राजस्थान अपनी समृद्ध ऐतिहासिक विरासत, प्राकृतिक सुंदरता, स्थानीय कला, शिल्प व सांस्कृतिक आकर्षण के लिए देशी-विदेशी सैलानियों की श्रेष्ठ पसंद है। 22 रियासतों के एकीकरण से 30 मार्च, 1949 को एक राज्य के रूप में अस्तित्व में आया राजस्थान अपने भव्य राजसी महल, किले, राजपूती, मुगलई व पाश्चात्य स्थापत्य शिल्पकला की बेजोड़ धरोहर से समृद्ध है। यहाँ के नियोजित ढंग से बसे प्राचीन शहर, इन नगरों के मनोहारी बाग-बगीचे, पहाड़ियाँ, झीलें और खुशनुमा प्राकृतिक वातावरण पर्यटकों को अनूठा सम्मोहन प्रदान करते हैं, साथ ही लोकसंगीत, स्थानीय मेले, उत्सव, त्यौहार रस से सराबोर करने वाले हैं। रोमांच के शौकीन पर्यटकों को यहां का विस्तृत रेगिस्तान, ऊंट, हाथी की रोमांचक सवारी, वन्यजीवों का खुला विचरण रोमांचित करता है। भारत का यदि कोई राज्य एक ही साथ हिल स्टेशन (माउंट आबू) और तपते हुए रेगिस्तान (जैसलमेर) का नजारा प्रस्तुत करता है तो वह निस्संदेह राजस्थान ही है।
राजस्थान के पश्चिम में थार मरूस्थल के बीच स्थित जैसलमेर ‘स्वर्ण नगरी’ के नाम से मशहूर है। प्राचीन दुर्ग, राजप्रसाद, प्राचीन कलात्मक हवेलियों की शिल्पकला, सुंदर स्थापत्य कला से संजे-संवरे मंदिर व अन्य भवन देखने योग्य हैं। यहाँ अनेक सुंदर हवेलियां और जैन मंदिर तो 12से 15वीं शताब्दी के बीच के बने बताए जाते हैं। सोने सी चमकती पीले पत्थरों की हवेलियों के कारण इस शहर को स्वर्णनगरी भी कहा जाता है। यहाँ की संस्कृति से साक्षात्कार कराते तीन दिवसीय मरू महोत्सव में देश-विदेश के पर्यटक भाग लेते हैं। इतिहास साक्षी है कि कभी जैसलमेर थार के समुद्र का वह पहाड़ था जहाँ दिल्ली और मध्य भारत जाने वाले व्यापारियों का कारवां आकर रूकता था। इस स्थान की उपयोगिता और सुरक्षा को देखते हुए 1156 में भाटी राजपूत महारावल जैसल ने अपनी राजधानी स्थापित की। यह भू-भाग प्राचीन काल में ’माडधरा’ अथवा ’वल्लभमण्डल’ के नाम से प्रसिद्ध था। महाभारत के युद्ध के बाद बड़ी संख्या में यादव इस ओर बढ़ते हुए यहाँ बस गये।
यह सत्य है कि राजस्थान के मेवाड़ और जैसलमेर ही प्राचीनतम माने जाते हैं जहाँ एक ही वंश का लम्बे समय तक शासन रहा है लेकिन मेवाड़ की तुलना में जैसलमेर की ख्याति बहुत कम है। शायद इसका कारण मुगल -काल में भी मेवाड़ की स्वाधीनता बने रहना और जैसलमेर के महारावलों द्वारा मुगलों से मेलजोल हो सकता है। आर्थिक रूप से भी यह पिछड़ा क्षेत्रा रहा जिसके कारण यहाँ के शासक मजबूत सैन्य बल खड़ा नहीं कर सके। फलस्वरुप पड़ोसी राज्यों ने इसके विस्तृत भू-भाग को दबा लिया। वैसे कभीं बीकानेर, खैरपुर, मीरपुर, बहावलपुर एवं शिकारपुर आदि इसके अंग रहे हैं। साधनों के अभाव और आवागमन कम होने के कारण आम लोगों की नजर में यह स्थान धूल व आँधियों से घिरा रेगिस्तान ही है जबकि वस्तुस्थिति काफी अलग है। यहाँ की रेत के हर कण में सैंकड़ों वर्षों के इतिहास की गाथाएँ छिपी हुई है जिसने संस्कृति, लोकशैली, सामाजिक मान्यताएँ, निर्माणकला, संगीतकला, साहित्य, स्थापत्य आदि के अक्षुण्ण रखा है।
जैसलमेर में हर बीस-पच्चीस किलोमीटर पर इतिहास के मूक गवाह छोटे-छोटे किले देखे जा सकते हैं। मध्यकालीन इतिहास इनके महत्व को रेखांकित करता है। आमतौर पर दुर्ग निर्माण में सुंदरता के स्थान पर मजबूती तथा सुरक्षा को ध्यान में रखा जाता था लेकिन ये दुर्ग इसका अपवाद कहे जा सकते हैं जहाँ एक ही मुख्य द्वार तथा चार या इससे अधिक बुर्ज बनाए जाते थे। जैसलमेर दुर्ग, नगर व आस-पास के क्षेत्रा में स्थित ऊँचे शिखरों, भव्य गुंबदों वाले जैन मंदिरों का स्थापत्य कला की दृष्टि से बङा महत्व है। जैसलमेर स्थिर जैन मंदिर में जगती, गर्भगृह, मुख्यमंडप, गूढ़मंडप, रंगमंडन, स्तंभ व शिखर आदि में गुजरात के सोलंकी व बघेल कालीन मंदिरों का स्पष्ट प्रभाव दृष्टिगोचर होता है।
