भारतीय समाज एवं लोक जीवन में पर्व-उत्सव, मेले, स्नान एवं कुंभ जैसे छोटे-बड़े अनेक पर्व नवजागरण के वाहक बनते रहे हैं। कुंभ अथवा महाकुंभ स्नान का ही अवसर नहीं होते बल्कि वे व्यक्ति, समाज और राष्ट्र जीवन के लिए नवजागरण के वाहक अथवा संजीवनी भी बनते हैं।
प्रयागराज में महाकुंभ का आरंभ हो चुका है। अनेक संत,अखाड़े और भिन्न-भिन्न रूपों में साधना और सेवा से जुड़े हुए लाखों लोग वहां पहुंचने शुरू हो चुके हैं। देश-विदेश से वहां कितने लाख अथवा कितने करोड़ श्रद्धालु पहुंचेंगे, यह अनुमान लगाना कठिन है। प्रयागराज में मां गंगा किनारे सैकड़ों किलोमीटर में फैली महाकुंभ की व्यवस्था विगत कई महीनों से आकर ले रही है। सनातन की धर्म ध्वजा जाति,संप्रदाय, क्षेत्रीयता, प्रदेश अथवा देश की सीमाओं से परे सभी को आमंत्रित करती है। कुंभ श्रद्धा,आस्था,संस्कृति और अध्यात्म की कड़ियों को जोड़ता है। यह सामाजिक समरसता का अद्वितीय उदाहरण है। यह इस बात का भी प्रमाण है कि भारतीय समाज में सामाजिक समरसता विद्यमान थी लेकिन कालांतर में समाज को भिन्न-भिन्न आधारों पर बांटा गया। भारत में हरिद्वार, उज्जैन, नासिक और प्रयागराज में अर्धकुंभ और महाकुंभ के आयोजन होते हैं। इन आयोजनों में स्वत: स्फूर्त अथवा स्वयं सेवा से प्रेरित लोग भिन्न-भिन्न रूपों में अपना योगदान देते हैं।
प्रयागराज कुंभ इस अर्थ में भी महत्वपूर्ण है कि वहां गंगा,यमुना और सरस्वती का प्रयाग अथवा संगम है। तीर्थ नगरी प्रयागराज सभी का खुले मन से स्वागत तो करती ही है, वह जन-जन को- सब सामान, सबका सम्मान का भी संदेश देती है। भारतीय ज्ञान परंपरा में आदि ग्रंथ वेदों से लेकर आज तक जल और जल स्रोतों विशेष रूप से नदियों के संरक्षण- संवर्धन के लिए विशेष चिंता एवं चिंतन मिलता है। नदियों पर अथवा कुंभ जैसे अवसरों पर स्नान के माध्यम से यह संदेश भी निहित है कि हम जल स्रोतों अथवा नदियों को स्वच्छ रखें, उनका संरक्षण- संवर्धन करें। मां गंगा की पवित्रता और आध्यात्मिक महत्व के कारण ही कहा गया है- गंगे तव दर्शनात मुक्ति अर्थात् मां गंगा के दर्शन मात्र से ही व्यक्ति को मुक्ति मिल जाती है। फिर महाकुंभ में तो लाखों आध्यात्मिक विभूतियां एक साथ साधना एवं गंगा स्नान में लीन रहती हैं। इसलिए वहां स्नान करने वाले सामान्य व्यक्ति को भी पुण्य लाभ मिलता है।
हाल ही में परमार्थ निकेतन ऋषिकेश के अध्यक्ष स्वामी चिंतानंद सरस्वती जी के प्रयास से प्रयागराज में परमार्थ त्रिवेणी पुष्प नामक आश्रम की स्थापना की गई है। उन्होंने सभी को संदेश देते हुए यह कहा कि- हमारे मंदिर, धाम, तीर्थ,संत परंपरा और हमारी सनातन संस्कृति प्रकृति-पर्यावरण और श्रेष्ठ परम्पराओं के संरक्षण-संवर्धन का संदेश देते हैं। आज हमें यह समझने की आवश्यकता है कि- आस्था है तो अस्तित्व है, कुंभ श्रद्धा और आस्था की कड़ियों को जोड़ता है, यह भारतवर्ष के सांस्कृतिक और आध्यात्मिक गौरव का प्रतीक है। उन्होंने कुंभ को गंदगी मुक्त, प्लास्टिक मुक्त एवं भाईचारे से युक्त बनाने का आवाह्न किया है।
आज भारतवर्ष नए भारत, विकसित भारत और विश्व गुरु भारत के संकल्प के साथ आगे बढ़ रहा है। आज जाति, संप्रदाय, क्षेत्र एवं भिन्न-भिन्न कारणों से वैमनस्य का भी विस्तार दिखाई देता है। राजनीतिक दृष्टि से विचार करने पर हम पाते हैं कि विपक्ष में बैठे कई लोग भारतवर्ष की सनातन मान्यताओं एवं आस्था पर ही अभद्र टीका टिप्पणी करते हैं। क्या यह ठीक है? कुंभ का अर्थ घड़ा होता है। आज यह आवश्यकता है कि जिस प्रकार भिन्न-भिन्न स्थानों से लाया हुआ जल घड़े में जाने पर एक हो जाता है, उसी प्रकार यह कुंभ भी भाषा, भोजन, भेष की विविधता होते हुए भी विभिन्न संस्कृतियों को जोड़ने का हेतु बने। यहां से सामाजिक समरसता और नवभारत के निर्माण के संकल्प आकर लें।
वर्ष 1884 में बलिया के ददरी मेले के अवसर पर भारतीय नवजागरण के अग्रदूत भारतेंदु हरिश्चंद्र ने भारतवर्ष की उन्नति कैसे हो सकती है इस विषय पर व्याख्यान दिया था, जिसमें उस समय के अनेक महत्वपूर्ण विषयों और चुनौतियों का उल्लेख मिलता है। आज जब देश विकसित भारत का संकल्प लेकर आगे बढ़ रहा है तब यह आवश्यक है कि प्रयागराज महाकुंभ से संत परंपरा और अखाड़े जन-जन को भाईचारे और राष्ट्र प्रथम के साथ साथ जन जन को आपसी भेदभाव भूलकर भारतवर्ष की सामाजिक, सांस्कृतिक विरासत को जानने-समझने का भी संदेश दें।
भारतवर्ष की विविधता,एकता, सनातनता,अध्यात्म, संस्कृति और वसुधैव कुटुंबकम् की भावना को देखने-समझने के लिए आइए इस बार महाकुंभ चलें।