सर्दी के आते ही तरह-तरह की सस्ती व महंगी शालों से मार्केट पट जाते हैं। मार्केट में हर जगह रंग-बिरंगे शाल ही शाल दिखाई देते हैं। शालों में पशमीना और जामावार शाल का काफी महत्व है। ये शाल गर्माहट देने के साथ-साथ व्यक्तित्व को भी भव्यता प्रदान करते हैं। शालों के बिना हमारी पारंपरिक पोशाक अधूरी रहती है। भारत में शाल का प्रचलन प्राचीन काल से है। ज्यादातर महिलाएं शाल का इस्तेमाल करती थी। शाल की बुनाई का काम पहले भी पुरूष ही करते थे तथा आज भी शाल के अच्छे कारीगर पुरूष ही हैं। कश्मीरी शाल का अपना ही महत्व है। विदेशों में भी लोग इसे बहुत पसंद करते हैं। कश्मीरी शाल को तैयार करने में काफी समय लगता है। यदि दो कारीगर करघे पर लगातार तीन साल काम करें तब एक शाल तैयार होता है। इस शाल की कीमत भी बहुत ज्यादा होती है, इसलिए इसका उपयोग भी इने-गिने लोग ही करते है। कश्मीरी शाल के अलावा महिलाएं स्टिच, कुल्लू डिजाइन, पंजाब की फुलकारी, पहाड़ी मोटिफ तथा पॉलीफोम आदि को भी खूब पसंद करती हैं। गुजराती कढ़ाई वाले शाल सर्दी और गर्मी दोनों ऋतुओं में इस्तेमाल होते हैं। कश्मीरी शॉल को यूरोपियन लोग भी खूब पसंद करते हैं। सदियों पहले भी यूरोप में कश्मीरी शॉल की मांग थी और आज भी है। एक बार नेपोलियन ने शाह-तूश का कश्मीरी शॉल महारानी जोसेफीन को भेंट किया था। उसे यह शॉल इतनी पसंद आई कि उसने वैसे ही 400 शॉल बनाने के आदेश दे डाले थे। सोजनी (सुई का काम) और आरी (हुक वर्क) की कढ़ाई वाले शॉल को नफासत पसंद लोग खूब पसंद करते हैं। कश्मीरी शॉल तीन तरह की फेब्रिक में होते हैं-शाहतूश, पश्मीना और रफल। शाहतूश शाल काफी मुलायम होते हैं, इसीलिए इसे रिंग शॉल भी कहा जाता है। तूश तिब्बती हिरण (चिस) से प्राप्त होता है जो एक दुर्लभ प्राणी है और हिमालय में 14 हजार की ऊंचाई पर पाया जाता है। इसकी ऊन काफी गर्म होती है। पर्यावरण संरक्षक संस्थाएं इस शॉल का विरोध करती हैं। उनका मानना है कि ऊन प्राप्त करने के लिए इस हिरण पर अत्याचार किया जाता है जिसके कारण इस प्रजाति के विलुप्त हो जाने का खतरा पैदा हो गया है। पशमीना शॉल भी काफी लोकप्रिय शाल है। इसे दुनिया भर में ‘कश्मीरी ऊन‘ के नाम से जाना जाता है। पश्चिमी तिब्बत के निकट पांगकांग झील के पास पाए जाने वाले हिरण से इसके लिए ऊन प्राप्त होता है। ये हिरण हिमालय में 12-14 हजार की ऊंचाई पर पाए जाते हैं।