संथालों के प्रकृति पूजन का उत्सव है सोहराय

0
sohrai-parv

सोहराय पर्व आदिवासियों का प्रमुख पर्व है। पांच दिनों तक चलने वाले इस पर्व का संबंध सृष्टि की उत्पत्ति से जुड़ा हुआ है। आदिवासी समाज के इस महान पर्व को लेकर झारखंड, बिहार, छत्तीसगढ़, पश्चिम बंगाल, ओड़िशा आदि राज्यों में बहुत पहले से तैयारी प्रारंभ हो जाती है।जनजातीय समाज में इस पर्व का बेहद महत्व है। जनजातीय समाज इस पर्व को उत्सव की तरह मनाता है। आदिवासी समाज की संस्कृति काफी रोचक है। शांत चित्त स्वभाव के लिए जाना जाने वाला आदिवासी समुदाय मूलतः प्रकृति पूजक है। ये पर्व कई नामों से प्रचलित है, संथाल समाज इसे हाथी लिकन (हाथी के समान) कहते हैं।  सोहराय प्रत्येक वर्ष जनवरी माह के दूसरे सप्ताल यानी प्रत्येक पौष माह में धान की फसल कटने के बाद मनाया जाता है।सोहराय पर्व ना सिर्फ प्रकृति से जुड़ा है बल्कि ये आदिवासी परंपरा में भाई बहन के अटूट प्रेम को भी दर्शाता है। ये पर्व भाई बहन के प्रेम का प्रतीक भी माना जाता है। इसे भाई बहन का भी पर्व माना जाता है। सोहराय में भाई अपने बहन अपने यहां आने का न्योता देता है।बहन अपने भाई के दिए आमंत्रण को स्वीकार करती है और उसके यहां आती है, बहन के आने के बाद काफी धूमधाम से उसका स्वागत किया जाता है। सोहराय एक सामुदायिक पर्व है, इस पर्व में समुदाय के साथ प्रकृति, कृषि और पशुपालन का महत्व को दर्शाया गया है। संताल समुदाय में प्रचलित मान्यताओं के अनुसार सोहराय पर्व का आरंभ ‘चाय चाम्पा गढ़’ से शुरू हुआ था। ‘चाय चाम्पा गढ़’ संतालों की मूल भूमि मानी जाती है। मान्यताओं के अनुसार ‘चाय चाम्पा गढ़’ एक सुखी और संपन्न देश था। इस देश के राजा के पास बहुत सारे पशुधन थे। उन पशुओं में ‘सुगी’ नाम की एक चतुर गाय थी। वहां के सारे पशु ‘कसी टंडी’ नाम के विशाल गौचर भूमि पर चरते थे। एक दिन सारे पशु ‘कसी टंडी’ के निकट स्थित यूरनी पहाड़ के गुफा के अंदर चली गयी और वापस गांव नहीं लौटे। दिन गुजरते गये और जब पशु वापस नहीं लौटे तो राजा और सभी लोग परेशान हो गये। खेती का समय आ गया था, थक हार कर राजा ने गांव के बुजुर्गों को बुलाया। उन्होंने राजा को सलाह दिया कि जिस पशुओं के कारण उनके घरों में सुख और समृद्धि आती है। उन पशुओं के योगदान के लिए त्यौहार मना कर उन्हें सम्मान देना है। इसके बाद सभी लोगों ने स्नान कर साफ कपड़े पहने और ‘गोड टंडी’ यानी एक बड़े मैदान पर पहुंच कर ठाकुरजीवी को प्रसन्न करने के लिए नायकी के अगुवाई में सामूहिक रूप से पूजा पाठ किया। ठाकुरजीवी की पूजा के लिए लोगों ने मुर्गियों के अंडे लाये थे। लोगों की पूजा से ठाकुरजीवी प्रसन्न हुए और सारे पशु वापस लौट आए। इसके अगले दिन से ही सोहराय का पर्व आरंभ हो गया। सोहराय पर्व की उत्पत्ति की कथा भी काफी रोचक है। आदिवासी समाज में प्रचलित कथा के अनुसार, जब मंचपुरी अर्थात् मृत्यु लोक में मानवों की उत्पत्ति होने लगी, तो बच्चों के लिए दूध की जरूरत महसूस होने लगी। उस काल खंड में पशुओं का सृजन स्वर्ग लोक में होता था।मानव जाति की इस मांग पर मरांगबुरु अर्थात् आदिवासियों के सबसे प्रभावशाली देवता। (यहां बताना यह जरूरी है कि शेष भारतीय समाज मरांगबुरू को शिव के रूप में देखता है, लेकिन जन जातीय समाज में मरांगबुरू का स्थान शिव से भी उपर है।)जनजातीय कथा के अनुसार, मरांगबुरू स्वर्ग पहुंचे और अयनी, बयनी, सुगी, सावली, करी, कपिल आदि गाएं एवं सिरे रे वरदा बैल से मृत्यु लोक में चलने का आग्रह करते हैं।