीं लेते। लेते होते तो छोटी-मोटी बीमारियां आपको होती ही नहीं। आप चाहते हैं तुरन्त लाभ जो कभी भी आपको बगैर प्रकृति के नियमों का पालन किये नहीं मिल सकता। जब तक प्रकृति की निशुल्क चिकित्सा के बजाय आप बाजारू इलाज के चक्कर में पड़े रहेंगे तब तक आपसे पूछना व्यर्थ है कि आप स्वस्थ क्यों नहीं रहते?