मेरे जीवन का परम सौभाग्य रहा कि मैंने अपना शोधकार्य करने के बाद कुछ महीने प्रयागराज में अध्ययन-अध्यापन किया। इसी समय मुझे प्रयागराज में रहने और इस देवभूमि के महत्व का समझने का सुअवसर भी मिला। प्रयागराज में पवित्र संगम तट पर स्नान किया और लेटे हुए श्रीहनुमान जी के दर्शन किए। माघ मेले में पूज्य संतों का आशीर्वाद मिला और भगवद् कथा भी सुनी। मेले की शोभा देखते ही बनती है, यह सभी कुछ लिखते हुए आज भी वहीं का स्मरण हो रहा है।
प्रयागराज की भूमि तपोबल की भूमि है, ज्ञान की धरा है। साहित्य की बात करें तो हिंदी साहित्य में भारतेंदु युग के बाद महावीर प्रसाद द्विवेदी युग इसी धराधाम से आगे बढ़ा। सरस्वती पत्रिका देखते ही देखते साहित्य का हृदय बनी और सभी को अपनी ओर आकर्षित किया। इसके साथ ही निराला, महादेवी वर्मा, हरिवंशराय बच्चन आदि कितने ही साहित्यकार इसी धराधाम से जुड़े रहे। भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की बात करें तो शहीद चंद्रशेखर आजाद जी की यह तपोभूमि रही है। स्वतंत्रता के मतवालों की टोली यहाँ हर समय तैयार रही।
कला, साहित्य और संस्कृति का संगम प्रयागराज है। यहाँ माँ गंगा, यमुना और सरस्वती का संगम है। यहाँ धर्म, दर्शन, ज्योतिष आदि सभी शास्त्रों का ज्ञान छिपा है। इस धर्म नगरी में हर एक छोटी-बड़ी बात का संगम है। पौराणिक और धार्मिक मान्यताओं के अनुसार माना यह भी जाता है कि चारों वेदों की प्राप्ति के पश्चात ब्रह्म ने यहीं पर यज्ञ किया था। सृष्टि की प्रथम यज्ञ स्थली होने के कारण इसे प्रयाग कहा गया है। एक दृष्टि से समझे तो प्रयाग का अर्थ है- प्रथम यज्ञ। यह यज्ञ की स्थली भी है। प्रयागराज को संगम नगरी, तीर्थराज आदि नामों से भी जाना गया है। गोस्वामी तुलसीदास ने श्रीरामचरितमानस में इन सभी नामों की चर्चा अलग-अलग चौपाइयों में की है, जो इस प्रकार है- संगमु सिंहासनु सुठि सोहा। छत्रु अखयबटु मुनि मनु मोहा ॥ चवँर जमुन अरु गंग तरंगा। देखि होहिं दुख दारिद भंगा ॥ यहाँ पर गोस्वामी जी ने संगम शब्द का प्रयोग किया है अर्थात् (गंगा, यमुना और सरस्वती) का संगम ही उसका अत्यन्त सुशोभित सिंहासन है। अक्षयवट छत्र है, जो मुनियों के भी मन को मोहित कर लेता है। यमुना जी और गंगा जी की तरंगें उसके (श्याम और श्वेत) चंवर हैं, जिनको देखकर ही दुःख और दरिद्रता नष्ट हो जाती है। गोस्वामी जी ने प्रयाग और तीरथपति शब्द का भी प्रयोग किया है, जो इस प्रकार हैं- को कहि सकइ प्रयाग प्रभाऊ। कलुष पुंज कुंजर मृगराऊ॥ अस तीरथपति देखि सुहावा। सुख सागर रघुबर सुख पावा॥ कहने का भाव यह है कि पापों के समूह रूपी हाथी के मारने के लिये सिंह रूप प्रयागराज का प्रभाव कौन कह सकता है। ऐसे सुहावने तीर्थराज का दर्शन कर सुख के समुद्र रघुकुल श्रेष्ठ श्रीराम जी ने भी सुख पाया।