मरांगबुरू के कहने पर भी ये दिव्य जानवर मंचपुरी आने से मना कर देते हैं, तब मरांगबुरू उन्हें कहते हैं कि मंचपुरी में मानव युगोंं-युगोंं तक तुम्हारी पूजा करेगा, तब वे दिव्य, स्वर्ग वाले जानवर मंचपुरी आने के लिए राजी होकर धरती पर आते हैं और उनके आगमन से ही इस त्योहार का प्रचलन प्रारंभ होता है। जाहिर है उसी गाय-बैल की पूजा के साथ सोहराय पर्व की शुरुआत हुई है। पर्व में गाय-बैल की पूजा आदिवासी समाज काफी उत्साह से करते हैं।मुख्य रूप से यह पर्व छह दिनों तक मनाया जाता है, जिसकी धूम पूरे क्षेत्र में देखने को मिलती है।सोहराय के पहले दिन को उम कहा जाता है।पहले दिन आदिवासी समाज इस पर्व के शुरुआत में स्नान करते हैं। इसके बाद कृषि से संबंधित सभी औजारों को साफ करते हैं। इसके अलावा घरों को भी साफ सुथरा कर गोबर से लिपाई करते हैं। साथ ही घर में गेहल पूजा करते हैं।गढ़ पूजा पर चावल गुंडी के कई खंड का निर्माण कर पहला खंड में एक अंडा रखा जाता है। गाय-बैलों को इकट्ठा कर छोड़ा जाता है, जो गाय या बैल अंडे को फोड़ता या सूूंघता है और उसकी भगवती के नाम पर पहली पूजा की जाती है तथा उन्हें भाग्यवान माना जाता है। मांदर की थाप पर नृत्य होता है।इसी दिन से बैल और गायों के सिंग पर प्रतिदिन तेल लगाया जाता है।इस पर्व के दूसरे दिन को बोगान कहा जाता है, इस दिन बलि देने की प्रथा है. इसमें आदिवासी समाज सात मुर्गे की बलि देते हैं।  दूसरे दिन गोहाल पूजा पर मांझी थान में युवकों द्वारा लठ खेल का प्रदर्शन किया जाता है। रात्रि को गोहाल में पशुधन के नाम पर पूजा की जाती है। खानपान के बाद फिर नृत्य गीत का दौर चलता है।तीसरे दिन को खुटाउ कहा जाता है। इस दिन बैल को बांधकर उसको सजाकर पूरे गांव में घूमाया जाता हैं।खुंटैव पूजा पर प्रत्येक घर के द्वार पर बैलों को बांधकर पीठा पकवान का माला पहनाया जाता है और ढोल ढाक बजाते हुए पीठा को छीनने का खेल होता है। पर्व के चौथे दिन को जाली कहा जाता है. इस दिन आदिवासी समाज एक दूसरे के प्रत्येक घर-घर जाकर नाचते सम्मिलित होकर नाचते गाते हैं। जाली पूजा पर घर-घर में चंदा उठाकर प्रधान को दिया जाता है और सोहराय गीतों पर नृत्य करने की परंपरा है। पांचवें दिन हांकु काटकम मनाया जाता है। इस दिन गांव के तालाब से मछली पकड़ने का रिवाज है। जिसमें घर के सदस्यों द्वारा मछली पकड़ कर लाया जाता है। इसके बाद पर्व के अंतिम शिकार खेलने की परंपरा है। छठे दिन आदिवासी झूंड में शिकार के लिए निकलते है। शिकार में प्राप्त खरगोश, तीतर आदि जन्तुओं को मांझीथान में इकट्ठा कर घर घर प्रसादी के रुप में बांटा जाता है। संक्रांति के दिन को बेझा तुय कहा जाता है। इस दिन गांव के बाहर नायकी अर्थात पुजारी सहित अन्य लोग ऐराडम पेंड़ को गाड़कर तीर चलाते है। सोहराय में गीत नृत्य का अपना महत्व है।  यह पर्व 1855 के संथाल हूल विद्रोह से जुड़ा है संथालपरगना में सोहराय पर्व दोहरी खुशी लेकर आता है। खेतों में तैयार फसल काटने के बाद घर आ जाने के बाद लोग खुशियां मनाते हैं। वही 1855 में संथाल हूल विद्रोह भी इस समय समाप्त हुआ था। इसके बाद संथाल परगना के लोगों को ब्रिटिश अंग्रेजों के अत्याचार से निजात मिली थी।संथाल परगना में इस पर्व के जनवरी में मनाये जाने के पीछे अंग्रेजों ब्रिटिश सरकार के प्रतिरोध की भी बात है। जब संथाल परगना में सिदो- कान्हू के नेतृत्व में 30 जून 1855 को बड़ा विद्रोह – ‘संथाल हूल’ किया गया। अंग्रेज सरकार इस विद्रोह से काफी भयभीत हुई। इस विद्रोह को दबाने के लिए धारा 144 लागू किया गया एवं मार्शल लॉ लगाया गया। इसे 20 नवंबर 1855 को लागू किया गया और जनवरी 1856 में हटाया गया। उसके बाद यहां के लोगों ने तय किया कि खुशियां मने और फिर उसे सोहराय नाम दिया। यही कारण है कि सोहराय के गीतों में संथाल हूल के तथा आजादी का जिक्र रहता है।आदिवासी क्षेत्रों में  टाक,  मांदर झांझर और बांसुरी की मिश्रित स्वरों से पूरा वातावरण मनमोहक हो उठता है।