जैसलमेर के प्रमुख स्थलों की चर्चा करें तो जैसलमेर दुर्ग जिसे सोनार किला के नाम से भी जाना जाता है, 250 फुट ऊंचे त्रिकूट पहाड़ पर बना हुआ है। शहर निर्माण के साथ ही महारावल जैसल ने इस किले का निर्माण कार्य भी आरंभ करवाया था। महारावल जैसल के बाद आए महारावलों ने भी इस किले में कई राजप्रसाद, मंदिर व अन्य भवन बनवाए। तत्कालीन शासकों की कलाप्रियता के जीते-जागते इस प्राचीन किले में रंगमहल, गज विलास, सर्वोत्तम विलास देखने योग्य हैं। किले के अंदर बने महलों की पत्थरों पर की गई उत्कृष्ट नक्काशी एवं सभाकक्षों की चित्राकारी पर्यटकों को मंत्रामुग्ध कर देती है। किले में स्थित 8 जैन मंदिर एक ही स्थान पर आसपास हैं। शीतलनाथ, चिंतामणि पार्श्वनाथ, शांतिनाथ, ऋषभदेव, अष्टापद, चंद्रप्रभु के जैन मंदिर स्थापत्य एवं मूर्ति कला के लिए बेजोड़ हैं।
शहर के बीच सन 1800 से 1880 के बीच बनी पटवों की हवेलियां अपने उत्कृष्ट शिल्प और निर्माण शैली के लिए विख्यात हैं। सातमंजिली इन पांच हवेलियों की स्थापत्य कला खूबसूरत है। हवेलियों के बाहर पत्थरों पर उत्कीर्ण बारीक कारीगरी एवं भीतरी झरोखों की नक्काशीयुक्त चित्राकारी सैलानियों का खूब मन लुभाती हैं। यहाँ की दो हवेलियां फिलहाल राजस्थान सरकार के पुरातत्व विभाग के अधीन हैं।
नथमल की हवेली जोकि जैसलमेर दीवान नथमल द्वारा निर्मित इस हवेली के पत्थरों पर की गई बारीक नक्काशी अत्यंत आकर्षक है। हवेली की भीतरी दीवारों पर लघु चित्रा शैली की रंगबिरंगी चित्राकारी पर्यटकों का लुभाती है। सालिम सिंह की हवेली को 1825 में दीवान सालिम सिंह ने बनवाया था। इसकी सबसे ऊंची हवेली के ऊपरी भाग में पत्थरों पर की गई नक्काशी, जालियां, झरोखे तथा कंगूरे शिल्पकला के बेजोड़ नमूने हैं।
नगर के पूर्वी छोर पर सन 1340 में महारावल गड़सी सिंह ने इस ऐतिहासिक सरोवर का निर्माण करवाया था। यह जैसलमेर निवासियों का प्रमुख जलस्रोत है। जलाशय के प्रवेशद्वार के रूप में बनी टीला की भव्य पोल तथा इस में किनारे पर बने भव्य मंदिर व सरोवर के बीच में बने बंगले और जलमंडपों की शोभा अलग ही है। इस रमणीक स्थान पर नौकायन की सुविधा भी है।
जैसलमेर से 17 किलोमीटर दूर स्थित काष्ठ जीवाश्म उद्यान के नाम से जाने जाने वाले उद्यान में 1,800 करोड़ वर्ष प्राचीन काष्ठ जीवाश्म देखे जा सकते हैं। यहाँ सीप-घोंघों को भी सजा कर रखा गया है। राष्ट्रीय मरूद्यान मरूस्थलीय उद्यान वन्य जीवों के संरक्षण का अद्भुत नजारा पेश करता है, जहाँ रेगिस्तानी लोमड़ी, गोंडावण, चिंकारा, काला हिरण, भेड़िए, खरगोश, जंगली बिल्ली, गरूड़ बाज, चील, नेवले, सांप आदि स्वतंत्रा विचरण करते देखे जा सकते हैं।
जैसलमेर से 42 किलोमीटर दूर सम तथा 45 किलोमीटर दूर खुहड़ी के विश्व प्रसिद्ध सम के रेतीले धोरे पर्यटकों को खूब आकर्षित करते हैं। यहाँ रेत के टीलों का समुद्री लहरदार रूप देखा जा सकता है। धोरों पर खड़े हो कर सूर्यास्त देखना और ऊँट की सवारी करना काफी रोमांचक लगता है। सजे-धजे ऊँटों पर बैठ कर मरूस्थलीय इलाके की सवारी करने का अलग ही आनंद है। जैसलमेर से 110 किलोमीटर दूर स्थित पोखरण परमाणु परीक्षण के लिए प्रसिद्ध है। यह एक सुंदर ऐतिहासिक स्थान है। यहां लाल पत्थरों से बना किला और लाल पत्थरों से बनी कलात्मक हवेलियां एवं छतरियां देखने लायक हैं।