गोस्वामी जी ने तीरथराज शब्द का भी प्रयोग किया है, जो इस प्रकार है- कहि सिय लखनहि सखहि सुनाई। श्रीमुख तीरथराज बड़ाई॥ करि प्रनामु देखत बन बागा। कहत महातम अति अनुरागा ॥ कहने का भाव यह है कि भगवान श्रीराम ने अपने श्रीमुख से सीता जी, लक्ष्मण जी और सखा गुह को तीरथराज की महिमा कहकर सुनायी। गोस्वामी जी ने त्रिवेणी शब्द का भी प्रयोग किया है, जो इस प्रकार है- खबरि लीन्ह सब लोग नहाए। कीन्ह प्रनामु त्रिबेनिहिं आए॥ कहने का भाव है कि जब भरत जी ने यह पता पा लिया कि सब लोग स्नान कर चुके, तब त्रिवेणी पर आकर उन्हें प्रणाम किया। इस दृष्टि से देखें तो संगम, प्रयाग, तीरथपति, तीरथराज, त्रिवेणी आदि सभी शब्दों का प्रयोग श्रीरामचरितमानस में हुआ है। रामचरितमानस रत्न भंड़ार है, यहाँ ज्ञान, भक्ति, शक्ति आदि सभी कुछ है, बस देखने वाले की दृष्टि होनी चाहिए।
प्रयाग शताध्यायी के अनुसार प्रयागराज के बारे में एक कथा प्रचलित है कि काशी, मथुरा, अयोध्या इत्यादि सप्तपुरियाँ तीर्थराज प्रयाग की पटरानियाँ हैं जिनमें काशी को प्रधान पटरानी का दर्जा प्राप्त है। प्रयागराज की विशालता व पवित्रता के संबंध में सनातन धर्म में मान्यता है कि एक बार देवताओं ने सप्तद्वीप, सप्तसमुद्र, सप्तकुलपर्वत, सप्तपुरियां सभी तीर्थ और समस्त नदियाँ तराजू के एक पलड़े पर रखी, दूसरी ओर मात्र तीर्थराज प्रयाग को रखा फिर भी प्रयागराज ही भारी रहे। प्रयागराज को लेकर कितनी ही कथाएँ हमें संत-महात्माओं के श्रीमुख से सुनने को मिल जाती हैं। प्रयागराज की भूमि को सादर प्रणाम।
प्रयागराज की भूमि तपोबल की भूमि है, ज्ञान की धरा है। साहित्य की बात करें तो हिंदी साहित्य में भारतेंदु युग के बाद महावीर प्रसाद द्विवेदी युग इसी धराधाम से आगे बढ़ा। सरस्वती पत्रिका देखते ही देखते साहित्य का हृदय बनी और सभी को अपनी ओर आकर्षित किया। इसके साथ ही निराला, महादेवी वर्मा, हरिवंशराय बच्चन आदि कितने ही साहित्यकार इसी धराधाम से जुड़े रहे। भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की बात करें तो शहीद चंद्रशेखर आजाद जी की यह तपोभूमि रही है। स्वतंत्रता के मतवालों की टोली यहाँ हर समय तैयार रही।
कला, साहित्य और संस्कृति का संगम प्रयागराज है। यहाँ माँ गंगा, यमुना और सरस्वती का संगम है। यहाँ धर्म, दर्शन, ज्योतिष आदि सभी शास्त्रों का ज्ञान छिपा है। इस धर्म नगरी में हर एक छोटी-बड़ी बात का संगम है। पौराणिक और धार्मिक मान्यताओं के अनुसार माना यह भी जाता है कि चारों वेदों की प्राप्ति के पश्चात ब्रह्म ने यहीं पर यज्ञ किया था। सृष्टि की प्रथम यज्ञ स्थली होने के कारण इसे प्रयाग कहा गया है। एक दृष्टि से समझे तो प्रयाग का अर्थ है- प्रथम यज्ञ। यह यज्ञ की स्थली भी है। प्रयागराज को संगम नगरी, तीर्थराज आदि नामों से भी जाना गया है। गोस्वामी तुलसीदास ने श्रीरामचरितमानस में इन सभी नामों की चर्चा अलग-अलग चौपाइयों में की है, जो इस प्रकार है- संगमु सिंहासनु सुठि सोहा। छत्रु अखयबटु मुनि मनु मोहा ॥ चवँर जमुन अरु गंग तरंगा। देखि होहिं दुख दारिद भंगा ॥ यहाँ पर गोस्वामी जी ने संगम शब्द का प्रयोग किया है अर्थात् (गंगा, यमुना और सरस्वती) का संगम ही उसका अत्यन्त सुशोभित सिंहासन है। अक्षयवट छत्र है, जो मुनियों के भी मन को मोहित कर लेता है। यमुना जी और गंगा जी की तरंगें उसके (श्याम और श्वेत) चंवर हैं, जिनको देखकर ही दुःख और दरिद्रता नष्ट हो जाती है। गोस्वामी जी ने प्रयाग और तीरथपति शब्द का भी प्रयोग किया है, जो इस प्रकार हैं- को कहि सकइ प्रयाग प्रभाऊ। कलुष पुंज कुंजर मृगराऊ॥ अस तीरथपति देखि सुहावा। सुख सागर रघुबर सुख पावा॥ कहने का भाव यह है कि पापों के समूह रूपी हाथी के मारने के लिये सिंह रूप प्रयागराज का प्रभाव कौन कह सकता है। ऐसे सुहावने तीर्थराज का दर्शन कर सुख के समुद्र रघुकुल श्रेष्ठ श्रीराम जी ने भी सुख पाया।
गोस्वामी जी ने तीरथराज शब्द का भी प्रयोग किया है, जो इस प्रकार है- कहि सिय लखनहि सखहि सुनाई। श्रीमुख तीरथराज बड़ाई॥ करि प्रनामु देखत बन बागा। कहत महातम अति अनुरागा ॥ कहने का भाव यह है कि भगवान श्रीराम ने अपने श्रीमुख से सीता जी, लक्ष्मण जी और सखा गुह को तीरथराज की महिमा कहकर सुनायी। गोस्वामी जी ने त्रिवेणी शब्द का भी प्रयोग किया है, जो इस प्रकार है- खबरि लीन्ह सब लोग नहाए। कीन्ह प्रनामु त्रिबेनिहिं आए॥ कहने का भाव है कि जब भरत जी ने यह पता पा लिया कि सब लोग स्नान कर चुके, तब त्रिवेणी पर आकर उन्हें प्रणाम किया। इस दृष्टि से देखें तो संगम, प्रयाग, तीरथपति, तीरथराज, त्रिवेणी आदि सभी शब्दों का प्रयोग श्रीरामचरितमानस में हुआ है। रामचरितमानस रत्न भंड़ार है, यहाँ ज्ञान, भक्ति, शक्ति आदि सभी कुछ है, बस देखने वाले की दृष्टि होनी चाहिए।
प्रयाग शताध्यायी के अनुसार प्रयागराज के बारे में एक कथा प्रचलित है कि काशी, मथुरा, अयोध्या इत्यादि सप्तपुरियाँ तीर्थराज प्रयाग की पटरानियाँ हैं जिनमें काशी को प्रधान पटरानी का दर्जा प्राप्त है। प्रयागराज की विशालता व पवित्रता के संबंध में सनातन धर्म में मान्यता है कि एक बार देवताओं ने सप्तद्वीप, सप्तसमुद्र, सप्तकुलपर्वत, सप्तपुरियां सभी तीर्थ और समस्त नदियाँ तराजू के एक पलड़े पर रखी, दूसरी ओर मात्र तीर्थराज प्रयाग को रखा फिर भी प्रयागराज ही भारी रहे। प्रयागराज को लेकर कितनी ही कथाएँ हमें संत-महात्माओं के श्रीमुख से सुनने को मिल जाती हैं। प्रयागराज की भूमि को सादर प्रणाम।
डॉ. नीरज भारद्वाज