 जन्म से ले कर मृत्युपर्यंत संताल समाज गीत , नृत्य और संगीत से लबरेज मिलता है । और तभी उन्होंने एक गीत सुनाया जिसमें इस समाज की अपनी पारंपरिक कला के प्रति आसक्ति साफ दिखाई पड़ती थी , यानी मौत की कीमत पर भी वे नृत्य में शामिल होना चाहती हैं । यही वजह है कि शताब्दियों से वे इस अमूल्य धरोहर को ढोते चले आ रहे हैं , क्योंकि नृत्य उन्हें गति देते हैं … नृत्य ही संवारता है उनके खुरदरे वर्तमान को और वही निर्माण करता है संगीत से ओत – प्रोत भविष्य का भी । जहां तक अतीत का सवाल है,तो अपने “मरांग बुरू” के प्रति उनकी आस्था लाख वैज्ञानिक ईजादों के बावजूद हिली  है ,  न डुली है ।

पूरी दुनिया आज जहां पर्यावरण, पशु धन जैसे कई संकटों से जूझ रहा है, उसका सिर्फ एक ही समाधान है, आप जब सोहराय में जाएंगे तो दिखेगा कि ऐसा ही सोहराय पर्व के आयोजन के माध्यम से हम पूरी दुनिया को यह संदेश दे सकते हैं कि अगर दुनिया को बचाना है तो इसी तरह प्रकृति से जुड़कर हमें त्योहार मनाने की आवश्यकता है।

यह सिर्फ त्योहार ही नहीं जीवन का दर्शन भी है। इस संसार में सब को जीने और रहने का अधिकार है। सोहराय हमें बताता है कि केवल हमें ही जीने का नहीं, पेड़-पौधे और प्रकृति के साथ ही साथ पशु, जो हमारे जीवन का अभिन्न अंग है उसे भी जीने का अधिकार है। हम लोग सिर्फ मनुष्य के बारे में चिंता करते हैं, यह पर्व हमें जीव जीवश्य जीवनम का संदेश देता है। जनजाति संस्कृति और चिंतन पेड़-पौधे से लेकर जीव-जंतु तक की चिता करता है। दुनिया को बचाना है तो निश्चित तौर पर सभी समाज तक इस तरह का संदेश पहुंचना होगा।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *